(6) गाँव एक- शिक्षक अनेक
एक अफ़्रीकन कहावत है जिसका अंग्रेज़ी तर्जुमा है - It takes a village to raise a child - यानी एक बच्चे को जवान करने में एक पूरे गाँव का योगदान होता है। यह कहावत वैसे तो हर देश या प्रदेश के गाँवों पर लागू होती है और इसी लिये यह सारी दुनिया मे प्रचलित भी है पर मेरे गांव बनचूरी पर ख़ास रूप से लागू होती है। बनचूरी का हूँ तो थोड़ा बहुत पक्षपात तो बनता है।
अब तक आप लोग जान ही गये होंगे कि बनचूरी कहाँ है क्योंकि पिछले लेखों मे मैंने उसका विवरण दिया है । फिर भी दोबारा बताने में कोई हर्ज नही। बनचूरी उत्तराखंड जो कि कभी उत्तर प्रदेश राज्य में था, फिर उत्तरांचल और अभी उत्तराखंड राज्य के नाम से जाना जाता है, के पौडी जिले के यमकेश्वर ब्लाक मों बसा एक गाँव है जिसके दाहिने भाग मे रिखेडा और बांये भाग में सार गाँव बसे हैं। ठीक सामने पूर्व की ओर तलहटी मे हेंवल नदी बहती है जो चेलूसैंण के डाँडे से निकल कर ऋषिकेश में गंगा में मिलती है। नदी के उस पार कई गाँव हैं। यहां के निवासी रिखेडा से आकर यहाँ बसे थे। रिखेडा का मतलब ऋषियों का अड्डा। इस कारण हम ऋषियों की संतान हैं। वैसे कहना मुश्किल है कि हम ऋषियों जैसा आचरण भी रखते हैं कि नही। दोनों गाँवों मे भारद्वाज कुल के लखेडा जाति के कई परिवार बसते हैं । आप अब आप समझ गये होंगे कि कहावत बनचूरी गाँव पर क्यों खासरूप से लागू होती है। परिवार अनेक पर बच्चे सबके।
मेरे बचपन के पहले सात साल गाँव मे ही बीते। उसके बाद स्कूल के दिन कोटद्वार नज़ीबाबाद में और छुट्टियों के दिन गाँव में। यह सिलसिला कालेज जाने तक चलता रहा, फिर साल मे एक बार और बाद मे शादी व्याह में जो दो तीन साल में एक बार तो आ ही जाते थे। धीरे धीरे वह भी कम हो गया। शादी की उम्र वाले सब शहरों में हैं। अब तो गाँवों से बरात शहरों में आने लगी हैं।
पर गाँव के वह दिन याद हैं। इस बार उस समय के उन लोगों को याद करें जिनका संरक्षण गाँव के सब बच्चों को प्राप्त था। उनमें से जो दिवंगत हो चुके हैं उनकी आत्मा की शांति के लिये एक मिनट आँखें बंद कर लें। जो जीवित हैं उनकी दीर्घ आयु की कामना करें।
आज जब उन दिनों को याद करता हूँ तो लगता है अनजाने में ही सही उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।
गाँव के सबसे बूढ़े दादा जी जिनके नज़र इतनी तेज़ कि हर शैतानी पकड़ लेते और कभी कभी तो कान भी मरोड़ देते। मजाल कि वह सामने हों और कोई शैतानी करने की सोच भी सके। उनकी नज़र ही काफ़ी थी। ढीक विपरीत बूढ़े ताऊ जी। कभी ऊँची आवाज़ में नही सुना। हमेशा मुस्कुराते रहते।
चाचाओं की तो भरमार भी। कुछ तो हम उम्र भी थे। किसी से स्टेज पर खड़ा होना सीखा तो किसी से पढ़ाई पर ध्यान रखने की सलाह। कभी कभी तो परीक्षा भी ले लेते। कोई गीता के
श्लोक ऐसे बोलते जैसे हम रटे रटाते पहाड़े भी नही बोल पाते।
भाई साहब तो जब तब पास्ट, प्रेजेंट, फ्यूचर, फ्यूचर परफ़ेक्ट टैंस के उदाहरण पूछते ताकि उन्हें तसल्ली हो जाय कि हम सही दिशा में जा रहे हैं। पूरे इलाक़े मे पहला ग्रेजुएट बनने का शौभाग्य भी बनचूरी को ही हासिल था। दूसरे भाई साहब शरीर से कमज़ोर पर खेती के सारे काम कर लेते थे।
बिना दाँत वाली बूढी दादी जी को हम पर इतना विश्वास कि खेत की मुंगरी (मक्का) हमसे ही तुडवातीं। काम हो जाने पर मेहनताना में कुछ मुंगरियां जरूर पकड़ा देतीं। कभी कभी तो ककड़ी भी दे देतीं। दूसरी दादी ककड़ी वेलों पर बचा कर रखतीं कि शहर से लौटकर आने वाले हम विद्यार्थी खायेंगे। भले ही सारी पीली पड़ जांय। रामलीला के दिनों ख़्याल रखती कि एक्टर्स के गले ढीक रहें। अमरूद के पत्ते चबाने को बोलतीं, गरम गरम चाय पिलातीं।
एक ताईजी के अमरूद, पपीते, अनार के पेड़ थे पर कम ही दरियादिली दिखाती थीं सो मजबूरन रात मे हाथ साफ़ करना पड़ता था। बड़ा मुश्किल काम था रात मे जागना। पूरे ग्रुप को काफ़ी प्लेनिंग करनी पड़ती। सुबह ताई जी गालियों की बौछार लगाती और चोर चुस्कियाँ ले ले कर सुनते पर चेहरे पर पूरी मासूमियत। 'जैन म्यार अमरूद तोड़ि ह्वाल वैकी ..... आदि आदि ' ।
दूसरी ताई जी को कभी किसी ने कड़वे बोल बोलते नही सुना चाहे उनका कितना ही नुक़सान क्यों न हो गया हो। इतनी सहन शीतला शायद ही कहीं मिले।
यह सब लोग, ख़ासकर चाचियां, भाभियाँ, बहनें, बुआयें, बड़े छोटे भाई रामलीला के टाइम पर दर्शकों मे हाज़िर रहकर हमारा उत्साह बढ़ाते। कोई कोई तो अच्छी एक्टिंग पर अढन्नी रुपया भी पकड़ा दे देतीं। रामलीला और नाटक करना अपने आप मे एक बड़ा प्रोजेक्ट था। न तो जेब मे पैसे, न गाँव में सब साजों सामान। भानमती का कुनबा जुड़ ही जाता । हमारी छुट्टियों की बोरियत ख़त्म और गाँव वालों का मनोरंजन।
सभी से कुछ न कुछ सीखने को मिला। किसी ने शैतानी करने से रोका, किसी ने हँसते रहना सिखाया, किसी ने एक्टिंग, किसी ने होम वर्क करवाया, किसी ने पढ़ना क्यों जरूरी है, किसी ने शरीर की कमज़ोरी के बाबजूद मेहनत करने का का रास्ता दिखाया, किसी ने मज़दूरी का फल दिया तो किसी ने अपना पन क्या होता है सिखाया। किसी ने सचेत किया तोयकिसी ने सहन शीलता का उदाहरण रखा।
हमारी पीढी का शौभाग्य था कि हमें बिना किसी लालच के दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, भैय्या- भाभी, भाई- बहन, बुआ, भतीजा- भतीजी के रूप में निःशुल्क शिक्षक मिले। इसके अलावा और कोई नाता था ही नही। यहाँ तक कि हरिजन बस्ती वालों को भी ढुल्ला -ढुल्ला जैसे रिस्तों से बुलाया जाता। यह गाँव मे ही संभव था, ख़ासकर बनचूरी में ।
इसी लिये कहते हैं कि -it takes a village to raise a child.
मै समझता हूँ हमारे उत्तराखंड मे बहुत सारी बनचूरी थीं और हैं।
विनीत-
हरि प्रसाद लखेडा
Camp: USA
एक अफ़्रीकन कहावत है जिसका अंग्रेज़ी तर्जुमा है - It takes a village to raise a child - यानी एक बच्चे को जवान करने में एक पूरे गाँव का योगदान होता है। यह कहावत वैसे तो हर देश या प्रदेश के गाँवों पर लागू होती है और इसी लिये यह सारी दुनिया मे प्रचलित भी है पर मेरे गांव बनचूरी पर ख़ास रूप से लागू होती है। बनचूरी का हूँ तो थोड़ा बहुत पक्षपात तो बनता है।
अब तक आप लोग जान ही गये होंगे कि बनचूरी कहाँ है क्योंकि पिछले लेखों मे मैंने उसका विवरण दिया है । फिर भी दोबारा बताने में कोई हर्ज नही। बनचूरी उत्तराखंड जो कि कभी उत्तर प्रदेश राज्य में था, फिर उत्तरांचल और अभी उत्तराखंड राज्य के नाम से जाना जाता है, के पौडी जिले के यमकेश्वर ब्लाक मों बसा एक गाँव है जिसके दाहिने भाग मे रिखेडा और बांये भाग में सार गाँव बसे हैं। ठीक सामने पूर्व की ओर तलहटी मे हेंवल नदी बहती है जो चेलूसैंण के डाँडे से निकल कर ऋषिकेश में गंगा में मिलती है। नदी के उस पार कई गाँव हैं। यहां के निवासी रिखेडा से आकर यहाँ बसे थे। रिखेडा का मतलब ऋषियों का अड्डा। इस कारण हम ऋषियों की संतान हैं। वैसे कहना मुश्किल है कि हम ऋषियों जैसा आचरण भी रखते हैं कि नही। दोनों गाँवों मे भारद्वाज कुल के लखेडा जाति के कई परिवार बसते हैं । आप अब आप समझ गये होंगे कि कहावत बनचूरी गाँव पर क्यों खासरूप से लागू होती है। परिवार अनेक पर बच्चे सबके।
मेरे बचपन के पहले सात साल गाँव मे ही बीते। उसके बाद स्कूल के दिन कोटद्वार नज़ीबाबाद में और छुट्टियों के दिन गाँव में। यह सिलसिला कालेज जाने तक चलता रहा, फिर साल मे एक बार और बाद मे शादी व्याह में जो दो तीन साल में एक बार तो आ ही जाते थे। धीरे धीरे वह भी कम हो गया। शादी की उम्र वाले सब शहरों में हैं। अब तो गाँवों से बरात शहरों में आने लगी हैं।
पर गाँव के वह दिन याद हैं। इस बार उस समय के उन लोगों को याद करें जिनका संरक्षण गाँव के सब बच्चों को प्राप्त था। उनमें से जो दिवंगत हो चुके हैं उनकी आत्मा की शांति के लिये एक मिनट आँखें बंद कर लें। जो जीवित हैं उनकी दीर्घ आयु की कामना करें।
आज जब उन दिनों को याद करता हूँ तो लगता है अनजाने में ही सही उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।
गाँव के सबसे बूढ़े दादा जी जिनके नज़र इतनी तेज़ कि हर शैतानी पकड़ लेते और कभी कभी तो कान भी मरोड़ देते। मजाल कि वह सामने हों और कोई शैतानी करने की सोच भी सके। उनकी नज़र ही काफ़ी थी। ढीक विपरीत बूढ़े ताऊ जी। कभी ऊँची आवाज़ में नही सुना। हमेशा मुस्कुराते रहते।
चाचाओं की तो भरमार भी। कुछ तो हम उम्र भी थे। किसी से स्टेज पर खड़ा होना सीखा तो किसी से पढ़ाई पर ध्यान रखने की सलाह। कभी कभी तो परीक्षा भी ले लेते। कोई गीता के
श्लोक ऐसे बोलते जैसे हम रटे रटाते पहाड़े भी नही बोल पाते।
भाई साहब तो जब तब पास्ट, प्रेजेंट, फ्यूचर, फ्यूचर परफ़ेक्ट टैंस के उदाहरण पूछते ताकि उन्हें तसल्ली हो जाय कि हम सही दिशा में जा रहे हैं। पूरे इलाक़े मे पहला ग्रेजुएट बनने का शौभाग्य भी बनचूरी को ही हासिल था। दूसरे भाई साहब शरीर से कमज़ोर पर खेती के सारे काम कर लेते थे।
बिना दाँत वाली बूढी दादी जी को हम पर इतना विश्वास कि खेत की मुंगरी (मक्का) हमसे ही तुडवातीं। काम हो जाने पर मेहनताना में कुछ मुंगरियां जरूर पकड़ा देतीं। कभी कभी तो ककड़ी भी दे देतीं। दूसरी दादी ककड़ी वेलों पर बचा कर रखतीं कि शहर से लौटकर आने वाले हम विद्यार्थी खायेंगे। भले ही सारी पीली पड़ जांय। रामलीला के दिनों ख़्याल रखती कि एक्टर्स के गले ढीक रहें। अमरूद के पत्ते चबाने को बोलतीं, गरम गरम चाय पिलातीं।
एक ताईजी के अमरूद, पपीते, अनार के पेड़ थे पर कम ही दरियादिली दिखाती थीं सो मजबूरन रात मे हाथ साफ़ करना पड़ता था। बड़ा मुश्किल काम था रात मे जागना। पूरे ग्रुप को काफ़ी प्लेनिंग करनी पड़ती। सुबह ताई जी गालियों की बौछार लगाती और चोर चुस्कियाँ ले ले कर सुनते पर चेहरे पर पूरी मासूमियत। 'जैन म्यार अमरूद तोड़ि ह्वाल वैकी ..... आदि आदि ' ।
दूसरी ताई जी को कभी किसी ने कड़वे बोल बोलते नही सुना चाहे उनका कितना ही नुक़सान क्यों न हो गया हो। इतनी सहन शीतला शायद ही कहीं मिले।
यह सब लोग, ख़ासकर चाचियां, भाभियाँ, बहनें, बुआयें, बड़े छोटे भाई रामलीला के टाइम पर दर्शकों मे हाज़िर रहकर हमारा उत्साह बढ़ाते। कोई कोई तो अच्छी एक्टिंग पर अढन्नी रुपया भी पकड़ा दे देतीं। रामलीला और नाटक करना अपने आप मे एक बड़ा प्रोजेक्ट था। न तो जेब मे पैसे, न गाँव में सब साजों सामान। भानमती का कुनबा जुड़ ही जाता । हमारी छुट्टियों की बोरियत ख़त्म और गाँव वालों का मनोरंजन।
सभी से कुछ न कुछ सीखने को मिला। किसी ने शैतानी करने से रोका, किसी ने हँसते रहना सिखाया, किसी ने एक्टिंग, किसी ने होम वर्क करवाया, किसी ने पढ़ना क्यों जरूरी है, किसी ने शरीर की कमज़ोरी के बाबजूद मेहनत करने का का रास्ता दिखाया, किसी ने मज़दूरी का फल दिया तो किसी ने अपना पन क्या होता है सिखाया। किसी ने सचेत किया तोयकिसी ने सहन शीलता का उदाहरण रखा।
हमारी पीढी का शौभाग्य था कि हमें बिना किसी लालच के दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, भैय्या- भाभी, भाई- बहन, बुआ, भतीजा- भतीजी के रूप में निःशुल्क शिक्षक मिले। इसके अलावा और कोई नाता था ही नही। यहाँ तक कि हरिजन बस्ती वालों को भी ढुल्ला -ढुल्ला जैसे रिस्तों से बुलाया जाता। यह गाँव मे ही संभव था, ख़ासकर बनचूरी में ।
इसी लिये कहते हैं कि -it takes a village to raise a child.
मै समझता हूँ हमारे उत्तराखंड मे बहुत सारी बनचूरी थीं और हैं।
विनीत-
हरि प्रसाद लखेडा
Camp: USA
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