उत्तराखंड पलायन - कुछ सुझाव - भाग -१
काफ़ी समय से उत्तराखंड से पलायन पर चर्चा होती रही है, और साथ मे यह भी कहा जाता रहा है कि चर्चा करने वाले ओ लोग हैं जो खुद पलायन कर चुके हैं और समय काटने के लिये शाम के बक्त अंग्रेज़ी शराब की चुस्कियाँ लेते हुये किसी ड्राइंग रूम मे बैठकर शेख़ चिल्ली वाली रश्म अदायगी करत देते हैं। बात काफ़ी हद तक सही भी है। ज़्यादातर हम शहरी लोग यही करते हैं या कर सकते हैं। न तो हम वापस जायेंगे न हमारी अगली पीढ़ी। पर इसका मतलब यह भी नही कि हम चर्चा भी न करें। संभव है कुछ हल निकल आये।
एक पोस्ट डाली थी -खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी- और जबाब मे हल पूछा गया कुछ सुझाव हैं तो बताइये वरना लिखने वाले तो बहुत हैं। सोचा और कुछ नही तो सुझाव तो दे ही सकते हैं।
सबसे पहले यह समझ लेना जरूरी है किस पलायन अपने आप मे कोई बुरी बात नही है। यह होता आया है और होता रहेगा। अपनी इच्छा से कोई भी अपना घर नही छोड़ना चाहता। जब हमारी मूल ज़रूरतें पूरी हो जाती है तो ख्वाइशें जन्म लेती हैं। किन्तु जब मूल ज़रूरतें ही पूरी नहीं होतीं तो पलायन जरूरी हो जाता है। किंतु ख्वाइशें भी जरूरी हैं, जिसके कारण भी पलायन होता है। दरअसल पलायन प्रगति है। ध्यान रहे जो शहरों मे आराम की ज़िंदगी बिता रहे हैं उनको भी बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। बिना मेहनत के कुछ नही मिलता ओ चाहे कालेज की डिग्री हो या अपनी मेहनत से कमाई खेत के कोदे की रोटी। जरूरी है जड़ों से जुड़े रहना। कहीं भी रहो पर यदा कदा गाँव ज़रूर जाओ। जायेंगे तो वहाँ कुछ ख़र्चा तो करेंगे ही। गाँव की अर्थ व्यवस्था सुधरेगी।
अगर पलायन नही होता तो क्या हमको गोविंद वल्लभ पंत, भक्त दर्शन, मिलते? क्या आज देश के पाँच सर्वोच्च पदों पर उत्त्तराखंडी होते। अगर पलायन नही होता तो क्या अमेरिका की पाँच बड़ी कंपनियों के सर्वेसर्वा भारतीय होते। जबाब है ही नही।
और ज़रा सोचें ऐसा क्यों है कि पलायन की चर्चा उत्तराखंड मे ही सीमित है? हिमाचल प्रदेश मे कोई समस्या नही है। वो भी तो पहाड़ी इलाक़ा है। पूरे नोर्थ ईस्ट मे यह समस्या नही है। राजस्थान के रेगिस्तान मे भी नही। वहाँ से तो सारे मारवाड़ी पूरे भारत मे राज कर रहे हैं। मारवाड़ी कही भी हों न उन्होंने अपने पैत्रिक घर से नाता तोड़ा न अपने संस्कारों से।
ऐसा क्या है कि हमारी आँखें ही नम हैं? हम उत्तराखंडी स्वभाव से ही पहाड़ी हैं। पहाड़ी का मतलब है सहन करने की शक्ति, जो हम मे बहुत है। पहाड़ी का मतलब है सब को भी सर पर बिठाना जो हमको ख़ूब आता है। दुर्भाग्य से नेता भी ऐसे ही मिले जिनको हमारी कमज़ोरी मालूम थी। हमको अपने अधिकारों के लिये लड़ना नही आता। लाला बहुत अच्छा है, उधार देने से मना नही करता। क्यों करेगा ? उसको मालूम है ओ जो माँगेगा तनखा मिलने पर चुपके से दे दोगे। हिसाब भी चेक नही करेंगे।
थोड़ा पीछे चलते हैं। आज से लगभग १०० साल पहले यह समस्या नही थी। जहाँ तक मेरी जानकारी है मेरे गाँव बनचूरी, पट्टी मल्ला उदयपुर, यमकेश्वर ब्लाक, पौडी गढ़वाल मे मेरे दादाजी तक कोई भी नौकरी करने गाँव छोड़कर नही गया। नमक, गुड़, कपड़ा को छोड़कर सब कुछ गाँव मे था। खेतों से अनाज, पास के सगवाडों से सब्ज़ी, और इधर उधर बिखरे पेड़ों और झाड़ों से फल।गाँव मे कुछ आम, अमरूद, संतरा, पपीता, आदि के पेड़ भी कुछ परिवारों ने लगाये थे। घर की गाय और भैंस से दूध, दही, छाछ, धी, मिल जाता। गाँव मे ही लोहार था जो खेती के औज़ार बना देता। सरसों के दाने पेलकर खाने और सर मे लगाने का तेल भी मिल जाता। गाँव के पुरोहित वैद्य भी थे।,वही सारे संस्कार और दवा दारू भी करते। नक़द की कमी थी इसलिये फ़सल पर सबकी फ़ीस अनाज से चुकाई जाती। सारांश यह कि गाँव लगभग आत्म निर्भर था। साल मे दो चार महीने के लिये जब खेतों मे काम नही होता, परिवार से कोई पास के क़स्बे मे जाकर मेहनत मज़दूरी करता और नमक, गुड, कपड़े का इंतज़ाम हो जाता।
अब ज़रा कुछ अनुमान करें। परिवार बढ़े तो घर और खेत दोनों कम पड़ने लगे। जमीन के अपने नियम हैं । जमीन जन संख्या के हिसाब से नही बढ़ती। वास्तव मे जमीन तो उतनी ही रहती है, बढ़ ही नही सकती। बँटे हुये घर और खेत कब तक साथ देते। संयुक्त परिवार का ज़माना था। पहले घर का एक सदस्य गया और बाहर से कमा कर लाने लगा। बाक़ी खेत संभालते रहे। कमी पूरी नही हुई तो बाक़ी सदस्य भी जाने लगे। परिवार का एक सदस्य गाँव मे ही रहा खेत संभालने के लिये। औरतें और बच्चे गाँव मे ही रहे। मिलजुल कर काम चलता रहा और खेत आबाद रहे।
शुरू शुरू मे जो क़स्बों और शहरों मे गये, लगभग अनपढ़ थे। बहुत से गांवों के बीच एक स्कूल था तो सही पर नाम के लिये। पढ़ लिख कर कौन सा पटवारी बन जाते। पर क़स्बों और शहरों की बात ही कुछ और थी। जैसे पहले कहा, मूल ज़रूरतों के बाद ख्वाइशें जन्म लेती हैं। देखा देखी बच्चों की पढ़ाई के नाम पर परिवार भी ले गये। वे जब छुट्टियों मे गाँव आते तो एकदम दूसरे दिखते। साफ़ सुथरे बदन, चमकते कपड़े, पाँवों मे जूते, सलीक़े से सजे सर के बाल और अलग सी भाषा- सब कुछ नया। उनपर नाज भी होता और उनसे ईर्शा भी।
क्रमश:
काफ़ी समय से उत्तराखंड से पलायन पर चर्चा होती रही है, और साथ मे यह भी कहा जाता रहा है कि चर्चा करने वाले ओ लोग हैं जो खुद पलायन कर चुके हैं और समय काटने के लिये शाम के बक्त अंग्रेज़ी शराब की चुस्कियाँ लेते हुये किसी ड्राइंग रूम मे बैठकर शेख़ चिल्ली वाली रश्म अदायगी करत देते हैं। बात काफ़ी हद तक सही भी है। ज़्यादातर हम शहरी लोग यही करते हैं या कर सकते हैं। न तो हम वापस जायेंगे न हमारी अगली पीढ़ी। पर इसका मतलब यह भी नही कि हम चर्चा भी न करें। संभव है कुछ हल निकल आये।
एक पोस्ट डाली थी -खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी- और जबाब मे हल पूछा गया कुछ सुझाव हैं तो बताइये वरना लिखने वाले तो बहुत हैं। सोचा और कुछ नही तो सुझाव तो दे ही सकते हैं।
सबसे पहले यह समझ लेना जरूरी है किस पलायन अपने आप मे कोई बुरी बात नही है। यह होता आया है और होता रहेगा। अपनी इच्छा से कोई भी अपना घर नही छोड़ना चाहता। जब हमारी मूल ज़रूरतें पूरी हो जाती है तो ख्वाइशें जन्म लेती हैं। किन्तु जब मूल ज़रूरतें ही पूरी नहीं होतीं तो पलायन जरूरी हो जाता है। किंतु ख्वाइशें भी जरूरी हैं, जिसके कारण भी पलायन होता है। दरअसल पलायन प्रगति है। ध्यान रहे जो शहरों मे आराम की ज़िंदगी बिता रहे हैं उनको भी बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। बिना मेहनत के कुछ नही मिलता ओ चाहे कालेज की डिग्री हो या अपनी मेहनत से कमाई खेत के कोदे की रोटी। जरूरी है जड़ों से जुड़े रहना। कहीं भी रहो पर यदा कदा गाँव ज़रूर जाओ। जायेंगे तो वहाँ कुछ ख़र्चा तो करेंगे ही। गाँव की अर्थ व्यवस्था सुधरेगी।
अगर पलायन नही होता तो क्या हमको गोविंद वल्लभ पंत, भक्त दर्शन, मिलते? क्या आज देश के पाँच सर्वोच्च पदों पर उत्त्तराखंडी होते। अगर पलायन नही होता तो क्या अमेरिका की पाँच बड़ी कंपनियों के सर्वेसर्वा भारतीय होते। जबाब है ही नही।
और ज़रा सोचें ऐसा क्यों है कि पलायन की चर्चा उत्तराखंड मे ही सीमित है? हिमाचल प्रदेश मे कोई समस्या नही है। वो भी तो पहाड़ी इलाक़ा है। पूरे नोर्थ ईस्ट मे यह समस्या नही है। राजस्थान के रेगिस्तान मे भी नही। वहाँ से तो सारे मारवाड़ी पूरे भारत मे राज कर रहे हैं। मारवाड़ी कही भी हों न उन्होंने अपने पैत्रिक घर से नाता तोड़ा न अपने संस्कारों से।
ऐसा क्या है कि हमारी आँखें ही नम हैं? हम उत्तराखंडी स्वभाव से ही पहाड़ी हैं। पहाड़ी का मतलब है सहन करने की शक्ति, जो हम मे बहुत है। पहाड़ी का मतलब है सब को भी सर पर बिठाना जो हमको ख़ूब आता है। दुर्भाग्य से नेता भी ऐसे ही मिले जिनको हमारी कमज़ोरी मालूम थी। हमको अपने अधिकारों के लिये लड़ना नही आता। लाला बहुत अच्छा है, उधार देने से मना नही करता। क्यों करेगा ? उसको मालूम है ओ जो माँगेगा तनखा मिलने पर चुपके से दे दोगे। हिसाब भी चेक नही करेंगे।
थोड़ा पीछे चलते हैं। आज से लगभग १०० साल पहले यह समस्या नही थी। जहाँ तक मेरी जानकारी है मेरे गाँव बनचूरी, पट्टी मल्ला उदयपुर, यमकेश्वर ब्लाक, पौडी गढ़वाल मे मेरे दादाजी तक कोई भी नौकरी करने गाँव छोड़कर नही गया। नमक, गुड़, कपड़ा को छोड़कर सब कुछ गाँव मे था। खेतों से अनाज, पास के सगवाडों से सब्ज़ी, और इधर उधर बिखरे पेड़ों और झाड़ों से फल।गाँव मे कुछ आम, अमरूद, संतरा, पपीता, आदि के पेड़ भी कुछ परिवारों ने लगाये थे। घर की गाय और भैंस से दूध, दही, छाछ, धी, मिल जाता। गाँव मे ही लोहार था जो खेती के औज़ार बना देता। सरसों के दाने पेलकर खाने और सर मे लगाने का तेल भी मिल जाता। गाँव के पुरोहित वैद्य भी थे।,वही सारे संस्कार और दवा दारू भी करते। नक़द की कमी थी इसलिये फ़सल पर सबकी फ़ीस अनाज से चुकाई जाती। सारांश यह कि गाँव लगभग आत्म निर्भर था। साल मे दो चार महीने के लिये जब खेतों मे काम नही होता, परिवार से कोई पास के क़स्बे मे जाकर मेहनत मज़दूरी करता और नमक, गुड, कपड़े का इंतज़ाम हो जाता।
अब ज़रा कुछ अनुमान करें। परिवार बढ़े तो घर और खेत दोनों कम पड़ने लगे। जमीन के अपने नियम हैं । जमीन जन संख्या के हिसाब से नही बढ़ती। वास्तव मे जमीन तो उतनी ही रहती है, बढ़ ही नही सकती। बँटे हुये घर और खेत कब तक साथ देते। संयुक्त परिवार का ज़माना था। पहले घर का एक सदस्य गया और बाहर से कमा कर लाने लगा। बाक़ी खेत संभालते रहे। कमी पूरी नही हुई तो बाक़ी सदस्य भी जाने लगे। परिवार का एक सदस्य गाँव मे ही रहा खेत संभालने के लिये। औरतें और बच्चे गाँव मे ही रहे। मिलजुल कर काम चलता रहा और खेत आबाद रहे।
शुरू शुरू मे जो क़स्बों और शहरों मे गये, लगभग अनपढ़ थे। बहुत से गांवों के बीच एक स्कूल था तो सही पर नाम के लिये। पढ़ लिख कर कौन सा पटवारी बन जाते। पर क़स्बों और शहरों की बात ही कुछ और थी। जैसे पहले कहा, मूल ज़रूरतों के बाद ख्वाइशें जन्म लेती हैं। देखा देखी बच्चों की पढ़ाई के नाम पर परिवार भी ले गये। वे जब छुट्टियों मे गाँव आते तो एकदम दूसरे दिखते। साफ़ सुथरे बदन, चमकते कपड़े, पाँवों मे जूते, सलीक़े से सजे सर के बाल और अलग सी भाषा- सब कुछ नया। उनपर नाज भी होता और उनसे ईर्शा भी।
क्रमश:
No comments:
Post a Comment