(7) ज़ोर से बोलो हम पहाड़ी हैं !!!
जब तक कोटद्वार नहीं पहुँचे थे, पहाड़ी शब्द से परिचय नही था। हाँ पहाड़ का मतलब जानते थे । पहाड़ में पलने बढ़ने वाला बच्चे से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है। ख़ासकर जबकि वह बनचूरी का हो। पहाड़ों की तलहटी में बसा गाँव, जो तीन तरफ़ से पहाड़ों से घिरा हो, जहाँ से बाहर निकलने का रास्ता भी पहाड़ पार करके ही निकलता हो और जहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी पहाड़ की चढ़ाई पार करके ही मिलता हो, भला वहाँ का निवासी पहाड का मतलब न जानता हो, कैसे हो सकता है।
१९४८ के आस पास ७ साल की उम्र में जब २५-३० मील की दूरी खोबरा के डांडा से होते हुये जयगांव, पौखाल, आदि की उकाल् -उंधार, गाड़ - गधन पैदल नाप कर जब कोटद्वार पहुँचे तो पता चला कि वहाँ पहाड दूर से ही दिखते हैं। ज्यादातर लोग पहाड से थे पर पहाड से होने पर भी बच्चे स्कूल मे कच्ची पक्की देशी ही बोलते थे। देखते देखते पक्की देशी बोलने लगे। पहाडी शब्द तब भी नही सुना। फिर एक अंतराल आया। दोबारा १९५२ के पास फिर कोटद्वार लौटे हाइ स्कूल करने। आये पहले की तरह पैदल ही थे, पर अब तक पाँव मज़बूत हो चुके थे।
थोड़ी बहुत घूमने फिरने की आज़ादी मिली। जगह छोटी ही थी। सारा क़स्बा आधे घंटे मे लपेटा जा सकता था। स्टेशन से चौक होते हुये पुलिस थाने तक और पीछे से घूम कर पीआईसी होते हुये वापस बस अड्डा और स्टेशन। ज्यादा लोग पैदल, कुछ साइकल पर । इनमे गिने चुने स्कूटर भी थे उनमें से एक कुकरेती चाचा जी का था जिनका कुनबा कुछ साल बनचूरी में रहा पर बाद में सारा परिवार ढांगल-थलनदी फिर कोटद्वार आ गया। पर गाँव का रिस्ता बना रहा ।
अब कुछ कुछ लगा कि पहाडी शब्द का क्या मतलब है। देशी लोगों की दुकान, होटल, घर में चौका, बर्तन, रसोई, सफ़ाई जैसे काम करने वाले पहाड से ही थे। देशी लोग उनको पहाडी कहकर बुलाते। ढीक जैसे सहूलियत के लिये आजकल सब घरेलू नौकरों को रामू या छोटू कहकर बुलाने लगते हैं चाहे असली नाम कुछ भी हो।
कुछ वर्षों मे दिल्ली आये तो वही कहानी में अब कुछ और नाम भी जुड़ गये थे जैसे बिहार के बिहारी, यू पी के भैय्या, नेपाल के बहादुर। पहाडी, बिहारी, भैय्या, बहादुर मे एक बात कामन थी सब छोटे छोटे कामों मे लगे थे । घरेलू नौकर, चौकीदारी, होटल में बर्तन माँजने वाले, दुकानों मे सामान उठाने वाले आदि। मतलब कि काम से पहचान थी। कुछ लोग पहाडी सरनेम बदलकर शर्मा बन गये ताकि पता न लगे पहाडी हैं। सचमुच जो शुरू शुरू में रोटी रोज़ी की तलाश में गाँव से शहर आये होंगे उनको काफ़ी कुछ झेलना पडा होगा। मेहनत मज़दूरी के साथ साथ तिरस्कार भी।
आफिस, आर्मी, पुलिस और जंगलों मे काम करने वालों को शायद यह नही देखना पडा होगा।
भैय्या तेरे तीन नाम - परसू, परसा, परसराम। जैसे जैसे ओहदा या पैसा बढ़ता है नाम भी बदल जाता है। जो कल परसू था आज परसा है और कल परसराम बन सकता है।
आज २०१७ में हालात बदले हैं या यूँ कहूँ कि हम पहाड़ियों ने हालात बदल दिये हैं। आज हम पहाडी पढ़ लिख गये हैं , अच्छा खा कमा रहे हैं, ऊँचे हदों पर हैं। अब भी कुछ पीछे रह गये हैं पर पहले से बहुत आगे हैं। अब उनको कोई पहाडी बोलकर नही बुलाता। आज वे गर्व से कह सकते हैं कि हम पहाडी हैं। जब मैं किसी से पूछने पर बताता हूँ कि मैं पहाड़ से हूँ तो उन्हें एक प्रकार से ईर्शा होती है कि हम देव भूमि से हैं।
पर हम भूल नही सकते कि इसमें समय लगा। लगभग ५० साल। आज हम जो कुछ भी हैं हमारे बुज़ुर्गों की कड़ी मेहनत और ईमानदारी की वजह से हैं।
ज़रूरत है कि जो कर सकने की स्थिति मे हैं अपने पहाडी बंधुओं की मदद करें। उनको आगे बढ़ने के लिये गाइड करें। हो सके तो पैसे से भी मदद करें। इस बहस में मत पड़िये कि तुमने या उसने क्या किया। बस यह सोचिये कि मैं क्या कर लगता हूँ। सोचते ही न रह जाइये, तुरंत कर डालिये। न जाने क्यों पर जब हम किसी मुक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो भूल जाते हैं कि हम भी पहाडी हैं। पहाडी शब्द से चिढ़ क्यों। हमें तो गर्व होना चाहिये कि हम पहाडी हैं।
हरि प्रसाद लखेडा, बनचूरी, पौडी गढ़वाल, उत्तराखंड।
१५/०७/२०१७
जब तक कोटद्वार नहीं पहुँचे थे, पहाड़ी शब्द से परिचय नही था। हाँ पहाड़ का मतलब जानते थे । पहाड़ में पलने बढ़ने वाला बच्चे से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है। ख़ासकर जबकि वह बनचूरी का हो। पहाड़ों की तलहटी में बसा गाँव, जो तीन तरफ़ से पहाड़ों से घिरा हो, जहाँ से बाहर निकलने का रास्ता भी पहाड़ पार करके ही निकलता हो और जहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी पहाड़ की चढ़ाई पार करके ही मिलता हो, भला वहाँ का निवासी पहाड का मतलब न जानता हो, कैसे हो सकता है।
१९४८ के आस पास ७ साल की उम्र में जब २५-३० मील की दूरी खोबरा के डांडा से होते हुये जयगांव, पौखाल, आदि की उकाल् -उंधार, गाड़ - गधन पैदल नाप कर जब कोटद्वार पहुँचे तो पता चला कि वहाँ पहाड दूर से ही दिखते हैं। ज्यादातर लोग पहाड से थे पर पहाड से होने पर भी बच्चे स्कूल मे कच्ची पक्की देशी ही बोलते थे। देखते देखते पक्की देशी बोलने लगे। पहाडी शब्द तब भी नही सुना। फिर एक अंतराल आया। दोबारा १९५२ के पास फिर कोटद्वार लौटे हाइ स्कूल करने। आये पहले की तरह पैदल ही थे, पर अब तक पाँव मज़बूत हो चुके थे।
थोड़ी बहुत घूमने फिरने की आज़ादी मिली। जगह छोटी ही थी। सारा क़स्बा आधे घंटे मे लपेटा जा सकता था। स्टेशन से चौक होते हुये पुलिस थाने तक और पीछे से घूम कर पीआईसी होते हुये वापस बस अड्डा और स्टेशन। ज्यादा लोग पैदल, कुछ साइकल पर । इनमे गिने चुने स्कूटर भी थे उनमें से एक कुकरेती चाचा जी का था जिनका कुनबा कुछ साल बनचूरी में रहा पर बाद में सारा परिवार ढांगल-थलनदी फिर कोटद्वार आ गया। पर गाँव का रिस्ता बना रहा ।
अब कुछ कुछ लगा कि पहाडी शब्द का क्या मतलब है। देशी लोगों की दुकान, होटल, घर में चौका, बर्तन, रसोई, सफ़ाई जैसे काम करने वाले पहाड से ही थे। देशी लोग उनको पहाडी कहकर बुलाते। ढीक जैसे सहूलियत के लिये आजकल सब घरेलू नौकरों को रामू या छोटू कहकर बुलाने लगते हैं चाहे असली नाम कुछ भी हो।
कुछ वर्षों मे दिल्ली आये तो वही कहानी में अब कुछ और नाम भी जुड़ गये थे जैसे बिहार के बिहारी, यू पी के भैय्या, नेपाल के बहादुर। पहाडी, बिहारी, भैय्या, बहादुर मे एक बात कामन थी सब छोटे छोटे कामों मे लगे थे । घरेलू नौकर, चौकीदारी, होटल में बर्तन माँजने वाले, दुकानों मे सामान उठाने वाले आदि। मतलब कि काम से पहचान थी। कुछ लोग पहाडी सरनेम बदलकर शर्मा बन गये ताकि पता न लगे पहाडी हैं। सचमुच जो शुरू शुरू में रोटी रोज़ी की तलाश में गाँव से शहर आये होंगे उनको काफ़ी कुछ झेलना पडा होगा। मेहनत मज़दूरी के साथ साथ तिरस्कार भी।
आफिस, आर्मी, पुलिस और जंगलों मे काम करने वालों को शायद यह नही देखना पडा होगा।
भैय्या तेरे तीन नाम - परसू, परसा, परसराम। जैसे जैसे ओहदा या पैसा बढ़ता है नाम भी बदल जाता है। जो कल परसू था आज परसा है और कल परसराम बन सकता है।
आज २०१७ में हालात बदले हैं या यूँ कहूँ कि हम पहाड़ियों ने हालात बदल दिये हैं। आज हम पहाडी पढ़ लिख गये हैं , अच्छा खा कमा रहे हैं, ऊँचे हदों पर हैं। अब भी कुछ पीछे रह गये हैं पर पहले से बहुत आगे हैं। अब उनको कोई पहाडी बोलकर नही बुलाता। आज वे गर्व से कह सकते हैं कि हम पहाडी हैं। जब मैं किसी से पूछने पर बताता हूँ कि मैं पहाड़ से हूँ तो उन्हें एक प्रकार से ईर्शा होती है कि हम देव भूमि से हैं।
पर हम भूल नही सकते कि इसमें समय लगा। लगभग ५० साल। आज हम जो कुछ भी हैं हमारे बुज़ुर्गों की कड़ी मेहनत और ईमानदारी की वजह से हैं।
ज़रूरत है कि जो कर सकने की स्थिति मे हैं अपने पहाडी बंधुओं की मदद करें। उनको आगे बढ़ने के लिये गाइड करें। हो सके तो पैसे से भी मदद करें। इस बहस में मत पड़िये कि तुमने या उसने क्या किया। बस यह सोचिये कि मैं क्या कर लगता हूँ। सोचते ही न रह जाइये, तुरंत कर डालिये। न जाने क्यों पर जब हम किसी मुक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो भूल जाते हैं कि हम भी पहाडी हैं। पहाडी शब्द से चिढ़ क्यों। हमें तो गर्व होना चाहिये कि हम पहाडी हैं।
हरि प्रसाद लखेडा, बनचूरी, पौडी गढ़वाल, उत्तराखंड।
१५/०७/२०१७
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