Wednesday, August 9, 2017

The Tiring 'ME'
Yes I can tire myself. I need no body to do that.
 
Sometimes I stop listening to myself. Not sometimes, quite often. I am made of two MEs ! One inside, the other outside.  It is the one inside that tires me. I am happy with the one outside because it never interferes, rather it encourages me to go and do what I like. 

The one inside, never stops talking to me, talkative fellow!  To be honest,  I agree with this me on all accounts like I should be truthful, honest, compassionate and all that. I agree with this me and even promise to follow its advice but by the evening or morning I break that promise.

Many a times it has told me not to preach what I do not  practice and I promise to preach only what I practice but I  fail to keep my promise. I used to write lot of  preaching stuff from the scriptures and stopped for a while as per voice from the me within. Within no time, I started surmonising like a living sage on this planet.

Many a times I promised not to smoke or drink on its advice but could not keep it. There are hundreds of broken promises. If some of them I  kept or the inner me may tend to believe so , let me tell it that it was done for some other reason like health or other compelling circumstances  but surely not on its advice.  

Surprisingly,  some of its advice resonate to what I was told my parents. I was in a position to follow that like never insult your elders, never willingly hurt others, never steal from others and stuff like that. For that the credit goes to my parents and not to my inner 'me'.

It keeps me tiring though. 






Friday, August 4, 2017

गुरु के चरणों में श्रद्धा सुमन


ग़ुरूर ब्रह्मा ग़ुरूर विष्णु ग़ुरूर देवो महेश्वर:
ग़ुरूर शाक्षात पराब्रह्म, तस्मै गुरुवे नम:

इन पवित्र शब्दों के साथ यह मेरा अपने गुरु के बारे में चंद लाइनें लिखने का प्रयास है। नज़ीबाबाद के सरस्वती इंटरमीडियट कालेज (जो कि अब मूर्तिदेवी सरस्वती इंटरमीडियट कालेज के नाम से जाना जाता है  और साहू शांति प्रसाद जैन ट्रस्ट ,टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप, द्वार संचालित था, मे हम दोनों भाइयों का दाख़िला जुलाई १९५७ मे हुआ। कोटद्वार से हाई स्कूल करने के बाद पास मे यही एक कालेज था जहाँ कामर्स पढ़ाई जाती थी। जब कालेज में दाखिल हुये तो पता चला कि पूरे जिले मे कालेज का नाम था। बोर्ड परीक्षा में १००% सफलता, कई छात्र मेरिट लिस्ट में। लंबी चौड़ी बिल्डिंग, खेल का मैदान। ग़रीब विद्यार्थियों को मुफ़्त किताबें, फ़ीस माफ़। पढ़ाई में अच्छा होने से वज़ीफ़ा।

लेकिन इन सब से ऊपर केला जी। हाँ, श्री राम नारायण केला जी, स्कूल के प्रधानाचार्य जिनको हम सब 'सर' कहकर बुलाते । केला जी अपनी कार्य कुशलता और अनुशासन के लिये जाने जाते थे। उन्हीं के परिश्रम से यह मिडिल स्कूल से इंटरमीडियट कालेज बना था। हमारे अध्यापक वर्ग मे थे द्विवेदी जी, सिंगल साहेब, जैन साहेब।

अब तक तो सुना ही था, विद्यार्थी के रूप में अनुभव भी होने लगा कि ऐसे ही तो इसको बेस्ट कालेज नही बोला जाता था। अनुशासन, अनुशासन और अनुशासन। केला जी का अनुशासन विद्यार्थियों तक ही सीमित नही  था। इसमें अध्यापक भी आते थे। उनसे अपेक्षा थी कि कालेज टाइम से आधा घंटा पहले पहुँचे, हज़ारी रजिस्टर में हाज़िरी दें और ध्यान रखें कि हम सब अनुशासन मे हैं कि नहीं।

विद्यार्थियों से अपेक्षा थी कि वह कालेज टाइम से कम से कम १५ मिनट पहले कालेज पहुँच जांय पर गेट बंद होने से पहले वरना बिना संतोष जनक उत्तर देने पर सज़ा। केला जी ताज़ा अख़बार या कोई किताब हाथ में लिये कुर्सी पर कार्यालय के सामने विराजमान मिलते। एक नियम सा बन गया था, उनका पाँव छूते और चुपके से कक्षा की तरफ़ । देर से आने वाले को कान पकड़ कर उढ्ढा बैठक। अधिकतर देर से आने वाले को घर वापसी । कई बार ऐसे लेट लतीफों को उनके पिता या कोई घर का सदस्य वापस ला रहा होता और भरपूर माफ़ी के साथ आगे समय पर आने का आश्वासन दे रहा होता। नतीजा यह कि यदा कदा ही कोई देर से आता  था। कपड़ों के बारे मे भी कड़े नियम। यूनिफ़ॉर्म तो नही थी पर जो भी पहनो साफ़ हो। क़मीज़ के बटन ढीक से लगे हों, कोई बटन कम न हो। जूते पालिस किये हुये, नाख़ून कटे हुये, बाल तरीक़े से सँवरे हुये, । जो भी नियम के बाहर पाया जाता घर भेज दिया जाता।

उस समय नज़ीबाबाद छोटा सा क़स्बा था। केलाजी क़स्बे की जानी मानी हस्तियों मे से थे। आचार्यजी के नाम से जाने जाते थे। लंबा छरहरा बदन, अधपकी लंबी दाढ़ी, कुर्ता और सफ़ेद धोती- कोई भी पहचान सकता था। 'सर' का दबदबा स्कूल की दीवारों तक ही सीमित नही था। वे अपनी स्कूल के सब बच्चों को जानते और पहचानते थे। अगर कोई किसी चाट के ठेले पर चाट खाता हुआ या ऐसी ही कोई अनचाही हरकत करता हुआ पाया जाता जो उनके स्कूल के मापदंड के बराबर नही होता तो उसकी वहीं पर ताजपोशी हो जाती यानी कान पकड़कर बैठो उठो और बोलो आगे नही होगा।सिनेमा देखने पर तो एकदम बंचित। बीड़ी, सिगरेट या तास खेलना तो पाप था। ऐसा नही कि कोई करता नही था पर पकड़े जाने का डर और उस पर सज़ा के मारे सब छिप कर और सावधानी से करते। दो साल मे दो पिक्चर तो हम भाइयों ने भी देखीं।

'सर' की मुलायम साइड भी थी। कभी स्कूल मे छड़ी का इस्तेमाल नही हो सकता था। अनुशासन के नाम पर किसी को शारीरिक कष्ट नही पहुँचा सकते थे। आँखों से सब कह देते थे। ग़रीब विद्यार्थियों को वज़ीफ़ा या किताबें मिलती थीं। पढ़ाई मे कमज़ोर को स्कूल मे अतिरिक्त समय दिया जाता। पढ़ाई मे होशियार को ईनाम, किताब या प्रमाण पत्र देकर प्रोत्साहित किया जाता। जब कभी कोई अध्यापक नही होता तो बड़ी कक्षा के विद्यार्थी को जूनियर क्लास मे पढ़ाने के लिये भेज देते। ऐसे कुछ अवसर मुझे भी मिले।

स्कूल मे श्रमदान का चलन भी था । हमने खेल मैदान साफ़ किये, ईंट, बालू आदि को मिस्त्रियों तक पहुँचाया। मना करने की गुंजाइस तो थी नही पर उनका खुद का उत्साह और किसी भी काम को छोटा न समझने की शिक्षा ने हम मे उत्साह भर दिया था। लगता हम अपने  घर के लिये कर रहे हैं।

स्कूल के मैनेजिंग ट्रस्टी से उनके अच्छे संबंध थे। ट्रस्टी के परिवार से पढ़ने वाले बताते कि केला जी की अधिकांश शामें उनके घर पर ही उनके बुज़ुर्गों के साथ बीतती थीं। खाना भी वहीं से आता था। उन्हीं से पता चला कि केला जी सिनेमा देखते है। ट्रस्टी के साथ रात के आख़री सो मे बालकनी में बैठकर देखी जाती थीं।

अंतिम वर्ष १२ वीं की परीक्षा सर पर थी। एक रात को सिनेमा देखने गये। इंटरवेल मे नजर पड़ी तो देखा कि 'सर' भी ट्रस्टी के साथ बालकनी मे बैठे हैं। शायद उन्होंने भी हमको देख लिया था। इंटरवेल के बाद अंधेरे मे चुपके से खिसक लिये। अगले दिन स्कूल जाने से डर रहे थे पर मजबूरी थी। रोज़ की तरह पाँव छू कर क्लास मे गये। हमेशा की तरह वे प्रार्थना के समय हाज़िर थे। हमेशा की तरह उनके कुछ शब्द की इंतज़ार कर रहे थे। डर तो था ही कि अब बुलायें या तब। आने वाली परीक्षा के बारे मे मेहनत से तैयारी करने को कहा जिससे अच्छे अंकों से पास हों। और कहा कि कुछ विद्यार्थी जिनसे उन्हें बहुत उम्मीद है , ऐसे समय मे सिनेमा देखते हैं जो अच्छी बात नही है। अपने ऊपर अति विश्वास ठीक नही है। शायद जानबूझकर नाम नही बताये, न ही कोई सज़ा दी। सोचा होगा, आख़री दिनों मे और वह भी परीक्षा के समय  मनोबल न गिर जाय।

बाद मे भी जब भी नज़ीबाबाद जाने का अवसर मिला, उनसे जरूर मिला। रिटायर होने के बाद उन्होंने एक स्कूल की स्थापना की जो आचार्य राम नारायण केला इंटरमीडियट कालेज के नाम से सुचारू रूप से चल रहा है और उनकी याद ताज़ा रखता है।

ऐसे थे हमारे 'सर'। आप सामान्य व्यक्ति लगते थे पर आप मे कुछ था। हमें आप पर गर्व है। आपने हमारी ज़िंदगी बनाये। बारंबार आपके चरणों मे प्रणाम।



ज़िंदगी के रंग- विश्वास हनन (पी आइ सी कोटद्वार )

सारी शर्म और मासूमियत से पल्ला झाड़ते हुये, मै कह सकता हूँ कि मैं एक होशियार विद्यार्थियों में गिना जाता था। इसलिये मैं लगभग सारे शिक्षकों की पसंद भी था। किन्तु यह भी सही है कि जहाँ इसके कुछ फ़ायदे हैं वही कई नुक़सान भी हैं। जब हम  किसी का विश्वास जीत लेते हैं तो इस बात का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है कि वह विश्वास टूटे नही। इसके लिये कई बलिदान भी करने पड़ सकते हैं। ख़ैर भाषण ख़त्म करते हुये मुद्दे की बात पर आते हैं।

१९५२ के सत्र मे पब्लिक इंटरमीडियट कालेज कोटद्वार मे छटी कक्षा मे प्रवेश मिला था। एक ज़िद थी कि बड़े भाई के साथ एक ही कक्षा मे पढना है और यह तब ही संभव था कि मै चौथी कक्षा से सीधे छटी कक्षा मे जाता। जैसे तैसे करके पिता श्री ने प्रीसंपिल साहेब श्री बी डी बहुखंडी जी को मनाया, हिन्दी का डिकटेसन दिया, कुछ मौखिक सवालों का जबाब दिया और लाइन क्लियर हो गई। मौखिक सवाल आज भी याद है। नौटियाल जी के पास मौखिक परीक्षा के लिये भेजा गया था।  उन्होंने पूछा तीन अमरूद और पाँच आम कितने हुये, जबाब दिया, आठ। पूछे, आठ क्या पत्थर? जबाब दिया, अमरूद और आम मिलाकर। पीठ पर हाथ रखकर पास कर दिया।

शास्त्री जी की मुझ पर विषेश क्रिपा थी। हिंदी के शिक्षक थे। असली नाम तो शायद कालेज के रजिस्टर मे रहा होगा। अधपके बाल, सफ़ेद कुर्ता, सफ़ेद धोती और पाँवों मे चमकता काला जूता दूर से ही उनके आने की सूचना दे देता। सब शास्त्री जी कह कर बुलाते थे। विद्यार्थी मास्टरजी कहकर बुलाते। मुझपर उनको बड़ा फ़क्र था। मेरी लिखावट, बात करने का सलीक़ा, पढ़ाई मे रुचि और सबसे बड़ी मेरी आज्ञापालनता से वे मुझपर प्रसन्न रहते। क्लास मे इसका उदाहरण देते। उनके हिसाब से मै कुछ ग़लत कर ही नही सकता था। होम वर्क समय पर करना, आने वाले अध्याय को घर पर पहले से पढ़कर आना, कक्षा मे ध्यान लगाकर सुनना, किताबों को सही हालत मे संभालकर रखना कई गुण उनकी नज़र मे मेरे मे थे। पिता जी जब मिलते तो मेरी तारीफ़ करते। ऐसी प्रस्थिति मे मेरा क्या दायित्व बनता, आप अनुमान लगा सकते हैं।

हिंदी क्लास के शुरू होने से पहले मेरा काम था कि सबकी होम वर्क की कापी जमा करूँ और मास्टरजी के आने से पहले उनकी मेज़ पर रख दूँ। उस दुर्भाग्य पूर्ण दिन को मै खुद अपना होम वर्क नही कर पाया था और कापी  भी नही लाया था। मास्टरजी के आने से पहले मेरी कापी को छोड़कर सबकी कापियाँ उनकी मेज़ पर थीं। नियम के अनुसार उन्होंने कहा कि जो अपना होम वर्क नही लाये हैं खड़े हो जांय। सबको कक्षा ख़त्म होने कोने मे खड़ा रहना पड़ता था।

क़िस्मत की मार कि उस दिन मै अकेला ही था जो होम वर्क करके नही लाया था। और मै खड़ा हो गया कोने मे। मास्टरजी को यह बर्दास्त  नही था। वे पहले तो चुप रहे, फिर स्तभ्द हो गये। मुझे लगा उनकी आँखों मे कुछ था, शायद आंशू। पर आँखें लाल हो गईं थीं। कारण पूछा। मै डर गया था। मैंने झूट बोला कि होम वर्क तो किया था पर कापी घर भूल आया। झूट पर झूट। उनके चेहरे पर कुछ नर्मी आई । उनके मालूम था मेरा घर दूर नही था। बोले, जाओ और जितना जल्दी हो सके लेकर आओ।

 अपराधी सा चेहरा लिये मै चुपचाप खडा रहा। झूट पर एक और झूट बोलने वाला था कि घर पर कोई नही है पर कह नही पाया। हिम्मत ही नही हुई। चेहरा बता रहा था कि झूट बोलने की भी हद होती है और उसके लिये बहुत अनुभव चाहिये होता है। आँखों मे आंशू भर आये थे ।

"तो तुमने झूट कहा" उनकी आवाज़ मे दर्द था। और उसके साथ ही उनके लंबे हाथ और चौड़ी हथेली का थप्पड़ मेरे गालों पर पडा। और पड़ता रहा, पड़ता रहा, पड़ता रहा । मेरी आँखें लाल, टपकती आंसूं की धारा और घना अंधकार। शर्म से सर झुका था। बेइज़्ज़ती महसूस कर रहा था। क्लास मे इतनी शांति पहले कभी नही देखी होगी।

उस दिन का अध्याय पढ़ाना शुरू किया। कुछ पंक्तियाँ पढ़ते, समझाते और फिर जैसे कुछ याद आता मेरे पास आते और एक चांटा रसीद कर देते। कई बार यह हुआ। पैंतालीस मिनट का वह पीरियड लगा कभी ख्तम ही नही होगा। पीरियड ख़त्म होने की घंटी तक नही सुनाई दी। अगले दिन से सब सामान्य सा था। उसी तरह होम वर्क की कापी जमा करके मेज़ पर रख देता, पर कहीं कुछ छूट गया था। आठवीं कक्षा तक उन्होंने हमें पढ़ाया। अब वह बात नही रही।

दरअसल मैंने उनके विश्वास को तोड़ा था। उनकी बेइज़्ज़ती की थी ।  मै उनके विश्वास के क़ाबिल ही न था। उन्होंने तो यही सोचा होगा। मै सच बोल देता तो वे समझ जाते और छोटी सी सज़ा देकर भूल जाते।

विश्वास ज़माने मे समय लगता है, टूटने मे क्षण भी नही लगते।



ज़िंदगी के रंग- जब मुर्ग़ा बनना पडा (प्राथमिक पाठशाला, बनचूरी)


अब तक तो आप बनचूरी से परिचित हो ही गये होंगे। यमकेश्वर ब्लाक मे पड़ता है। वैसे हमारे समय पर ज्यादा लोग पट्टी मल्ला उदयपुर मे पड़ता है कहते थे। इस गाँव मे एक प्राथमिक पाठशाला है जो काफ़ी पुरानी है। कम से कम मेरे से तो पुरानी है ही क्योंकि मेरी आरंभिक पढ़ाई वहीं पर हुई थी या यूँ कहूँ कि अ आ इ ई बोलना और लिखने का प्रयास वहीं से शुरू हुआ था। बोलना तो काफ़ी पहले सीख लिया था पर जो बोलते हैं उसको लिखा भी जा सकता है उसका ज्ञान यहीं मिला।
१९४६ मे जब पाँच साल के हुये तो स्कूल जाने लगे। जाने क्या लगे, धका दिये गये। इधर उधर भटकने से अच्छा था कि स्कूल मे जांय। हर माता पिता की दिली इच्छा होती है कि उनका बच्चा वह सब पा सके जो उनको नही मिल पाया। पहले पहले तो ख़ाली हाथ जाते और ख़ाली हाथ आते। सुबह सुबह सूरज निकलने तक रात की बची रोटी या जो भी होता खाते और निकल पड़ते । साथ मे गाँव के और साथी भी होते, कुछ पहली बार वाले तो कुछ पुराने अनुभवी । बड़ों को तो वैसे भी नाते से भैय्या, चाचा कहकर बुलाते थे अब तो उनसे डरना भी पड़ता। कोई तो अपना बस्ता तक पकड़ा देता।
पाठशाला गाँव से कोई दो मील ऊपर थी। गौंखड्या स्कूल के नाम से प्रचलित। अच्छी ख़ासी चढ़ाई पार करनी पड़ती। ग़नीमत है रास्ते मे भिंड्वडी और घुरसाण के पानी के श्रोत थे, जहाँ रुकते, पानी पीते और लग जाते चढ़ाई नापने। आज की तरह तब वाटर बौटल का रिवाज नही था। हाँ हाथ मे एक लकड़ी लेजाना जरूरी था जो स्कूल के अध्यापक जलाऊ लकड़ी के रूप मे इस्तेमाल करते। रास्ते मे यही लकड़ी लाठी का काम करती।

स्कूल पहुँचते ही प्रांगण मे खड़े हो जाते और आँख बंद कर 'वह शक्ति हमें दो दयानिधे' दोहराते। सामने अध्यापक निगरानी मे रहते। जब किसी कारण देर हो जाती और पता चलता कि प्रार्थना आरंभ हो चुकी है तो बाहर ही खड़े रहते या आंख चुराकर कक्षा मे घुस जाते। बाद मे कभी कभी कान पकड़ कर उठक बैठक भी करनी पड़ती। बड़ी क्लास का एक विद्यार्थी गाता और बाकी सब दोहराते।

पहले कुछ महीने तो रटने रटाने मे लगे। मास्टर जी या ऊपरी कक्षा का कोई विद्यार्थी बोलता और बाकी सब दोहराते। बारहखडी और गिनती सिखाने का यही अचूक तरीक़ा था जो वर्षों से चला आ रहा था। छुट्टी की घंटी बजते ही स्कूल से बाहर। जहाँ स्कूल आने मे एक घंटा लगता वापस जाने मे पंद्रह मिनट। कभी तो शर्त लगती कि देखो पहले कौन घर पहुँचता है। ऐसी शर्त कभी स्कूल पहुँचने के लिये नही लगी। समय अंदाज़े से बता रहा हूँ, तब घड़ी तो थी नही। समय का अंदाज सूरज ने कितना रास्ता तय कर लिया से लिया जाता था।

फिर मास्टर जी ने पाटी,  बखुल्या, क़लम लेकर आने को कहा। सही पढ़ाई का समय आ गया था। बड़ों से मदद मिली। अब सोने से पहले एक काम करना जरूरी हो गया था। पाटी को चमकाना। कोयले के काले घोल से पोतकर, जब सूख जाती तो काँच के घुट्टे से रगड़ना। तख़्ती इतनी चमकने लगती कि अपना चेहरा भी दिख जाता। स्याही की जगह चूने का सफ़ेद घोल बना लेते। बाँस या बुरांस की डंडी से क़लम बनती। यह सब रखने के लिये एक थैला भी मिल गया था। वैसे बखुल्या लकड़ी का होता था पर पिता जी ने ढक्कन दार एक काँच की छोटी शीशी ला दी थी। स्कूल जाते, पाटी पर सफ़ेद स्याही से कुछ आड़ी तिरछी लाइन मारकर वापस घर आ जाते। थोड़ी कालिस कपड़ों पर भी लगी होती, माता जी को लगता लड़का पढ़ रहा है।

दो साल स्कूल मे चक्कर लगाने के बाबजूद जब पिताजी को पता चला कि सौ दिन या नौ दिन चले अढाई कोस वाला क़िस्सा है तो अपने साथ कोटद्वार ले गये। ३० मील का सफ़र पैदल एक दिन मे तय करके कोटद्वार पहुँचे। पर इसको यहीं छोड़कर आगे बढ़ते हैं नही तो विषय से भटक जायेंगे। ये कहानी फिर सही।

दो साल कोटद्वार से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करने बाद वापस प्राथमिक पाठशाला बनचूरी आ गये। तब तक बड़े भाई भी ननिहाल से तीसरी कक्षा उत्तीर्ण करके बनचूरी आ गये थे। फिर वही दो मील की चढ़ाई और गौंखड्या। पर अब काफ़ी समझदार हो चुके थे। स्कूल मे कोई ख़ास परिवर्तन नही था। हेडमास्टर डेवरानी जी और सहायक अध्यापक सुरेंद्र सिंह जी। बस पाटी और बखुल्या की जगह कापी, नीली स्याही और क़लम ने ले ली थी। किताबें भी बढ़ गई थी । बस्ती भारी लगने लगा था। अब पता चला क्यों हमें सौंप दिया जाता था।

अब क्योंकि सीनियर हो गये थे तो हरकतें भी सीनियरों की हो गई थीं। साथी थे बड़े भाई, एक चाचा, एक भतीजा और एक बड़े भाई के भी बड़े भाई और कुछ जूनियर विद्यार्थी । बस मै ही अकेला तीसरी कक्षा का, जो न सीनियर मे न जूनियर मे पर चिपका सीनियर से ही रहता था। क्या मालूम था कि महँगा पड़ेगा। गाँव मे भी हम चार  की पल्टन थी। बडे भाई के बडे भाई इस पल्टन मे नही थे जो बाद मे स्वामी जी बन गये और उनका आश्रम बिजनौर मे फल फूल रहा है। गाँव मे जिस किसी की भी ककड़ी, मुंगरी, पपीता, संतरा, अमरूद, आम ग़ायब दिखता, नाम हमारा ही होता। नाम कमाने के लिये क्या क्या नही करना पड़ता।

अब मुद्दे पर आते हैं। स्कूल मे किसी ने बता दिया कि हममे से अमुक हुक्का पीता है। किसने बताया आज तक पता नही चला पर हुक्केबाज को सज़ा मिलनी तय थी। उसका सक हम सब पर था। वह हुक्का पीता था पर यह बात हमारे अलावा गाँव मे कोई नही जानता था। कभी कभी हम लोग भी सूटा मार लेते थे। जब उससे पूछा गया कि और कौन कौन पीता है तो उसने हम सबका नाम गिना दिया।

वह सारा दिन कड़ी धूप मे हम चारों को को मुर्ग़ा बनकर रहना पडा। इसको कहते हैं पल्टन के नियम। वापस आकर कई दिन तक हुक्केबाज से बात नही की पर इज़्ज़त का कबाड़ा तो हो ही चुका था। सारे स्कूल मे हँसी हुई। घर मे माता पिता को पता चला। उसके बाद हुक्के के पास भी नही फटके।

मुर्ग़ा बनने की विधि अपने बुज़ुर्गों से मालूम कर सकते हैं। बनना मुश्किल नही है, बने रहना मुश्किल है।


हरि लखेडा
ग्राम बनचूरी
कैंप- यू एस ये।
३१/०७/२०१७







(7) ज़ोर से बोलो हम पहाड़ी हैं !!!

जब तक कोटद्वार नहीं पहुँचे थे, पहाड़ी शब्द से  परिचय नही था। हाँ पहाड़ का मतलब जानते थे । पहाड़ में पलने बढ़ने वाला बच्चे से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है। ख़ासकर जबकि वह बनचूरी का हो। पहाड़ों की तलहटी में बसा गाँव, जो तीन तरफ़ से पहाड़ों से घिरा हो, जहाँ से बाहर निकलने का रास्ता भी पहाड़ पार करके ही निकलता हो और जहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी पहाड़ की चढ़ाई पार करके ही मिलता हो, भला वहाँ का निवासी पहाड का मतलब न जानता हो, कैसे हो सकता है।

१९४८ के आस पास  ७ साल की उम्र में जब २५-३० मील की दूरी खोबरा के डांडा से होते हुये जयगांव, पौखाल, आदि की उकाल् -उंधार, गाड़ - गधन पैदल नाप कर जब कोटद्वार पहुँचे तो पता चला कि वहाँ पहाड दूर से ही दिखते हैं। ज्यादातर लोग पहाड से थे पर पहाड से होने पर भी बच्चे स्कूल मे कच्ची पक्की देशी ही बोलते थे। देखते देखते पक्की देशी बोलने लगे। पहाडी शब्द तब भी नही सुना। फिर एक अंतराल आया। दोबारा १९५२ के पास फिर कोटद्वार लौटे हाइ स्कूल करने। आये पहले की तरह पैदल ही थे, पर अब तक पाँव मज़बूत हो चुके थे।

थोड़ी बहुत घूमने फिरने की आज़ादी मिली। जगह छोटी ही थी। सारा क़स्बा आधे घंटे मे लपेटा जा सकता था। स्टेशन से चौक होते हुये पुलिस थाने तक और पीछे से घूम कर पीआईसी होते हुये वापस बस अड्डा और स्टेशन। ज्यादा लोग पैदल, कुछ साइकल पर । इनमे गिने चुने  स्कूटर भी थे उनमें से एक कुकरेती चाचा जी का था जिनका कुनबा कुछ साल बनचूरी में रहा पर बाद में सारा परिवार ढांगल-थलनदी फिर कोटद्वार आ गया। पर गाँव का रिस्ता बना रहा ।

अब कुछ कुछ लगा कि पहाडी शब्द का क्या मतलब है। देशी लोगों की दुकान, होटल, घर में चौका, बर्तन, रसोई, सफ़ाई जैसे काम करने वाले पहाड से ही थे। देशी लोग उनको पहाडी कहकर बुलाते। ढीक जैसे सहूलियत के लिये आजकल सब घरेलू नौकरों को रामू  या छोटू कहकर बुलाने लगते हैं चाहे असली नाम कुछ भी हो।

कुछ वर्षों मे दिल्ली आये तो वही कहानी में अब कुछ और नाम भी जुड़ गये थे जैसे बिहार के बिहारी, यू पी के भैय्या, नेपाल के बहादुर। पहाडी, बिहारी, भैय्या, बहादुर मे एक बात कामन थी सब छोटे छोटे कामों मे लगे थे । घरेलू नौकर, चौकीदारी, होटल में बर्तन माँजने वाले, दुकानों मे सामान उठाने वाले आदि। मतलब कि काम से पहचान थी। कुछ लोग पहाडी सरनेम बदलकर शर्मा बन गये ताकि पता न लगे पहाडी हैं। सचमुच जो शुरू शुरू में रोटी रोज़ी की तलाश में गाँव से शहर आये होंगे उनको काफ़ी कुछ झेलना पडा होगा। मेहनत मज़दूरी के साथ साथ तिरस्कार भी।
आफिस, आर्मी, पुलिस और जंगलों मे काम करने वालों को शायद यह नही देखना पडा होगा।

भैय्या तेरे तीन नाम - परसू, परसा, परसराम। जैसे जैसे ओहदा या पैसा बढ़ता है नाम भी बदल जाता है। जो कल परसू था आज परसा है और कल परसराम बन सकता है।

आज २०१७ में हालात बदले हैं या यूँ कहूँ कि हम पहाड़ियों ने हालात बदल दिये हैं। आज हम पहाडी पढ़ लिख गये हैं , अच्छा खा कमा रहे हैं, ऊँचे हदों पर हैं। अब भी कुछ पीछे रह गये हैं पर पहले से बहुत आगे हैं। अब उनको कोई पहाडी बोलकर नही बुलाता। आज वे गर्व से कह सकते हैं कि हम पहाडी हैं। जब मैं किसी से पूछने पर बताता हूँ कि मैं पहाड़ से हूँ तो उन्हें एक प्रकार से ईर्शा होती है कि हम देव भूमि से हैं।

पर हम भूल नही सकते कि इसमें समय लगा। लगभग ५० साल। आज हम जो कुछ भी हैं हमारे बुज़ुर्गों की कड़ी मेहनत और ईमानदारी की वजह से हैं।

ज़रूरत है कि जो कर सकने की स्थिति मे हैं अपने पहाडी बंधुओं की मदद करें। उनको आगे बढ़ने के लिये गाइड करें। हो सके तो पैसे से भी मदद करें। इस बहस में मत पड़िये कि तुमने या उसने क्या किया। बस यह सोचिये कि मैं क्या कर लगता हूँ। सोचते ही न रह जाइये, तुरंत कर डालिये। न जाने क्यों पर जब हम किसी मुक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो भूल जाते हैं कि हम भी पहाडी हैं। पहाडी शब्द से चिढ़ क्यों। हमें तो गर्व होना चाहिये कि हम पहाडी हैं।

हरि प्रसाद लखेडा, बनचूरी, पौडी गढ़वाल, उत्तराखंड।
१५/०७/२०१७

(6) गाँव एक- शिक्षक अनेक

एक अफ़्रीकन कहावत है जिसका अंग्रेज़ी तर्जुमा है - It takes a village to raise a child - यानी एक बच्चे को जवान करने में एक पूरे गाँव का योगदान होता है। यह कहावत वैसे तो हर देश या प्रदेश के गाँवों पर लागू होती है और इसी लिये यह सारी दुनिया मे प्रचलित भी है पर मेरे गांव बनचूरी पर ख़ास रूप से लागू होती है। बनचूरी का हूँ तो थोड़ा बहुत पक्षपात तो बनता है।
अब तक आप लोग जान ही गये होंगे कि बनचूरी कहाँ है क्योंकि पिछले लेखों मे मैंने उसका विवरण दिया है । फिर भी दोबारा बताने में कोई हर्ज नही। बनचूरी उत्तराखंड जो कि कभी उत्तर प्रदेश राज्य में था, फिर उत्तरांचल और अभी उत्तराखंड राज्य के नाम से जाना जाता है, के पौडी जिले के यमकेश्वर ब्लाक मों बसा एक गाँव है जिसके दाहिने भाग मे रिखेडा और बांये भाग में सार गाँव बसे हैं। ठीक सामने पूर्व की ओर तलहटी मे हेंवल नदी बहती है जो चेलूसैंण के डाँडे से निकल कर ऋषिकेश में गंगा में मिलती है। नदी के उस पार कई गाँव हैं।  यहां के निवासी रिखेडा से आकर यहाँ बसे थे। रिखेडा का मतलब ऋषियों का अड्डा। इस कारण हम ऋषियों की संतान हैं। वैसे कहना मुश्किल है कि हम ऋषियों जैसा आचरण भी रखते हैं कि नही। दोनों गाँवों मे भारद्वाज कुल के लखेडा जाति के कई परिवार बसते हैं । आप अब आप समझ गये होंगे कि कहावत बनचूरी गाँव पर क्यों खासरूप से लागू होती है। परिवार अनेक पर बच्चे सबके।

मेरे बचपन के पहले सात साल गाँव मे ही बीते। उसके बाद स्कूल के दिन कोटद्वार नज़ीबाबाद में और छुट्टियों के दिन गाँव में। यह सिलसिला कालेज जाने तक चलता रहा, फिर साल मे एक बार और बाद मे शादी व्याह में जो दो तीन साल में एक बार तो आ ही जाते थे। धीरे धीरे वह भी कम हो गया। शादी की उम्र वाले सब शहरों में हैं। अब तो गाँवों से बरात शहरों में आने लगी हैं।

पर गाँव के वह दिन याद हैं। इस बार उस समय के उन लोगों को याद करें जिनका संरक्षण गाँव के सब बच्चों को प्राप्त था। उनमें से जो  दिवंगत हो चुके हैं उनकी आत्मा की शांति के लिये एक मिनट आँखें बंद कर लें। जो जीवित हैं उनकी दीर्घ आयु की कामना करें।

आज जब उन दिनों को याद करता हूँ तो लगता है अनजाने में ही सही उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।

गाँव के सबसे बूढ़े दादा जी जिनके नज़र इतनी तेज़ कि हर शैतानी पकड़ लेते और कभी कभी तो कान भी मरोड़ देते। मजाल कि वह सामने हों और कोई शैतानी करने की सोच भी सके। उनकी नज़र ही काफ़ी थी। ढीक विपरीत बूढ़े ताऊ जी। कभी ऊँची आवाज़ में नही सुना। हमेशा मुस्कुराते रहते।

चाचाओं की तो भरमार भी। कुछ तो हम उम्र भी थे। किसी से स्टेज पर खड़ा होना सीखा तो किसी से पढ़ाई पर ध्यान रखने की सलाह। कभी कभी तो परीक्षा भी ले लेते। कोई गीता के
श्लोक ऐसे बोलते जैसे हम रटे रटाते पहाड़े भी नही बोल पाते।

भाई साहब तो जब तब पास्ट, प्रेजेंट, फ्यूचर, फ्यूचर परफ़ेक्ट टैंस के उदाहरण पूछते ताकि उन्हें तसल्ली हो जाय कि हम सही दिशा में जा रहे हैं। पूरे इलाक़े मे पहला ग्रेजुएट बनने का शौभाग्य भी बनचूरी को ही हासिल था। दूसरे भाई साहब शरीर से कमज़ोर पर खेती के सारे काम कर लेते थे।

बिना दाँत वाली बूढी दादी जी को हम पर इतना विश्वास कि खेत की मुंगरी (मक्का) हमसे ही तुडवातीं। काम हो जाने पर मेहनताना में कुछ मुंगरियां जरूर पकड़ा देतीं। कभी कभी तो ककड़ी भी दे देतीं। दूसरी दादी ककड़ी वेलों पर बचा कर रखतीं कि शहर से लौटकर आने वाले हम विद्यार्थी खायेंगे। भले ही सारी पीली पड़ जांय। रामलीला के दिनों ख़्याल रखती कि एक्टर्स के गले ढीक रहें। अमरूद के पत्ते चबाने को बोलतीं, गरम गरम चाय पिलातीं।

एक ताईजी के अमरूद, पपीते, अनार के पेड़ थे पर कम ही दरियादिली दिखाती थीं सो मजबूरन रात मे हाथ साफ़ करना पड़ता था। बड़ा मुश्किल काम था रात मे जागना। पूरे ग्रुप को काफ़ी प्लेनिंग करनी पड़ती। सुबह ताई जी गालियों की बौछार लगाती और चोर चुस्कियाँ ले ले कर सुनते पर चेहरे पर पूरी मासूमियत। 'जैन म्यार अमरूद तोड़ि ह्वाल वैकी ..... आदि आदि ' ।

दूसरी ताई  जी को कभी किसी ने कड़वे बोल बोलते नही सुना चाहे उनका कितना ही नुक़सान क्यों न हो गया हो। इतनी सहन शीतला शायद ही कहीं मिले।

यह सब लोग, ख़ासकर चाचियां, भाभियाँ, बहनें, बुआयें, बड़े छोटे भाई रामलीला के टाइम पर दर्शकों मे हाज़िर रहकर हमारा उत्साह बढ़ाते। कोई कोई तो अच्छी एक्टिंग पर अढन्नी रुपया भी पकड़ा दे देतीं। रामलीला और नाटक करना अपने आप मे एक बड़ा प्रोजेक्ट था। न तो जेब मे पैसे, न गाँव में सब साजों सामान। भानमती का कुनबा जुड़ ही जाता । हमारी छुट्टियों की बोरियत ख़त्म और गाँव वालों का मनोरंजन।

सभी से कुछ न कुछ सीखने को मिला। किसी ने शैतानी करने से रोका, किसी ने हँसते रहना सिखाया, किसी ने एक्टिंग, किसी ने होम वर्क करवाया, किसी ने पढ़ना क्यों जरूरी है, किसी ने शरीर की कमज़ोरी के बाबजूद मेहनत करने का का रास्ता दिखाया, किसी ने मज़दूरी का फल दिया तो किसी ने अपना पन  क्या होता है सिखाया। किसी ने सचेत किया तोयकिसी ने सहन शीलता का उदाहरण रखा।

हमारी पीढी का शौभाग्य था कि हमें बिना किसी लालच के दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, भैय्या- भाभी, भाई- बहन, बुआ, भतीजा- भतीजी के रूप में निःशुल्क शिक्षक मिले। इसके अलावा और कोई नाता था ही नही। यहाँ तक कि हरिजन बस्ती वालों को भी ढुल्ला -ढुल्ला जैसे रिस्तों से बुलाया जाता। यह गाँव मे ही संभव था, ख़ासकर बनचूरी में ।

इसी लिये कहते हैं कि -it takes a village to raise a child.

मै समझता हूँ हमारे उत्तराखंड मे बहुत सारी बनचूरी थीं और हैं।

विनीत-

हरि प्रसाद लखेडा
Camp: USA



 कहानी चोरगदन की ( भाग-२-जनता का दोहन)

पिछले भाग मे हमने देखा कि कैसे चोरगदन से जंगली जानवरों और जंगली संपदा का दोहन हुआ। याद ताज़ा करने के लिये बता दूँ कि चोरगदन उत्तराखंड (जो कि तब तक उत्तर प्रदेश कहलाता था) के बनचूरी गाँव के पास के घने जंगल का नाम था। जंगल के आस पास दो गाँव और भी हैं रिखेडा और सार। मुझे बताया गया है कि इसे चोरगदन नही चोरगधन कहते हैं। ख़ैर। यह कहानी इस जंगल से इसलिये भी जुड़ी है कि इससे तीनों गाँवों का नाता था और रहेगा, शायद, अगर गाँव रहे तो। यह भी इशारा किया गया कि रिखेडा - बनचूरी मे कहाँ शेर, चीता, हाथी रहे होंगे, पर कहानी क्योंकि दो तीन सदी पहले से शुरू की थी तो सोचा रहे तो होंगे। बाघ तक तो मैंने भी देखे थे। ख़ैर । आगे बढ़ते हैं और मालूम  करते हैं कि कैसे  इन चोरों ने आदमियों का दोहन किया और कर रहे हैं।

जंगल के पास के गाँव इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, पालतू जानवरों के लिये घास आदि के लिये इस जंगल पर निर्भर थे। जंगली जानवरों के डर से रात मे कोई भी जंगल मे जाने की हिम्मत नही करता था पर दिन के समय ज़रूरत के हिसाब से सब लकड़ी और घास वहीं से लाते। कभी कोई जंगली जानवर का शिकार भी बन जाता पर कोई और उपाय भी नही था।

गाँव वाले खेती करते और साल मे दो फ़सल उगाते। गुज़ारा हो जाता। साथ मे पशुपालन करते और ख़रीद बेचकर गाँव की दुकान से कपड़ा, गुड, नमक आदि ख़रीद लेते। गाँव मे ही लोहार, सुनार, दर्ज़ी, नाई, मोची, तेली, भी थे। कुल पुरोहित सारे सोलह संस्कार निपटा लेता। वही वैद्य भी था। एक प्रकार से गाँव आत्म निर्भर थे। लोगों मे भाई चारा था। एक दूसरे की मदद से ही गाँव के सारे काम संपन्न होते थे। गाँव मे एकता थी । कुछ लोग तो उन्हें भेडचाल (herd mentality ) की उपाधि भी दे बैठे थे। रिखेडा और बनचूरी ही ऐसे गाँव थे जो जाति और धर्म के नाम पर नही बाँटे जा सकते थे क्योंकि यहाँ एक जाति और धर्म ही नही बल्कि एक ही गोत्र के परिवार रहते थे। लगभग हर परिवार से कम से कम एक सदस्य शहर मे काम करने लग गया था। जीवन सामान्य था पर उसमें आराम भी था।

फिर १९४७ ने आज़ादी आई। आज़ादी का मतलब तो गाँव के सीधे साधे लोगों की समझ मे नही आया पर लगा उनके दिन फिर जायेंगे। अपने लोगों की सरकार होगी। देखते देखते चुनाव की गर्मी भी शुरू हुयी। कांग्रेस के अलावा किसी और का नाम भी नही सुना था सो उसी के निशान पर मोहर लगा दी। उम्मीदवार पास के कांडी गाँव के थे और लोग उनको जानते भी थे तो काम आसान रहा। कामिनिस्ट और जनसंघ वाले भी घूमे पर बेकार। कुछ और साल बीते पर दिन नही फिरे। चुनाव आते और जाते। जब बैलों की जोड़ी मुँह तकती तो न चाहते हुये भी दया के मारे उसी पर मोहर चिपका देते। रिखेडा, सार , रौतगांव, पठोला, परंदा, खोबरा, कांडी, कोलसी, बिस्सी, चुपड़ा, आदि गाँवों से बदलाव की आवाज़ें आने लगीं पर बनचूरी वाले नही हिले। वैसे बाकी गाँवों मे भी ज़्यादा कांग्रेसी ही थे पर भेड़ चाल (herd mentality) का दोष बनचूरी वालों पर ही लगा क्योंकि सबने कांग्रेस को ही वोट किया।

कुछ और साल बीते। पर गाँव की स्थिति दस की तस। रो धो कर दोगड्डा से एक कच्ची सड़क लगभग २५ साल मे कई पीड़ाओं और पडाओं के बाद बनचूरी पहुँची। तब तक सबको पैदल ही आना जाना करना पड़ता था। लगभग १० साल , साल मे दो बार यह पैदल मार्च किया है। २५ मील का पैदल सफ़र पहले आधा , फिर दो तिहायी, फिर तीन चौथायी कम हुवा ही था कि पता लगा सडक को कांडी की तरफ़ मोड़ दिया गया है। जैसे तैसे एक दिन सड़क बनचूरी भी पहुँच गयी। फिर भी गाँव वालों ने कांग्रेस पर ही भरोसा रखा। न जय प्रकाश का, न मंडल का न ही कमंडल का ज़ोर चला पर कुछ बदलाव की हवा चलने लगी थी। वोटों को बचाये रखने के उपाय ढूँढते हुये कुछ योजनायें लायी गयीं। योजना क्या बस एक तरह से घूस। शराब ज़्यादा माफ़िक़ आई। जहाँ शराब से काम नही चला वहाँ नक़द। इन सबको अंजाम देने के लिये ग्राम प्रधान, सरपंच, पटवारी, पतरोल, हलकारा, पोस्टमैन, शिक्षक, ग्राम सेवक, सबका उपयोग किया जाने लगा। शराब और रुपये के आगे कौन नही झुका। बस एक बार लत पड़नी चाहिये। शुरू कांग्रेस ने या विपक्ष ने किया, कहना मुस्किल है।

नवंबर ९, २००० को बनचूरी को भी अपना अलग राज्य मिल गया। राज्य की उम्र याद रखना आसान है। नाम पड़ा उत्तरांचल  जिसे बदलकर अक्टूबर २००६ मे उत्तराखंड कर दिया गया। लगा अब तो दिन फिरेंगे ही। पर नही। न नये राज्य से न नये नाम से । धर्म , जाति या गोत्र के नाम पर तो नही बाँट पाये पर शराब और रूपये ने कमाल कर दिखाया। कोई कांग्रेसी बन गया कोई भाजपाई। जो जितना ज़्यादा दरियादिली दिखाता वोट उसके। वैसे भी पाँच साल मे एक ही तो मौक़ा था हड़पने का फिर कौन पूछता है।

ज़ाहिर है जो देगा वह लेगा भी। ख़र्चा किया तो वसूलेगा भी। अगला चुनाव भी तो लड़ना है। चुनाव दिन पर दिन मंहगे होते जा रहे हैं। जितना लूट सको लूटो। योजना ऐसी बनाओ जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा रक़म बनाई जा सके और खुरचने ही जनता तक पहुँचे। जनता तो खुरचने मे भी ख़ुश हो जाती है, भूखे जो ठहरे। मनरेगा, बीपीएल, पेंशन, और न जाने क्या क्या। बनचूरी गाँव अपने पत्थरों के लिये मशहूर है पर पत्थरों को रोकने के लिये और पत्थर हेंवल नदी से आये घोड़े पर। बिल बड़ा जो करना था।

जिसको अ, ब  भी नही आता था नेता बन गया। बस लाठी चलाना और तिकड़मों मे माहिर होना चाहिये। गद्दी हो चाहे दे कांग्रेस मे या भाजपाई मे। भाड मे जाय आडियोलाजी भाड मे जाय जनता। वैसे दोष उनका नही है। अगर वे चोर हैं तो बनाया भी हमने और चुना भी हमने।

चोरगदन ने अपना नाम सार्थक कर दिया। पूर्वजों ने कुछ सोचकर ही नाम रखा होगा। बस एक बात का सुख है कि बनचूरी से कोई चुनाव नही लड़ा। एक ने कोशिश की थी पर गाँव वालों ने उसे गाँव का मानना ही स्वीकार नही किया क्योंकि वह गाँव मे पैदा जरूर हुआ था पर रहा नही। हाँ कुछ हैं जो नेता जैसे अपने आप को दिखाते हैं पर हैं नही , क्योंकि काम तो चल ही रहा न। गाँव वाले अब भेडचाल वाली नियति से वोट भी नही करते। अपने मन से जिसको चाहे उसको वोट देते है । समझने वाले समझ गये हैं जो न समझे वो अनाड़ी है। बस खुद कभी गाँव मे मतदाता नही बन पाया।

गाँव की दशा मैं  "खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी " बयां कर चुका हूँ। जंगल की दशा पिछले भाग मे साफ़ है। आप सोचेंगे बनचूरी ही क्यों सब जगह यही हाल है। इस लिये कि पहले तो मैं बनचूरी का हूँ , दूसरा कभी कभी जाता भी हूँ और कुछ देखा सुना लिखा है।  कुछ अपनी तरफ़ से नही जोड़ा।

कहनी कई मोड़ ले सकती है, बस आपकी नज़र बनी रहे।



कहानी चोरगदन की (भाग - १- जंगली संपत्ति का दोहन)
         
दो तीन सदी पहले की बात है। भारत के उत्तराखंड मे बनचूरी गाँव के पास चोरगदन नाम का बहुत घना जंगल था। इसका नाम चोरगदन क्यों पड़ा कहना मुस्किल है । बहरहाल अभी हम इसको यहीं छोड़ते हैं, बाद मे समय मिला तो पता करेंगे। यहाँ यह बताना काफ़ी होगा कि इससे चोरों का वास्ता रहा होगा। इस कहानी का मुख्य विषय यह नही है कि चोरगदन नाम क्यों पड़ा, बल्कि चोरगदन का क्या हुआ। इसलिये हम मुख्य विषय से न भटक कर आगे बढ़ते हैं।

जैसे मैंने कहा, चोरगदन एक बहुत बड़ा और घना जंगल था। जंगल मे अनेक प्रकार के पेड़ थे। इसके बीच से एक छोटी पहाडी नदी बहती थी जो जाकर हेंवल नदी मे मिलती थी। गाँव वाले इसको गदन कहते थे। शायद चोर और गदन को मिलाकर चोरगदन नाम पड़ा होगा। जंगल मे बहुत सारे जंगली जानवर रहते थे जैसे शेर, चीते, भालू, बाघ, हाथी, लोमड़ी, हिरण, आदि। इनके साथ ही सुअर, बंदर और बहुत सारे पशु पक्षी भी रहते थे। एक आध छोटी मोटी घटनाओं को छोड़कर जंगल मे सब मिलकर रहते थे।

जंगल के आस पास कई गाँव बसने लगे। उनमें से बनचूरी, रिखेडा, सार प्रमुख हैं। बसने वाले लोग सीधे सादे थे। वे भी कई कारणों से यहाँ आकर बसे थे, जरूर कोई बड़ा कारण रहा होगा। कोई यों ही अपना वतन नही छोड़ता। ग़रीब थे, खेती करके अपना और अपने परिवार का पोषण करते थे। कभी कभी जंगली जानवर उनकी फ़सल बरबाद कर देते तो कभी कभी ओ किसी हिरण को मारकर खाने का स्वाद बदल लेते। इसके अलावा बाकी सब ढीक चल रहा था।

समय कब एक सा रहा है। पिछली सदी की बात है। जंगल से जानवरों के ग़ायब होने की ख़बर आने लगी। लगभग हर जाति के जानवर उनके परिवार से किसी न किसी के ग़ायब होने की ख़बर सुनाते। सारे परेशान होकर जंगल के राजा शेर के पास गये और गुहार लगाई। राजा खुद परेशान था। उसके और उसके कुनबे से भी कुछ शेर और बच्चे ग़ायब थे। आपस मे काफ़ी तकरार हुई। यहाँ तक कि किसी ने राजा को ही बदलने की बात कह दी। शेर ने कहा वह पद छोड़ने को तैयार है पर संभालेगा कौन। हाथी की तरफ़ नज़र गई तो ओ भी चुप। चीता, भालू आदि भी चुप। एक बात पर सब सहमत थे कि यह काम मनुष्यों का ही है। बनचूरी, रिखेडा या सार वाले तो ऐसा नही करेंगे पर कह भी नही सकते।

पीछे कहीं से किसी ख़रगोश की आवाज़ आई। " मै किसी को मार तो नही सकता पर मै मालूम कर सकता हूँ कि किसका काम है। गाँव वाले मुझसे डरते भी नही। मै आसानी से उनमें घुलमिल सकता हूँ। मेरा सारा परिवार इधर उधर फैलकर मालूम करेगा कि यह काम किसका है फिर आप उनको सज़ा देना। " ख़रगोश की बात से सब सहमत हुये। बंदरों ने ऊँचे पेड़ों पर बैठकर निगरानी करने का  ज़िम्मा लिया। चीता को पूरे काम का ज़िम्मा सौंपा गया। कुछ ही दिनों मे पता चला कि बाहर से लोग आकर जानवरों को जाल मे फँसाते, उनका मुँह बंद करते और रस्सी से खींचकर  ले जाते। उनमें से कोई भी पास के गाँव का नही था। दो एक पकड़े भी गये पर बाकी भाग गये।ख़ैर समस्या हल हो गयी।

इधर गाँव मे ख़बर आई कि गदन मे दो आदमियों की लाश पाई गई। दोनों गाँव के लोग नही थे। बाहरी लगते थे। जिज्ञासा हुई कि कौन थे और किसने क्यों मारा। देखने से साफ़ लगता था कि जानवरों ने मारा था। ऐसा पहले कभी नही हुआ था। जानवरों ने फ़सलों और पालतू जानवरों को तो नुक़सान पहुँचाया था पर तीनों गाँव के किसी आदमी को नही मारा था।

बात की गहरायी मे जाने से पता लगा कि शहरों से कुछ लोग जानवरों को पकड़ कर ले जाते और अच्छे दामों पर बेचते। जानवरों की हड्डियों से दवा, चमड़े से चमकीले लिवास, थैले, बटुवे आदि बनाकर ख़ूब सारा मुनाफ़ा कमाते। कुछ को अजायब घरों मे बेच देते। काम थोड़ा जोखिम वाला था पर फ़ायदा बहुत था।

फिर क्या था ।  गांव के कुछ लोग चुपके चुपके यह काम करने लगे। शहर मे ख़बर गरम हो गई कि चोरगदन मे बहुत जानवर हैं । अब तो आये दिन जंगल से जानवर ग़ायब होने लगे। जंगल के जानवर उनके हथियारों के आगे कब तक टिकते।

साथ साथ जंगल के पेड़ भी कटने लगे। पहाड़ नंगे हो गये। गदन सूख गया। बचे खुचे जानवर या तो भूख और प्यास से मर गये या जंगल छोड़कर ही चले गये। अगर कहीं बूढ़ा, भूख का मारा , जर्जर अवस्था मे कोई शेर दिखे तो समझ जाइये कि ओ चोरगदन का हारा हुआ जानवरों का राजा है।

आगे आदमियों की बारी है। भाग २ जरूर पढ़िये।







                     (4) कहानी चोरगदन की (भाग - १- जंगली संपत्ति का दोहन)
         
दो तीन सदी पहले की बात है। भारत के उत्तराखंड मे बनचूरी गाँव के पास चोरगदन नाम का बहुत घना जंगल था। इसका नाम चोरगदन क्यों पड़ा कहना मुस्किल है । बहरहाल अभी हम इसको यहीं छोड़ते हैं, बाद मे समय मिला तो पता करेंगे। यहाँ यह बताना काफ़ी होगा कि इससे चोरों का वास्ता रहा होगा। इस कहानी का मुख्य विषय यह नही है कि चोरगदन नाम क्यों पड़ा, बल्कि चोरगदन का क्या हुआ। इसलिये हम मुख्य विषय से न भटक कर आगे बढ़ते हैं।

जैसे मैंने कहा, चोरगदन एक बहुत बड़ा और घना जंगल था। जंगल मे अनेक प्रकार के पेड़ थे। इसके बीच से एक छोटी पहाडी नदी बहती थी जो जाकर हेंवल नदी मे मिलती थी। गाँव वाले इसको गदन कहते थे। शायद चोर और गदन को मिलाकर चोरगदन नाम पड़ा होगा। जंगल मे बहुत सारे जंगली जानवर रहते थे जैसे शेर, चीते, भालू, बाघ, हाथी, लोमड़ी, हिरण, आदि। इनके साथ ही सुअर, बंदर और बहुत सारे पशु पक्षी भी रहते थे। एक आध छोटी मोटी घटनाओं को छोड़कर जंगल मे सब मिलकर रहते थे।

जंगल के आस पास कई गाँव बसने लगे। उनमें से बनचूरी, रिखेडा, सार प्रमुख हैं। बसने वाले लोग सीधे सादे थे। वे भी कई कारणों से यहाँ आकर बसे थे, जरूर कोई बड़ा कारण रहा होगा। कोई यों ही अपना वतन नही छोड़ता। ग़रीब थे, खेती करके अपना और अपने परिवार का पोषण करते थे। कभी कभी जंगली जानवर उनकी फ़सल बरबाद कर देते तो कभी कभी ओ किसी हिरण को मारकर खाने का स्वाद बदल लेते। इसके अलावा बाकी सब ढीक चल रहा था।

समय कब एक सा रहा है। पिछली सदी की बात है। जंगल से जानवरों के ग़ायब होने की ख़बर आने लगी। लगभग हर जाति के जानवर उनके परिवार से किसी न किसी के ग़ायब होने की ख़बर सुनाते। सारे परेशान होकर जंगल के राजा शेर के पास गये और गुहार लगाई। राजा खुद परेशान था। उसके और उसके कुनबे से भी कुछ शेर और बच्चे ग़ायब थे। आपस मे काफ़ी तकरार हुई। यहाँ तक कि किसी ने राजा को ही बदलने की बात कह दी। शेर ने कहा वह पद छोड़ने को तैयार है पर संभालेगा कौन। हाथी की तरफ़ नज़र गई तो ओ भी चुप। चीता, भालू आदि भी चुप। एक बात पर सब सहमत थे कि यह काम मनुष्यों का ही है। बनचूरी, रिखेडा या सार वाले तो ऐसा नही करेंगे पर कह भी नही सकते।

पीछे कहीं से किसी ख़रगोश की आवाज़ आई। " मै किसी को मार तो नही सकता पर मै मालूम कर सकता हूँ कि किसका काम है। गाँव वाले मुझसे डरते भी नही। मै आसानी से उनमें घुलमिल सकता हूँ। मेरा सारा परिवार इधर उधर फैलकर मालूम करेगा कि यह काम किसका है फिर आप उनको सज़ा देना। " ख़रगोश की बात से सब सहमत हुये। बंदरों ने ऊँचे पेड़ों पर बैठकर निगरानी करने का  ज़िम्मा लिया। चीता को पूरे काम का ज़िम्मा सौंपा गया। कुछ ही दिनों मे पता चला कि बाहर से लोग आकर जानवरों को जाल मे फँसाते, उनका मुँह बंद करते और रस्सी से खींचकर  ले जाते। उनमें से कोई भी पास के गाँव का नही था। दो एक पकड़े भी गये पर बाकी भाग गये।ख़ैर समस्या हल हो गयी।

इधर गाँव मे ख़बर आई कि गदन मे दो आदमियों की लाश पाई गई। दोनों गाँव के लोग नही थे। बाहरी लगते थे। जिज्ञासा हुई कि कौन थे और किसने क्यों मारा। देखने से साफ़ लगता था कि जानवरों ने मारा था। ऐसा पहले कभी नही हुआ था। जानवरों ने फ़सलों और पालतू जानवरों को तो नुक़सान पहुँचाया था पर तीनों गाँव के किसी आदमी को नही मारा था।

बात की गहरायी मे जाने से पता लगा कि शहरों से कुछ लोग जानवरों को पकड़ कर ले जाते और अच्छे दामों पर बेचते। जानवरों की हड्डियों से दवा, चमड़े से चमकीले लिवास, थैले, बटुवे आदि बनाकर ख़ूब सारा मुनाफ़ा कमाते। कुछ को अजायब घरों मे बेच देते। काम थोड़ा जोखिम वाला था पर फ़ायदा बहुत था।

फिर क्या था ।  गांव के कुछ लोग चुपके चुपके यह काम करने लगे। शहर मे ख़बर गरम हो गई कि चोरगदन मे बहुत जानवर हैं । अब तो आये दिन जंगल से जानवर ग़ायब होने लगे। जंगल के जानवर उनके हथियारों के आगे कब तक टिकते।

साथ साथ जंगल के पेड़ भी कटने लगे। पहाड़ नंगे हो गये। गदन सूख गया। बचे खुचे जानवर या तो भूख और प्यास से मर गये या जंगल छोड़कर ही चले गये। अगर कहीं बूढ़ा, भूख का मारा , जर्जर अवस्था मे कोई शेर दिखे तो समझ जाइये कि ओ चोरगदन का हारा हुआ जानवरों का राजा है।

आगे आदमियों की बारी है। भाग २ जरूर पढ़िये।

















































My bed room

"My bed room

I have a bed room.
(Nothing great ! Most have.)
It has four walls.
(Nothing special ! All rooms have walls, that's why they are called rooms.)
It has a door.
(So what ? All  rooms have at least one door.)
It has a cosy bed.
(No doubt ! That's why it is called  a bed room.)
It has a window.
(Well, that's something ! Some  don't. The question is how often you keep it open?)
There is more. It has a dressing table, a writing table with my desk top on it, a closet serving as a mini temple, an almirah with a locker, a fan, an air-conditioner, a heater and and...
(Hold on! Is it your resting place or a Godown?)
But I need all of them. It is soothing to have them close by, just in case. In the beginning, there was just a mat. But I slept well.
(You mean you don't sleep well now.)
Not exactly. It did not happen suddenly. It happened over time. They say as you grow old, you get less and less of sleep.
(So you think there is no connection between these possessions and sleep.)
I don't know but I am sure worried. I want to get rid of them before I go.
(Where are you going?)
As if you don't know! Every one has to go one day. There is no one to use these items after I am not there. Some of them are not that old too. Only if I could dispose some of them for even half the price.
(Why you don't have any children?)
I have but they live far away. In any case they don't need them. They have their own.
(Don't worry. There is a solution. Give them to a scrap dealer at whatever price he agrees.)
How can I do that? I spent fortune on these items.
(Then give them to your relatives.)
All selfish guys, don't deserve.
(Then donate to some charitable organization.)
All of them are cheat, a blot in the name of charity.
(Then take them along with you. Make a will saying all your belongings should be used as a funeral wood  and burnt with your mortal remains.)
GOOD IDEA, THANK YOU.




ऊँचाई की मजबूरियां


बरसों पुरानी बात है । मुहल्ले में  एक दुष्ट नीयति का व्यक्ति रहता था । अपनी ताकत और गुर्गों की मदद से वह पहले मोहल्ले का फिर गाँव का और फिर देश का सर्वेसर्वा बन  गया ।  पर अब ओ कुछ उदास सा रहने लगा । जब उसने देखा कि देश के तीन चौथाई लोग दो जून की रोटी को मोहताज हैं और वह कुछ नहीं कर सकता है क्योंकि उसके गुर्गे अब उसकी सुनते ही नहीं । उसने बहुत कोशिश की पर गुर्गे सुनते ही न थे। उसने चुप रहना ही ठीक समझा । नीचे गिरने  का डर और ऊँचाई की मजबूरियाँ। फिर जब वह मर  गया तो  उसके गुर्गे  भी आपस में लड़ते झगड़ते मर गए । यह तब की बात है जब राजा बादशाह हुआ करते थे ।

समय ने करवट ली और गरीब परिवार का एक युवक  अपनी मेहनत और लगन से आगे  आया । उसकी लगन, मेहनत, वादों और  ईमानदारी से प्रभावित होकर जनता ने  उसे देश का सर्वेशर्वा चुन लिया । । जनता को  उम्मीद थी कि वह  उनकी सारी मुश्किलें हल कर देगा । लोगों ने इन्तजार करते रहे, करते रहे पर ढाक के वही तीन पात। पर अब उसको तो सत्ता का सुख भोगने की आदत पड़ चुकी थी ।  सत्ता में  रहने  की खातिर रहनुमाओं ने किसी  के हाथ में  गाय की पूंछ दे दी, किसी को मंदिर के लिए ईंट, किसी को भाषा का पुलिंदा तो किसी को राष्ट्रगीत का सीडी और सब से कहा कि इन जरूरी कामों मे लग जांय। वही  नीचे गिरने का डर और ऊँचाई की मजबूरियाँ। सत्ता का  सुख  भोगते भोगते वह  भी अपना समय पूरा कर लेगा। यह प्रजातंत्र की बात है ।

कहानी नये मोड़ तलाश कर रही है ।

Wednesday, August 2, 2017

Religious Drift

XXX RELIGIOUS DRIFT

Drifting away from one religion to another by choice or otherwise is not as bad as drifting away  from religion itself which is not thinking about God or becoming increasingly secular.

Are we part of it or acting blind? I think it is both.
First we have failed to pass on our  religion to the generation next both in words and deeds. Thus we have become part of it. What is worse is that we have confused them by narrating our religion is best and at the same time telling all religions are equal. If all religions are equal how can religions be good, better or best?

Materialism, pleasure, secular media, lessening family ties, growing immorality have added to the already degradation. This way not only we are part of it but we are acting blind too as we are not seeing the danger ahead.

The unsavory and shameless  actions of so called God men and women have driven away the already dwindling numbers of believers.

The problem is ever body complains of bad weather but no body can change it. In order to protect ourselves from the unpleasant weather we have centrally air conditioned our houses and trust all is fine.

Locking ourselves in our individual puja rooms will not help. We will have to keep our  doors wide open and welcome all those who want to come in irrespective of cast, creed or color. The more the better. It can neither be by force or allurement or both.

We will have to do away with prejudices, needless rituals and orthodox behavior. We will have to tell that God is only a concept to bind us together, nothing less, nothing more. We will have to be frank enough to admit that we have not seen God, at best we have experienced some super natural power that guides our destiny. Till such time we find a real answer, we continue calling it God.

We will have to come out of that mysterious concept of creation and the creator. We will have to accept that though we have seen and experienced the various sides of creation but we have not seen the creator as we see his or her creation when we open our eyes. If we can not see it, it is not there, as simple.

Yet we need a God. We have created Him for our own good. The obligation is on us and not on Him. He has not imposed Himself on us. He is happy as long as we are happy.

I think the generation next and next will understand if told in simple words.

Amen.











Argumentative Indians

Argumentative Indians

It was the killing heat of summer of Delhi. The temperature was touching 45 degreeC. Rahul was walking bare footed holding hew newly acquired shoes from a neighborhood store. The road was under repair. It had been under repair for a few weeks now. The Rikshaw puller will not ply on this rowdy road. His house rested at the end of the one mile road that was under repair.

Unable to walk any further, he sat on a huge dump of debris.  Passersby simply ignored him. But then arrived a middle aged, frail bodied, haggard man. He sat next to him. Another passerby advised to sit under some shade and moved on. He looked as far as he could see and found no shade. The middle aged man knew it already.

The middle aged man enquired why he was sitting there to which he replied that his house stood at the end of the road and he cannot walk any further as his feet were hurting.

"But you have shoes to wear" - reminded the middle aged man who himself was in Hawaii chappals.

"I do but they are pinching" -Rahul informed.

"God only can save this country. In spite of having new shoes, you are not in a position to wear them and walk home because they  are pinching" - the middle aged man said agitatedly in a loud voice.

"What God or country has to do with my pinching shoes"- Rahul objected, little surprised.

By this time a few more people had gathered around them. They were expecting some duel.

"Everything! Everything! My friend! Here is a road which is under repairs for weeks. Here is Government which can not do any thing right. Here is a store that can not supply wearable shoes. Here is country that cannot choose a good government. And here is our God that is not punishing them. "- lamented the middle aged man.

" Which make the shoe is? " enquired somebody in the crowd.

"X and Y company"- Rahul informed.

"That's s good brand" - somebody from the crowd suggested.

"From which store did you buy"- another voice.

"A and Z store"- Rahul confirmed.

"That store owner is a cheat. He stocks faked brands. Last time I also purchased a pair from that bastard and it did not last even a month. I asked for a replacement and he refused saying I could contact the manufacturer. I approached the manufacturer and they said this damn store was not their Authorised dealer"- documented that voice.

"But see this road is under repair for weeks now! What's the government doing"-a voice enquired.

"Can't you see?  They are laying under ground pipes and it takes time. You seem to be from opposition party"- opined another voice.

" So what? I repeat this government is inefficient, anti people, corrupt! " - protested the previous voice.

"Let us not blame everything on government . As citizens we have have our rights but we should be aware of our obligations too"- sermonized some sane voice.

"That is okay but we live in a democracy and we have every right to protest. No body can take that right away from us"- another aggrieved soul solemnized.

"We deserve the government we chose" - an intellectual butted in.

"Democracy is the government of hundred fools"- a likely communist quoted.

"Now you will even blame the government for this hot weather"- a realist said.

"And why not, Sir  ? There is no power in our area for three days. The water taps are dry. It happens in every summer. Why can't they plan in advance?"- another dissatisfied citizen complained.

"Tomatoes are selling at 100 rupees a kilo"- a poor householder raised his voice.

Crowd was gathering. Some were whispering, some were agitated and some were simply watching. No body seemed to be mindful of the heat. No body knew what motivated this gathering and for what purpose. But they were talking and throwing arguments at each other. No body noticed when Rahul, the bare footed man holding shoes in his hands and the middle aged man slipped away.

Democracy is alive and kicking.

Universal Language of Love and Hate.

Universal Language of Love and Hate. Sometimes, I wonder, why humans developed languages or even need them? If we look back, we will realize...