दाँत से वेदांत तक
हमारे पूर्वज बहुत समझदार थे जिन्होंने मानव जीवन को चार भागों में विभाजित किया- उम्र के हिसाब से १-२५ वर्ष ब्रह्मचर्य, २६-५० ग्रिहस्थ, ५१-७५-वानप्रस्थ और ७६- आगे संन्यास! पर वह एक बहुत महत्वपूर्ण काम मेरे भरोसे छोड़ गये। और वह है दंत विद्या को आम मानुष तक पहुँचाना।
अब कहूँ कि मैं महा ग्यानी हूँ तो वैसे तो कोई अतिशयोक्तिपूर्ण घोषणा नहीं है पर क्योंकि मैं मानता हूँ कि अपनी उपलब्धियों का बखान करने का ज़िम्मा चमचों पर छोड देना चाहिए तो वह भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। लेकिन, लेकिन आप भी जानते हैं कि चमचे महँगे होते जा रहे हैं क्योंकि हम सब चमचों के बाज़ार मे ख़रीदार हैं तो माँग और पूर्ति का नियम तो लागू होगा ही। बहरहाल बाज़ार के सँभलने तक अपना ढोल खुद ही पीटने की सोची है।
हाँ तो मैं कहाँ था? याद आया, दंत विद्या की गुत्थी सुलझा रहा था।
वैज्ञानिकों के साथ यह समस्या है कि वे सारे प्रयोग दूसरों पर करते हैं, खुद पर कभी नहीं। बली के बकरे मिल ही जाते हैं। पहले चूहे, सुवर, बंदर, बाद में ग़रीब मानुष जो सब एक ही प्रजाति के माने जाते हैं। मेरे एक वैज्ञानिक मित्र ने खुद पर आज़माने की कोशिश की थी पर जान से गया। हुआ यूँ कि ओ बुडबक यह जानना चाहता था कि कि जब कोई ज़हर खाता है तो ज़हर के अंतिम असर होने तक उसको किस यात्रा से गुज़रना पड़ता है। वह सब लिखित में रिकॉर्ड करना चाह रहा था , शायद नोबेल की चाह में! सो, नामाकूल ने सामने नोटबुक रखी, हाथ में क़लम पकड़ा, ज़हर की पुडिया मुँह में उँडेली।साथ में ज़हर की काट का इंजेक्शन भी रख लिया कि अंतिम समय से पहले लगा कर बाहर आ जायेगा। रिकार्ड ख़ाक करता ? ज़हर अंदर, प्राण बाहर। यह तो अच्छा हुआ लिख कर गया था कि क्या करना चाह रहा था और कोई दुर्घटना हुई तो उसका ज़िम्मेदार वह श्वयं है वरना दोस्त होने के नाते मैं भी फँस जाता ।
अब यूं न समझें कि मैं कोई वैज्ञानिक हूँ। वैज्ञानिक तो दूर मैं वै का ज्ञा का नि का क भी नहीं हूँ। हाँ मेरे भी दाँत का सफ़र रहा है जैसे सबका होता है तो उस पलड़े पर मैं वैज्ञानिक हूँ। जो मेरा वैज्ञानिक दोस्त नहीं कर पाया, भुक्तभोगी होने के नाते मैं कर सकता हूँ ।
बडे होने पर पता चला कि सब बिना दाँत के पैदा होते हैं। भगवान सब सोच कर करते हैं। पैदायसी दाँत होते तो माँ के तो दूध पिलाते समय दाँत भिचकाते भिचकाते खुद के दाँत समय से पहले गिर जाते। वैसे यह बात माता पिता को बतानी चाहिये थी और प्राइमरी के पाठ्यक्रम में भी होनी चाहिये थी पर छोड़ो विषय से भटकना अच्छी बात नहीं है। मुझे यह बात बहुत बाद में पता चली। वैज्ञानिकों पर छोड देते हैं पता करें कि दाँत पैदायसी क्यों नहीं होते, बाद में क्यों उभरते हैं।
एक साल के होते होते दाँत दिखने लगते हैं। पाँच साल के होते होते चमकने लगते हैं और फिर अचानक गिरने लगते हैं। न एक साथ उगते हैं न एक साथ गिरते हैं। बोले दूध के दाँत गिर कर नये पक्के दाँत आते हैं। अरे भाई दूध पिलाया ही क्यों? न पिलाते तो सीधे पक्के दाँत आते। वैज्ञानिकों पर छोड देते हैं, कि पता करें दूध पीने से दाँत आते हैं कि बिना दूध पिये भी दाँत आ सकते हैं। कोरोना काल में घर पर ख़ाली बैठे बोर हो रहे होंगे।
समय को कौन लगाम लगा पाया है? साल पर साल चढ़ते ही दाँतों से मुँह भरने लगता है और एक समय वह आता है जब अकल दाढ़ भी आ जाती है। अकल आई कि नहीं पर दाढ़ आ गई। गिनती करें तो पूरे बत्तीस हो जाते हैं, १६ ऊपर १६ नीचे। हर बात को डिटेल्स में समझाओ तो बोलते हैं कि जी लेख लंबा हो गया, न समझाओ तो बोलते हैं कि लेख अधूरा है। ख़ैर।
यही उम्र होती है कुछ बनने की पर यहीं आकर अकल घास चरने निकल जाती है! स्कूल से कालेज, फिर नौकरी की तलाश। जिनके घर का व्यापार है, कालेज में तो समय बिताने आते हैं और बात बात पर अपने चमकीले दाँत निपटते रहते हैं। नौकरी की तलाश में घर तक छूट जाता है। किशमत और जानपहचान हो तो ठीक वरना जो मिले, सुहान अल्लाह।
जिंदगी आगे बढती है। आपाधापी में दाँतों की चिंता कम और दामों की चिंता ज्यादा सताने लगती है। फिर भी दांत हैं तो जहान है। दुनिया भर के टूथपेस्ट, दंत मंजन, टूथपिक, और न जाने क्या क्या लाकर जमा करो दाँतों को कार्यरत रखने के लिये। बात भी सही है। कहते हैं सारा प्रेम मुँह से होकर पेट में जाता है और वह प्रेम कितना ही मुलायम क्यों न हो चबाना तो दाँतों को ही पड़ता है।
और यही वह समय है जब कुछ कर गुजरने की चाह पैदा भी होती है पर दो परिवार मिलकर गुड़ गोबर कर देते हैं मतलब शादी कर देते हैं! परिवार की रज़ामंदी से करें या प्यार के नशे में शादी के बाद गुड़ गोबर होना ही है । इसे समाजशास्त्रियों पर छोड़ देते हैं, जिनका काम उन्हीं को साजे दूजा करें तो भांडा बाजे!
शादी न भी करते तो भी कौन से खंबे गाढ़ लेते! शादी के बाद बच्चे, बच्चों का पढाई, सर पर खुद की छत, फिर पडोसी से हिरस में बेमतलब का सामान। सब कुछ तो है पर लगता है फिर भी कुछ कमी है।
प्रायः ५० वर्ष की आयु तक दांत खंडित नहीं होते। एक आध कोई डगमगा गया हो तो बात अलग है पर ३२ में से एक दो का विशेष महत्व नहीं है । यही वह समय है जब मन पसंद फल खाये जा सकते हैं, मुठ्ठी भर कर बादाम फाँके जा सकते हैं । और को और गन्ना छीलकर चबाया - चूसा जा सकता है! बात गन्ना छीलकर चबाने - चूसने की बात आई तो यह भी बता दूँ कि जाड़ों के मौसम में बाहर धूप में खटिया बिछाकर गन्ना चबाने- चूसने का मज़ा ही अलग है।
६५ तक पहुँचे तो नौकरी से बाहर। तब तक बच्चों की शादी व्याह का काम भी निपट ही जाता है। पेंशन या रिटायरमेंट फ़ंड सही हो तो ख़र्चा पानी निकलता रहता है।
अब तक सारे नहीं तो कुछ दाँत हिलने लगते हैं। कुछ को डाक्टर निकाल देता है, कुछ को फिलिंग करके बचा लेता है। बाद में रूट कैनाल, क्राउन और न हो तो डेंचर।
यही समय है जब अहसास होता है कि जीवन व्यर्थ गँवा दिया। ना यह तेरा, ना यह मेरा, दुनिया रैन बसेरा ।जितना जोड़ा समेटा है कुछ भी साथ नहीं जायेगा । जान से ज़्यादा चाहने वाले भी शमशान घाट तक ही आकर लौट जायेंगे! जिसने धरती पर उतारा उसी को भूल गये। मन को सांसारिक बातों से हटा कर भगवत भजन में लगाने लगते हैं। धर्म और कर्म की बातें करने लगते हैं। रत जगे में शामिल होते हैं।
किसी ने सही कहा है- दाँत गये, वेदांत आया।
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