Thursday, June 29, 2017

उत्तराखंडी संस्क्रति मा फ़ेसबुक कु योगदान

( फ़ेसबुक मा ह्वाट्सअप भी शामिल झ)

कत्ती बार सोचुदू कि क्या फ़ेसबुकन  हमतायी नै पहचाण दै? मन तो नि मानदू पर दिमाग बुनै छ कि,  हाँ। आजकल फेसबुकस पर देखणायी छौ कि क्वी ढोल और दमारू बजाणै छ त क्वी मशक फूँकणै छ। क्वी पहाड़ी गीत पर थिरकणै छ त क्वी मंगल गीत गाणै छ। क्वी जांदरू घुमाणै छ त क्वी ओखल माँ साट्टी कुटणै छ। क्वी हल् लगाणै छ त क्वी बीज बूणै छ। क्वी बल्द तायी घास खिलाणै छ त क्वी गौडी पिजाणै छ। क्वी क्वी त उबर् मा चुलैक सामिणी रोटी भी बेलणै छ।

यूं सब मा एक बात कामन छ। सब रंग बिरंग कपडौं मा छन। क्वी क्वी त  नै नै पारंपरिक कपड़ों मा लदैं छन। दादी, चाची, बौडी, ब्वारी, बेटी, बैण, और यख तक कि घरवालि भी ज़ेवरों मा सजीं छन। नथनी, बुलाक फिर से फ़ैशन मा ऐ ग्ये। कैन ब्वाल कि गढ़वाल ग़रीब छ।

शहरों मा ख़ासकर लड़कियाँ गढ़वाली गीत गाणै छन और वीडियो पोस्ट करणै छन। गाँव जैकन फ़ोटो और वीडियो खींचीक पोस्ट करणै छन। कुछ त टूटीं फूटीं गढ़वाली भी बोलणै छन। गढ़वाली खान पान - कोदे की रोटी, झंगोरे की खीर, गहथ का फांणू, पलेऊ, बाड़ी, - आदि की थालीक फ़ोटो देखीक लगद कि पुराण दिन वापस आण वाल् छन। दिल्ली- एनसीआर, मुम्बई , जयपुर , चंडीगढ़, लखनऊ, जख भी दैखो अचानक ही उत्तराखंड की संस्क्रति हिलोरें लीणै छ। बेडु पाको बारह मासा की धुन पर पाँच सितारा होटलों मा महफ़िल सजीं छन। पांडव नर्ित्य पर ढाल तलवार लेकर योद्धा झूजें छन।

मील् सोच् रे हरि, अंग्रेज़ी, हिन्दी बौत ह्वे ग्ये , गढ़वाली मा कोशिश कर। शायद ज़्यादा लाइक मिल जौ। कन लग, ज़रूर बतैन।





उत्तराखंड पलायन- कुछ सुझाव- भाग-२

उत्तराखंड पलायन - कुछ सुझाव-भाग -२

हमने देखा कि जो शहरों मे रह रहे थे गाँव वालों से कुछ अलग दिखने लगे। फिर वो अलग भी रहने लगे। संयुक्त परिवार टूटकर इकाइयों मे बँट गये। कुछ शहरों मे कुछ गाँव मे। जो गाँव मे थे उनको शहर वालों  से कोई मदद नही मिली। नतीजा ये हुआ कि उन्होंने भी उनके हिस्से के खेत जोतने बंद कर दिये। साथ ही उनके हिस्से के घर की देख भाल भी बंद हो गयी। देखते देखते खेत बंजर हो गये और घर खंडहर।  एक दिन शहर वालों ने गाँव आना भी बंद कर दिया। मन तो करता था पर हालात से मजबूर थे।

सारे उत्तराखंड के गाँवों की यही समस्या है। सबको तो नही अपना सकते, चलो अपने अपने गाँव को अपनायें। शुरूवात बनचूरी से करते हैं। एक बात तो तय है। पहले तो शहर मे बसे लोग गाँव जायेंगे नही। अगर चले भी गये तो सबका गुज़ारा खेत से नही हो सकता। खेत के अलावा कुछ और काम करना पड़ेगा जिसके लिये बहरहाल तो कोई गुंजाइश नही है। कुछ जो रिटायरमेंट  के बाद गये हैं या तो पेंशन पर या जमा पूजीं पर टिके हैं।

समस्याओं से ही समाधान निकलते हैं। कुछ सुझाव हैं :-

1. लगभग ७५% बनचूरी के लोग दिल्ली और देहरादून मे हैं। उन सबको फ़ेसबुक या ह्वाट्सअप पर लाने का प्रयास करें। लगभग सबके पास फ़ोन हैं । जो भी इस काम मे आगे आना चाहे स्वागत । जवान, जानकार और कर्मठ हों तो बहुत अच्छा।
2. दिल्ली और देहरादून मे मिलें और विचार करें कि क्या किया जा सकता है कि गाँव फिर से आबाद हो सकें।
3. सबसे पहले जवान पीढी के कुछ लोग स्वेच्छा से मिलकर गाँव जांय और सारे रास्तों की झाड़ झंकार साफ़ करें। जो लोग गाँव मे हैं उनसे सलाह और सहयोग लें। पिछली बार गया था तो देखा गाँव से भ्वाचर और भिंड्वडी के पानी तक जाने का रास्ता ही ग़ायब था। जंगल ही जंगल दिख रहा था। गदन तक जाने की सोच भी नही सकते। ग़नीमत है गाँव के रास्ते और गलियाँ सीमेंटेड हो गयीं थीं और रात को सोलर लाइट से गाँव चमक रहा था।
4. साथ ही अपने अपने घरों की सफ़ाई करें। छोटी मोटी टूट फूट ठीक कर लेने से रहने लायक बन जायेंगे। एक दूसरे का हाथ बटायें। घर और रास्ते साफ़ दिखेंगे तो रहने का मन करेगा।अगर यह भी संभव नही तो किसी एक चार कमरों के घर को मरम्मत करके गेस्ट हाउस बना सकते हैं जिसका ख़र्चा सब मिलकर उठायें । उसकी देखभाल का ज़िम्मा किसी गाँव के वासी को कुछ मुआवज़े पर दे सकते है। जब कोई गाँव जाय तो गेस्ट हाउस मे पेमेंट देकर रह सके। खाने का इंतज़ाम भी संभव है। कांडी के होटल मे रहने से तो टूटे फूटे अपने घर मे या गाँव के साधारण गेस्ट हाउस मे रहना कहीं अच्छा है।
5. अपने हिस्से के खेत गाँव मे किसी भाई बंद को दे दीजिये जिसके खेत आपके खेत से लगे हों या जो लेना चाहे। इससे जोतने मे आसानी होगी। इससे चकबंदी जैसी खेती हो पायेगी। पूर्ण चकबंदी शायद संभव न हो। वरना कोई पूरा डांगू, खरीक, सलाण या फंदेधार कर सकता है। आपके लिये तो वैसे भी बोझ ही है। कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग एक और उपाय है। शर्त बस एक होगी कि लेने वाला खेत और घर दोनों को आबाद करेगा ताकि आप जब घर जांय तो घर साफ़ सुथरा मिले और आप कुछ दिन वहाँ रहकर पहाड़ का आनंद ले सकें। उससे क्या हुआ कितना हुआ मे कोई साझेदारी नही होगी।
6. घर मे शौचालय बना दें। सरकार इसमें मदद करे तो ठीक अन्यथा आप खुद बनायें। अगर हर घर के लिये संभव न हो तो सार्वजनिक शौचालय बन सकते हैं, पुरुषों के लिये अलग और महिलाओं के लिये अलग। जब दिल्ली या मुम्बई मे सार्वजनिक  शौचालय हो सकते है तो बनचूरी मे क्यों नही।
7. अब खेतों मे क्या उगायें इस पर बात करते हैं। मेरे विचार से गेहूँ या धान अब लाभदायक नही है। दुकान मे मिल जाता है और सस्ता भी। कोदा शायद ढीक रहे। मौसम के हिसाब से दालें - उड़द, तोर, गहथ, की फ़सल हो सकती है। कोटद्वार मे अच्छे दाम पर बिक भी जायेगा।आलू और प्याज़ भी उगाया जा सकता है। फलों मे आम, पपीता, संतरा, सीज़न के हिसाब से सब्ज़ियाँ।
8. सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा मसालों मे है। हल्दी, हींग, अदरक, मिर्च, ज़ीरा, धनिया बीज, काली मिर्च, आदि मसाले के अच्छे दाम मिल सकते हैं। क्या उगाया जा सकता है और क्या नही, इस पर विचार करना होगा।
9. पौडी गढ़वाल के कई इलाक़ों मे मशरूम की खेती हो रही है। बनचूरी मे होगी कि नही कह नही सकता।
10. इस डर से कि सब बंदर और जंगली जानवर ख़त्म कर देंगे कब तक जियेंगे? पास के सार गाँव वालों से सीख लो। उनके यहाँ कैसे इतनी अच्छी खेती होती है, उनकी फ़सल कैसे सुरक्षित रहती है। दो मील का फ़ैसला है पर जहाँ बनचूरी के खेत बंजर हैं, सार गाँव के हरे भरे, क्यों?
12. गाँव मे साल में एक बार ज़रूर जांय जब तक स्वास्थ्य साथ दे। वहाँ कुछ दिन रहें। सबसे बढ़िया समय अष्टमी का है। देवी के दर्शन और लोगों से मिलन। जो ख़र्चा करेंगे गाँव वालों की जेब मे ही जायेगा। गाँव की अर्थव्यवस्था मे इज़ाफ़ा होगा।
13. गाँव मे बिजली है । छोटा मोटा कोई उद्योग भी लगाया जा सकता है। पर इस पर बाद मे बात कर सकते हैं।
14. जो कहते हैं कि गाँव मे बच्चों की शिक्षाका समुचित इंतज़ाम नही है, ओ ग़लत हैं। हम उसी या उससे भी बदतर शिक्षा व्यवस्था से निकले हैं। आज तो गाँव मे ही १२वीं तक स्कूल है, और क्या चाहिये।
15. यह कहना कि गाँव मे बीमार पड़ने पर इलाज की व्यवस्था नही है ओ भी ग़लत है। गाँव में छोटी छोटी बीमारी के लिये प्रारम्भिक हस्पताल है, और पास मे ही भ्रिगुखाल का बड़ा हस्पताल। फिर जीप मे ३ घंटे के अंदर कोटद्वार। बड़े शहरों मे भी लोग सड़कों पर दम तोड़ते पाये गये हैं।
16. मनोरंजन के लिये टी वी हैं। कुछ नहीं तो पुराने ज़माने की तरह ताश और चौपड़ तो है ही। अब तो बच्चे क्रिकेट खेलते भी नज़र आते हैं। हम तो गिल्ली डंडा, गाँव वाली हाकी और हथगिंदी खेलते थे। फ़ुटबॉल के लिये पैसे कहाँ थे।
17. और आपस मे पालिटिक्स मत करिये। लड़िये मगर अपने अधिकारों के लिये सरकार से। नेता ओ हो जो वादे पूरे करे । जहाँ तक बनचूरी का सवाल है  सब एक हैं। जो अपनी मदद खुद नही कर सकता उसकी मदद कोई नही कर सकता।
अब आप कह सकते हैं कि इतना सब कुछ है तो मैं क्यों बाहर हूँ। खुद क्यों नही उदाहरण बनता। बात सही है। एक तो उम्र का सवाल है और दूसरा बर्सों से शहरों मे रह कर आदतें ख़राब हो चुकी हैं। वैसे भी येसुझाव मेरी पीढी के लिये नही हैं। हमारे बाद की और उनकी आने वाली पीढी के लिये हैं।

बहुत कुछ किया जा सकता है, कुछ कर गुज़रने की हिम्मत होनी चाहिये। मुझे याद है मै और मेरे जेष्ठ भाई १२वीं क्लास की पढ़ाई तक ( १९५९ तक) हर गर्मियों की दो महीने की छुट्टियों मे कोटद्वार/नज़ीबाबाद से गाँव जाते थे। खेतों की मर्म्मत करते, बड़े बड़े पत्थरों का पगार चिनते। जंगल से घास लकड़ी लाते। बरसात से पहले घर के पास के सग्वाड मे बाड लगाते। मज़े की बात यह कि ये सब करने मे मज़ा आता था और कुछ कर पाने का गर्व होता था।

दिन दूर नही जब शहरों से व्यापारी लोग आकर ऊपर देवी डाँडा की जमीन कुछ ख़रीदकर, कुछ हथिया कर वहाँ टूरिस्ट रेसोर्ट बना देंगे और कल के ज़मींदार उनके यहाँ वेटर की नौकरी कर रहे होंगे। अष्टमी का हफ़्ते भर का मेला लगेगा जिसमें पूजा कम और तमाशा ज़्यादा होगा। शायद नीचे औलेगी की जमीन पर भी कोई फ़ार्म हाउस होगा पर बनचूरी वाले का नही।

इस विषय पर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है । बहुत से कर्मठ लोग काम भी कर रहे हैं। सब अपना अपना अनुभव बाँटेंगे तो और भी अच्छा होगा। एक दूसरे की मदद से ही सफलता मिलती है।

आपके समय के लिये धन्यवाद। फिर मिलेंगे।

हरि प्रसाद लखेडा, बनचूरी, पौडी  गढ़वाल ।



उत्तराखंड पलायन- कुछ सुझाव- भाग- १

उत्तराखंड  पलायन - कुछ सुझाव - भाग -१

काफ़ी समय से उत्तराखंड से पलायन पर चर्चा होती रही है, और साथ मे यह भी कहा जाता रहा है कि चर्चा करने वाले ओ लोग हैं जो खुद पलायन कर चुके हैं और समय काटने के लिये शाम के बक्त अंग्रेज़ी शराब की चुस्कियाँ लेते हुये किसी ड्राइंग रूम मे बैठकर शेख़ चिल्ली वाली रश्म अदायगी करत देते हैं। बात काफ़ी हद तक सही भी है। ज़्यादातर हम शहरी लोग यही करते हैं या कर सकते हैं। न तो हम वापस जायेंगे न हमारी अगली पीढ़ी। पर इसका मतलब यह भी नही कि हम चर्चा भी न करें। संभव है कुछ हल निकल आये।

एक पोस्ट डाली थी -खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी- और जबाब मे हल पूछा गया कुछ सुझाव हैं तो बताइये वरना लिखने वाले तो बहुत हैं। सोचा और कुछ नही तो सुझाव तो दे ही सकते हैं।

सबसे पहले यह समझ लेना जरूरी है किस पलायन अपने आप मे कोई बुरी बात नही है। यह होता आया है और होता रहेगा। अपनी इच्छा से कोई भी अपना घर नही छोड़ना चाहता। जब हमारी मूल ज़रूरतें पूरी हो जाती है तो ख्वाइशें जन्म लेती हैं। किन्तु जब मूल ज़रूरतें ही पूरी नहीं होतीं तो पलायन जरूरी हो जाता है। किंतु ख्वाइशें भी जरूरी हैं, जिसके कारण भी पलायन होता है। दरअसल पलायन प्रगति है। ध्यान रहे जो शहरों मे आराम की ज़िंदगी बिता रहे हैं उनको भी बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। बिना मेहनत के कुछ नही मिलता ओ चाहे कालेज की डिग्री हो या अपनी मेहनत से कमाई खेत के कोदे की रोटी। जरूरी है जड़ों  से जुड़े रहना। कहीं भी रहो पर यदा कदा गाँव ज़रूर जाओ। जायेंगे तो वहाँ कुछ ख़र्चा तो करेंगे ही। गाँव की अर्थ व्यवस्था सुधरेगी।

अगर पलायन नही होता तो क्या हमको गोविंद वल्लभ पंत, भक्त दर्शन, मिलते? क्या आज देश के  पाँच सर्वोच्च पदों पर उत्त्तराखंडी होते। अगर पलायन नही होता तो क्या अमेरिका की पाँच बड़ी कंपनियों के सर्वेसर्वा भारतीय होते। जबाब है  ही नही।

और ज़रा सोचें ऐसा क्यों है कि पलायन की चर्चा उत्तराखंड मे ही सीमित है? हिमाचल प्रदेश मे कोई  समस्या नही है। वो भी तो पहाड़ी इलाक़ा है। पूरे नोर्थ ईस्ट मे यह समस्या नही है। राजस्थान के रेगिस्तान मे भी नही। वहाँ से तो सारे मारवाड़ी पूरे भारत मे राज कर रहे हैं। मारवाड़ी कही भी हों न उन्होंने अपने पैत्रिक घर से नाता तोड़ा न अपने संस्कारों से।

ऐसा क्या है कि हमारी आँखें ही नम हैं? हम उत्तराखंडी स्वभाव से ही पहाड़ी हैं। पहाड़ी का मतलब है सहन करने की शक्ति, जो हम मे बहुत है। पहाड़ी का मतलब है सब को भी सर पर बिठाना जो हमको ख़ूब आता है। दुर्भाग्य से नेता भी ऐसे ही मिले जिनको हमारी कमज़ोरी मालूम थी। हमको अपने अधिकारों के लिये लड़ना नही आता। लाला बहुत अच्छा है, उधार देने से मना नही करता। क्यों करेगा ? उसको मालूम है ओ जो माँगेगा तनखा मिलने पर चुपके से दे दोगे। हिसाब भी चेक नही करेंगे।

थोड़ा पीछे चलते हैं। आज से लगभग १०० साल पहले यह समस्या नही थी। जहाँ तक मेरी जानकारी है मेरे गाँव बनचूरी, पट्टी मल्ला उदयपुर, यमकेश्वर ब्लाक, पौडी गढ़वाल मे मेरे दादाजी तक कोई भी नौकरी करने गाँव छोड़कर नही गया। नमक, गुड़, कपड़ा को छोड़कर सब कुछ गाँव मे था। खेतों से अनाज, पास के सगवाडों से सब्ज़ी, और इधर उधर बिखरे पेड़ों और झाड़ों से फल।गाँव मे कुछ आम, अमरूद, संतरा, पपीता, आदि के पेड़ भी कुछ परिवारों ने लगाये थे। घर की गाय और भैंस से दूध, दही, छाछ, धी, मिल जाता। गाँव मे ही लोहार था जो खेती के औज़ार बना देता। सरसों के दाने पेलकर खाने और सर मे लगाने का तेल भी मिल जाता। गाँव के पुरोहित वैद्य भी थे।,वही सारे संस्कार और दवा दारू भी करते। नक़द की कमी थी इसलिये फ़सल पर सबकी फ़ीस अनाज से चुकाई जाती। सारांश यह कि गाँव लगभग आत्म निर्भर था। साल मे दो चार महीने के लिये जब खेतों मे काम नही होता, परिवार से कोई पास के क़स्बे मे जाकर मेहनत मज़दूरी करता और नमक, गुड, कपड़े का इंतज़ाम हो जाता।

अब ज़रा कुछ अनुमान करें। परिवार बढ़े तो घर और खेत दोनों कम पड़ने लगे। जमीन के अपने नियम हैं । जमीन जन संख्या के हिसाब से नही बढ़ती। वास्तव मे जमीन तो उतनी ही रहती है, बढ़ ही नही सकती। बँटे हुये घर और खेत कब तक साथ देते। संयुक्त परिवार का ज़माना था। पहले घर का एक सदस्य गया और बाहर से कमा कर लाने लगा। बाक़ी खेत संभालते रहे। कमी पूरी नही हुई तो बाक़ी सदस्य भी जाने लगे। परिवार का एक सदस्य गाँव मे ही रहा खेत संभालने के लिये। औरतें और बच्चे गाँव मे ही रहे। मिलजुल कर काम चलता रहा और खेत आबाद रहे।

शुरू शुरू मे जो क़स्बों और शहरों मे गये, लगभग अनपढ़ थे। बहुत से गांवों के बीच एक स्कूल था तो सही पर नाम के लिये। पढ़ लिख कर कौन सा पटवारी बन जाते। पर क़स्बों और शहरों की बात ही कुछ और थी।  जैसे पहले कहा, मूल ज़रूरतों  के बाद ख्वाइशें जन्म लेती हैं। देखा देखी बच्चों की पढ़ाई के नाम पर परिवार भी ले गये। वे जब छुट्टियों मे गाँव आते तो एकदम दूसरे दिखते। साफ़ सुथरे बदन, चमकते कपड़े, पाँवों मे जूते, सलीक़े से सजे सर के बाल और अलग सी भाषा- सब कुछ नया। उनपर नाज भी होता और उनसे ईर्शा भी।


क्रमश:


खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी।



खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी- आपका उत्तराखंड ।
ठीक से नही बता सकता पर लगभग ४०० साल पहले हमारे पूर्वज रिखेडा गाँव से बनचूरी मे बस गये थे। दोनों गाँव लगभग एक दूसरे से सटे हैं। परिवार बड़े होते है तो कुछ को अलग घर बनाकर रहना जरूरी हो जाता है। खेती की जमीन तो पहले ही रही होगी बस कुछ को बँटवारे मे बनचूरी की ज़मीन मिली होगी ओर उन्होंने सुविधा की ख़ातिर बनचूरी मे घर बना लिया।
बनचूरी दो हिस्सों मे बंटी है- मल्ली और तल्ली। कुछ परिवार मल्ली बनचूरी मे बसे तो कुछ तल्ली मे। सवाल सिर्फ़ सुविधा का रहा होगा। घर खेत और पानी के पास हो। मल्ली बनचूरी वालों के अधिकांश खेत ऊपर थे ओर तल्ली बनचूरी वालों के नीचे। कुछ हिस्से मे आये हुये खेत रिखेडा मे भी थे।
मेरे विचार से तल्ली बनचूरी मे कुल मिलाकर पाँच या छ: परिवार आये होंगे। जिन्होंने थोड़ा ऊपर करके मकान बनाये उनको मंजख्वाल बोला गया, बाँयी तरफ़ वालों को वलख्वाल, दायीं तरफ़ वालों को पलख्वाल और नीचे की तरफ़ वालों को डगुंल्डा के नाम से जाना जाने लगा। परिवार बढ़े तो नये घर बने, खेत बँटे, ।  उस समय (१९४०-६०) जहाँ तक याद है सारे परिवार खेती करते थे। साल मे दो फ़सले होती थीं। लगभग हर घर मे बैल, हल और खेतिहर जानवर थे । साल मे लगभग छ: महीने घर का एक सदस्य जानवरों के साथ खेतों मे रात गोट मे गुज़ारता और दिन मे जंगल मे जानवरों को चराने ले जाता। काफ़ी लोग शहरों मे रोज़गार करते पर पाँव उनके भी गाँव मे ही थे। मेहनत ज़्यादा थी पर खेतों से परिवार का राशन मिल जाता था।
धीरे धीरे कई कारणों से लोगों ने शहरों का रुख़ किया और वहीं के हो गये। ४०० साल का इतिहास ४०-५० साल मे बदल गया।
नीचे जो तस्वीर है ओ पलख्वाल की है। यहां लगभग १५ परिवार रहते थे। दो एक को छोड़कर अब यहाँ कोई नही रहता। मंजख्वाल, वलख्वाल और डगुंल्डा की हालत थोड़ी बेहतर है। खेती तो छूट चुकी है पर मनरेगा, बीपीयल और पेंशन की मेहरबानी से सबका गुज़ारा चल रहा है। एक दो परिवार बकरी भी पाले हैं जिससे कुछ आमदनी हो जाती है। कुल मिलाकर कल का किसान आज का मज़दूर या दुकानदार बन गया है।

यह तस्वीर मे छोटे भाई बीरेन्द्र लखेडा के बेटे किशोर ने फ़ेसबुक पर डाली, सोचा हक़ीक़त भी बयान कर दूँ। भाई बीरेन्द्र की वजह से ही हमारा पैत्रिक मकान सलामत है। यह बात अलग है कि हम चाहते हुये भी ज़्यादा नही जा पाते।





Universal Language of Love and Hate.

Universal Language of Love and Hate. Sometimes, I wonder, why humans developed languages or even need them? If we look back, we will realize...