ज़िंदगी के रंग- विश्वास हनन (पी आइ सी कोटद्वार )
सारी शर्म और मासूमियत से पल्ला झाड़ते हुये, मै कह सकता हूँ कि मैं एक होशियार विद्यार्थियों में गिना जाता था। इसलिये मैं लगभग सारे शिक्षकों की पसंद भी था। किन्तु यह भी सही है कि जहाँ इसके कुछ फ़ायदे हैं वही कई नुक़सान भी हैं। जब हम किसी का विश्वास जीत लेते हैं तो इस बात का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है कि वह विश्वास टूटे नही। इसके लिये कई बलिदान भी करने पड़ सकते हैं। ख़ैर भाषण ख़त्म करते हुये मुद्दे की बात पर आते हैं।
१९५२ के सत्र मे पब्लिक इंटरमीडियट कालेज कोटद्वार मे छटी कक्षा मे प्रवेश मिला था। एक ज़िद थी कि बड़े भाई के साथ एक ही कक्षा मे पढना है और यह तब ही संभव था कि मै चौथी कक्षा से सीधे छटी कक्षा मे जाता। जैसे तैसे करके पिता श्री ने प्रीसंपिल साहेब श्री बी डी बहुखंडी जी को मनाया, हिन्दी का डिकटेसन दिया, कुछ मौखिक सवालों का जबाब दिया और लाइन क्लियर हो गई। मौखिक सवाल आज भी याद है। नौटियाल जी के पास मौखिक परीक्षा के लिये भेजा गया था। उन्होंने पूछा तीन अमरूद और पाँच आम कितने हुये, जबाब दिया, आठ। पूछे, आठ क्या पत्थर? जबाब दिया, अमरूद और आम मिलाकर। पीठ पर हाथ रखकर पास कर दिया।
शास्त्री जी की मुझ पर विषेश क्रिपा थी। हिंदी के शिक्षक थे। असली नाम तो शायद कालेज के रजिस्टर मे रहा होगा। अधपके बाल, सफ़ेद कुर्ता, सफ़ेद धोती और पाँवों मे चमकता काला जूता दूर से ही उनके आने की सूचना दे देता। सब शास्त्री जी कह कर बुलाते थे। विद्यार्थी मास्टरजी कहकर बुलाते। मुझपर उनको बड़ा फ़क्र था। मेरी लिखावट, बात करने का सलीक़ा, पढ़ाई मे रुचि और सबसे बड़ी मेरी आज्ञापालनता से वे मुझपर प्रसन्न रहते। क्लास मे इसका उदाहरण देते। उनके हिसाब से मै कुछ ग़लत कर ही नही सकता था। होम वर्क समय पर करना, आने वाले अध्याय को घर पर पहले से पढ़कर आना, कक्षा मे ध्यान लगाकर सुनना, किताबों को सही हालत मे संभालकर रखना कई गुण उनकी नज़र मे मेरे मे थे। पिता जी जब मिलते तो मेरी तारीफ़ करते। ऐसी प्रस्थिति मे मेरा क्या दायित्व बनता, आप अनुमान लगा सकते हैं।
हिंदी क्लास के शुरू होने से पहले मेरा काम था कि सबकी होम वर्क की कापी जमा करूँ और मास्टरजी के आने से पहले उनकी मेज़ पर रख दूँ। उस दुर्भाग्य पूर्ण दिन को मै खुद अपना होम वर्क नही कर पाया था और कापी भी नही लाया था। मास्टरजी के आने से पहले मेरी कापी को छोड़कर सबकी कापियाँ उनकी मेज़ पर थीं। नियम के अनुसार उन्होंने कहा कि जो अपना होम वर्क नही लाये हैं खड़े हो जांय। सबको कक्षा ख़त्म होने कोने मे खड़ा रहना पड़ता था।
क़िस्मत की मार कि उस दिन मै अकेला ही था जो होम वर्क करके नही लाया था। और मै खड़ा हो गया कोने मे। मास्टरजी को यह बर्दास्त नही था। वे पहले तो चुप रहे, फिर स्तभ्द हो गये। मुझे लगा उनकी आँखों मे कुछ था, शायद आंशू। पर आँखें लाल हो गईं थीं। कारण पूछा। मै डर गया था। मैंने झूट बोला कि होम वर्क तो किया था पर कापी घर भूल आया। झूट पर झूट। उनके चेहरे पर कुछ नर्मी आई । उनके मालूम था मेरा घर दूर नही था। बोले, जाओ और जितना जल्दी हो सके लेकर आओ।
अपराधी सा चेहरा लिये मै चुपचाप खडा रहा। झूट पर एक और झूट बोलने वाला था कि घर पर कोई नही है पर कह नही पाया। हिम्मत ही नही हुई। चेहरा बता रहा था कि झूट बोलने की भी हद होती है और उसके लिये बहुत अनुभव चाहिये होता है। आँखों मे आंशू भर आये थे ।
"तो तुमने झूट कहा" उनकी आवाज़ मे दर्द था। और उसके साथ ही उनके लंबे हाथ और चौड़ी हथेली का थप्पड़ मेरे गालों पर पडा। और पड़ता रहा, पड़ता रहा, पड़ता रहा । मेरी आँखें लाल, टपकती आंसूं की धारा और घना अंधकार। शर्म से सर झुका था। बेइज़्ज़ती महसूस कर रहा था। क्लास मे इतनी शांति पहले कभी नही देखी होगी।
उस दिन का अध्याय पढ़ाना शुरू किया। कुछ पंक्तियाँ पढ़ते, समझाते और फिर जैसे कुछ याद आता मेरे पास आते और एक चांटा रसीद कर देते। कई बार यह हुआ। पैंतालीस मिनट का वह पीरियड लगा कभी ख्तम ही नही होगा। पीरियड ख़त्म होने की घंटी तक नही सुनाई दी। अगले दिन से सब सामान्य सा था। उसी तरह होम वर्क की कापी जमा करके मेज़ पर रख देता, पर कहीं कुछ छूट गया था। आठवीं कक्षा तक उन्होंने हमें पढ़ाया। अब वह बात नही रही।
दरअसल मैंने उनके विश्वास को तोड़ा था। उनकी बेइज़्ज़ती की थी । मै उनके विश्वास के क़ाबिल ही न था। उन्होंने तो यही सोचा होगा। मै सच बोल देता तो वे समझ जाते और छोटी सी सज़ा देकर भूल जाते।
विश्वास ज़माने मे समय लगता है, टूटने मे क्षण भी नही लगते।
सारी शर्म और मासूमियत से पल्ला झाड़ते हुये, मै कह सकता हूँ कि मैं एक होशियार विद्यार्थियों में गिना जाता था। इसलिये मैं लगभग सारे शिक्षकों की पसंद भी था। किन्तु यह भी सही है कि जहाँ इसके कुछ फ़ायदे हैं वही कई नुक़सान भी हैं। जब हम किसी का विश्वास जीत लेते हैं तो इस बात का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है कि वह विश्वास टूटे नही। इसके लिये कई बलिदान भी करने पड़ सकते हैं। ख़ैर भाषण ख़त्म करते हुये मुद्दे की बात पर आते हैं।
१९५२ के सत्र मे पब्लिक इंटरमीडियट कालेज कोटद्वार मे छटी कक्षा मे प्रवेश मिला था। एक ज़िद थी कि बड़े भाई के साथ एक ही कक्षा मे पढना है और यह तब ही संभव था कि मै चौथी कक्षा से सीधे छटी कक्षा मे जाता। जैसे तैसे करके पिता श्री ने प्रीसंपिल साहेब श्री बी डी बहुखंडी जी को मनाया, हिन्दी का डिकटेसन दिया, कुछ मौखिक सवालों का जबाब दिया और लाइन क्लियर हो गई। मौखिक सवाल आज भी याद है। नौटियाल जी के पास मौखिक परीक्षा के लिये भेजा गया था। उन्होंने पूछा तीन अमरूद और पाँच आम कितने हुये, जबाब दिया, आठ। पूछे, आठ क्या पत्थर? जबाब दिया, अमरूद और आम मिलाकर। पीठ पर हाथ रखकर पास कर दिया।
शास्त्री जी की मुझ पर विषेश क्रिपा थी। हिंदी के शिक्षक थे। असली नाम तो शायद कालेज के रजिस्टर मे रहा होगा। अधपके बाल, सफ़ेद कुर्ता, सफ़ेद धोती और पाँवों मे चमकता काला जूता दूर से ही उनके आने की सूचना दे देता। सब शास्त्री जी कह कर बुलाते थे। विद्यार्थी मास्टरजी कहकर बुलाते। मुझपर उनको बड़ा फ़क्र था। मेरी लिखावट, बात करने का सलीक़ा, पढ़ाई मे रुचि और सबसे बड़ी मेरी आज्ञापालनता से वे मुझपर प्रसन्न रहते। क्लास मे इसका उदाहरण देते। उनके हिसाब से मै कुछ ग़लत कर ही नही सकता था। होम वर्क समय पर करना, आने वाले अध्याय को घर पर पहले से पढ़कर आना, कक्षा मे ध्यान लगाकर सुनना, किताबों को सही हालत मे संभालकर रखना कई गुण उनकी नज़र मे मेरे मे थे। पिता जी जब मिलते तो मेरी तारीफ़ करते। ऐसी प्रस्थिति मे मेरा क्या दायित्व बनता, आप अनुमान लगा सकते हैं।
हिंदी क्लास के शुरू होने से पहले मेरा काम था कि सबकी होम वर्क की कापी जमा करूँ और मास्टरजी के आने से पहले उनकी मेज़ पर रख दूँ। उस दुर्भाग्य पूर्ण दिन को मै खुद अपना होम वर्क नही कर पाया था और कापी भी नही लाया था। मास्टरजी के आने से पहले मेरी कापी को छोड़कर सबकी कापियाँ उनकी मेज़ पर थीं। नियम के अनुसार उन्होंने कहा कि जो अपना होम वर्क नही लाये हैं खड़े हो जांय। सबको कक्षा ख़त्म होने कोने मे खड़ा रहना पड़ता था।
क़िस्मत की मार कि उस दिन मै अकेला ही था जो होम वर्क करके नही लाया था। और मै खड़ा हो गया कोने मे। मास्टरजी को यह बर्दास्त नही था। वे पहले तो चुप रहे, फिर स्तभ्द हो गये। मुझे लगा उनकी आँखों मे कुछ था, शायद आंशू। पर आँखें लाल हो गईं थीं। कारण पूछा। मै डर गया था। मैंने झूट बोला कि होम वर्क तो किया था पर कापी घर भूल आया। झूट पर झूट। उनके चेहरे पर कुछ नर्मी आई । उनके मालूम था मेरा घर दूर नही था। बोले, जाओ और जितना जल्दी हो सके लेकर आओ।
अपराधी सा चेहरा लिये मै चुपचाप खडा रहा। झूट पर एक और झूट बोलने वाला था कि घर पर कोई नही है पर कह नही पाया। हिम्मत ही नही हुई। चेहरा बता रहा था कि झूट बोलने की भी हद होती है और उसके लिये बहुत अनुभव चाहिये होता है। आँखों मे आंशू भर आये थे ।
"तो तुमने झूट कहा" उनकी आवाज़ मे दर्द था। और उसके साथ ही उनके लंबे हाथ और चौड़ी हथेली का थप्पड़ मेरे गालों पर पडा। और पड़ता रहा, पड़ता रहा, पड़ता रहा । मेरी आँखें लाल, टपकती आंसूं की धारा और घना अंधकार। शर्म से सर झुका था। बेइज़्ज़ती महसूस कर रहा था। क्लास मे इतनी शांति पहले कभी नही देखी होगी।
उस दिन का अध्याय पढ़ाना शुरू किया। कुछ पंक्तियाँ पढ़ते, समझाते और फिर जैसे कुछ याद आता मेरे पास आते और एक चांटा रसीद कर देते। कई बार यह हुआ। पैंतालीस मिनट का वह पीरियड लगा कभी ख्तम ही नही होगा। पीरियड ख़त्म होने की घंटी तक नही सुनाई दी। अगले दिन से सब सामान्य सा था। उसी तरह होम वर्क की कापी जमा करके मेज़ पर रख देता, पर कहीं कुछ छूट गया था। आठवीं कक्षा तक उन्होंने हमें पढ़ाया। अब वह बात नही रही।
दरअसल मैंने उनके विश्वास को तोड़ा था। उनकी बेइज़्ज़ती की थी । मै उनके विश्वास के क़ाबिल ही न था। उन्होंने तो यही सोचा होगा। मै सच बोल देता तो वे समझ जाते और छोटी सी सज़ा देकर भूल जाते।
विश्वास ज़माने मे समय लगता है, टूटने मे क्षण भी नही लगते।
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