Friday, September 15, 2017

खुल गई, खुल गई !!!आपकीअपनी दुकान

(१४) खुल गई, खुल गई, आपकी अपनी दुकान!!!!!!!

कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर एक चलता फिरता सर्वे किया था। दुकान खोलने की इच्छा ज़ाहिर की थी और दोस्तों से दरख्वास्त की थी कि अपने सुझाव देकर रास्ता दिखायें। पर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। जिसके हिस्से मे ऐसे दोस्त आये हों उसे दुश्मनों की क्या जरूरत। ज़रा धैर्य रखिये, ख़ुलासा भी कर दुंगा। एक ही गुज़ारिश है, इसे मज़ाक़ ही समझें और सीरियस्ली न लें। हम लोग हँसना भूल गये हैं। पार्कों मे लाफ़्टर क्लब इसके साबुत हैं। ज़बरदस्ती हँसना और हँसाना पड़ रहा है।

हाँ तो मै दुकान खोलना चाहता था। भारतीय नागरिक होने के कारण मेरा हक़ है कि मै दुकान क्या कुछ भी खोल सकता हूँ। ७० साल की आज़ादी मे इतना भी न कर पाये तो क्या फायदा आज़ादी का? आज़ादी का मतलब मे कम से कम रोटी रोज़ी कमाने की आज़ादी तो होनी ही चाहिये। साफ कर दूँ, कुछ भी खोलने मे कपड़े खोलना नही है। जाने क्यों लोग हर बात का गलत मतलब निकाल लेते हैं। मेरा मतलब है दुकान, स्कूल, हस्पताल, फ़ैक्टरी, रेस्टोरेंट, होटल, आदि आदि। इनमें भी कई टाइप हैं। वैसे स्कूल, हस्पताल भी एक प्रकार से दुकान ही हैं, बस नाम का फ़र्क़ है। ज्यादा मह्त्वकांक्षी नही हूँ इसलिये एक छोटी सी दुकान का ही सपना है, चलते, करते बड़ी हो जायेगी।

@सचिन जैन जी ने कहा चाय की दुकान खोल लो, प्रधान मंत्री बन सकता हूँ। ज़ाहिर है मेरी कम और अपने फ़ायदे की ज्यादा सोच रहा होगा कि मै प्रधान मंत्री बन गया तो उसकी पाँचो उँगली घी मे। सब तो कठोर दिल नही होते। मासूम सा दिल है पिघल जायेगा। उनका  तो कुछ नही होगा, मेरा नया नया राजनैतिक कैरियर खत्म हो जायेगा। सर मुँड़ाते ही ओले। अंदर जाने की नौबत भी आ सकती है, जो भारत के इतिहास मे पहली बार होगा।

आनंद कामले और प्रदीप लखेडा ने दारू की दुकान खोलने की सलाह दी। जानते हैं चल तो जरूर जायेगी पर घाटे मे ही रहेगी। दिनभर आकर खुद भी फोकट की पियेंगे, दोस्तों को पिलायेंगे और मुझे भी साथ मे लपेट लेंगे। घाटा पूरा करने के लिये नक़ली दारू बिकवायेंगे। उनका भी कुछ नही होगा, मै जरूर अंदर हो जाऊँगा।

प्रशांत लखेडा ने सरकारी राशन की दुकान खोलने की सलाह दी। पहले तो बिना सोर्स या धूस दिये सरकारी राशन की दुकान खुलती नही है और दूसरे बिना हेर फेर के चलती नही है। यहाँ भी ओ तो पतली गली से निकल जायेंगे और मै अंदर। जिन मित्रों ने आढत ( कांति लखेडा)की और पेट्रोल पंप (शरत नेगी) खोलने की सलाह दी, उनको भी पता है कि वहाँ भी अंदर जाने का ख़तरा है। बिना मिलावट या नक़ली सामान बेचे इस तरह के व्यापार कहीं होते हैं क्या?

कंसलटैंसी की दुकान खोलने की सलाह @सुभाष लखेडा जी से मिली। मामला कुछ जमता पर देखा गली गली मे सलाहकार बैठे हैं। कई तो फ़ेसबुक पर ही क़ब्ज़ा किये बैठे हैं। ह्वाट्सअप, लिंक्डइन, यूट्यूब अलग। मोबाइल सामने रखो, हो जाओ शुरू व्याख्यान देने। विडियो लाद दो। लगा यहाँ भी दाल नही गलेगी। कमाई तो कुछ होगी नही, घर से ही जायेगा। दोस्त चाहते भी यही हैं।

अनुराग शिक्का जी से नेता बनाने वाली स्कूल खोलने की भी सलाह मिली। राजनैतिक नेता नही, दूसरे टाइप के जो व्यापारिक संगठनों मे या अन्य संगठनों मे काम करते हैं ।  शायद मित्र यह जताना चाहते थे कि जितने भी असफल लीडर हुये हैं रिटायरमेंट के बाद या तो सलाहकार बन गये या नये लीडर तैयार करने मे लग गये। शायद कहना चाह रहे थे कि मैंने कौन से तीर मार लिये थे जो मेरे चेले मार लेंगे। बाद मे कहते हमको तो पहले से ही पता था कि चलेगी नही। क्यों रही सही इज़्ज़त भी ख़तरे मे डाली जाय, सोचकर चुप मार गया। @महेश कंडवाल भी कुछ ऐसा ही इशारा कर रहे थे।

@ जी. पी. मंडल जी ने भविश्य वक़्ता की दुकान खोलने को कहा। शायद उनका मतलब बाबा बंगाली टाइप की दुकान से था। आजकल बाबा कहलाना कितना महँगा पड़ सकता है, रामपाल, राम रहीम और आशाराम से पूछकर देख लेते। अजय प्रकाश पैन्यूली जी ने भी यही सलाह दी। न जाने क्यों सब मुझे अंदर करने की साज़िश मे लगे हैं।

विवेका नंद शैलेश ने  गाँव में चाउमिन्न और जलेबी की दुकान खोलने को बोल रहे हैं। कहते हैं ख़ूब चलेगी। महिलाओं को बहुत पसंद है। पसंद तो जरूर होगी, फिर उधार माँगेंगी, उधार न चुकाने के पच्चीस बहाने बनायेंगीं।
कुछ सख़्ती करुंगा तो कुछ भी इल्ज़ाम लगा देंगी। अंदर जाने का पूरा इंतज़ाम। ना रे बाबा, मेरे बस का नही है।

अब तक तो आपको पता चल ही गया होगा कि क्यों मेरे पास दुश्मनों की कमी नही है। इतने सारे दोस्तों के रहते, दुश्मनों की जरूरत है? कुछ दोस्त भले ही मेरा भला चाहते हों पर उससे क्या होगा। ऊपर नीचे हुआ तो भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा। ज़मानत देने भी नही आयेंगे, आयेंगे क्या दिखेंगे भी नही।

सुशील बडोला ने कहा है कि क्योंकि मै अच्छा ? लिखता हूँ ? तो किताब छपवाऊं। छपवा तो लूँ, अपने ही ख़र्चे पर सही पर ख़रीदेगा कौन? या तो पहले तो किताब छपाने के लिये किसी राजनेता की चरण बंदना करूँ ताकि सरकार से कुछ अनुदान मिल जाय और फिर किसी और नेता की उँगली पकड़ूँ कि आकर उसका अनावरण करूँ! यह सब करने के बाद भी न बिके तो लोगों को पकड़ पकड़ कर मुफ़्त मे किताब बाँटता फिरूँ! जिनको पढ़ना है फ़ेसबुक पर पढ़ लेंगे। हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा आये तो ठीक न भी आये तो पल्ले से तो कुछ नही गया !

पर जो एक बार ठान लेता हूँ फिर तो मै किसी की नही सुनता। सलमान खान के डाइलाग की नक़ल नही कर रहा हूँ। दुकान खोलनी है सो खोल दी। जन्म दिन का ( १५ सितंबर) मुहर्रत निकला है। नाम है 'वायदों की दुकान' । मेरा वायदा है कि जो मेरी बात पर विश्वास करेगा उसके अच्छे दिन जरूर आयेंगे। इस दुकान से आपकी सारी ख्वाइशें पूरी होंगी। कोई ख़ाली हाथ वापस नही भेजा जायेगा। रोटी, कपड़ा, मकान से लेकर हर बात का वादा है। आपको बस इंतज़ार करना है। अब तक भी तो किया है। अब तक किसी भी वादाखोर को जेल जाते नही देखा। बहुत सुरक्षित धंधा है। सबसे बड़ी बात एक ही वादे को कई तरह की पैकिंग मे पेश किया जा सकता है। साथ ही पुराने वादों को भी नये नाम से रिसाइक्लिंग किया जा सकता है।

आइयेगा जरूर !!!!!!!!! आपकी अपनी दुकान है।
मोल भाव और उधार माँग कर करके हमें लज्जित मत करें प्लीज़।

हरि लखेडा ,
सितंबर १५, २०१७

आज नी जाण

आज भी जाण?


१९४०-५० क बीच माँ जन्म्यां लोग ख़ास करीक जु वे टाइम पहाड मा रै ह्वाल और जौन वख स्कूल जाण शुरू के ह्वालू। पाँच - छ: सालक बच्चा ताई स्कूल भेजुणु क्वी मज़ाक़ नी च। शहरी बात अलग च। साफ सुथरी यूनीफार्म, गल माँ टाइ लटकीं, कंधा माँ ख़ूबसूरत बैग जे मा पाणी क बोतल रखणैकी अलग जगा च, और एक सुंदर सी टिफ़िन बाक्श क भितर मन पसंद स्नैक्स । घरै क सामिणी बस ऐ जांद। घुर करीक बस स्कूलम ली जांद। स्कूलम प्यार से बात करणी वाली टीचर, ढेर सारी खिलौना, दीवारों पण बढिया बढिया पेंटिंग, झुलणौं कुण झूला। एतना सब ह्वे कन भी बच्चा ताई रोज़ स्कूल भेजण माँ क्या पापड़ बेलण पडदन सब ताई पता च।

सब गांवों की बात त मी नी जाणदू पर बनचूरी माँ क्या हूंद छाई वेक कुछ कुछ याद अब भी च। पिताजी क ज्यादा बोल्णू पर माँ न हिम्मत करीक स्कूल भेजणक इरादा त कर पर सोच माँ पड़ ग्याई कि पता नी क्या ह्वालू। पैल दिन त दगड माँ खुद ग्यै। एक डेढ़ मीलैकि उकाल् छ: सालूक बच्चा! ख़ैर कनी कैक चल त ग्यै। दूसर दिन पल्या पुत्यैक गांवक बच्चौंक दगड भ्याज।

सवाल एक ही 'आज भी जाण?' जबाब भी एक ही 'हाँ आज भी जाण और रोज़ जाण'!

रोज की त पता नी पर सुबेर सुबेर कनी कैक हाथ मुख ध्वैक, रातैकी बचीं रोटी ख़ैकि, जाण शुरू कर त दै पर वख जैक कन करण क्या च पता नी पौड। रोज़ जाओ, लाइन माँ खड्वैक प्रार्थना क नाम पर होंठ घुमाव, चटाइ पर बैठीक अ आ इ ई ब्वालीक छुट्टी की घंटीक इंतज़ार करणैइ रौ। जनी भरशा दा कुण मास्टर जीक इशारा ह्वौ और घंटी बजाणै कुण उठ तब तक मी कमरा से भैर। स्कूल आण माँ अगर एक घंटा लगी ह्वालू त जाण माँ ज्यादा से ज्यादा दस मिनट।

बहुत ह्वे ग्ये। 'आज भी जाण ' अब नी जाण' मा कब घुरे ग्ये पता त नि चलो पर एक दिन सारी कपड़ा उतारीक खडु ह्वे ग्यूं। नी जांणै। जब पिछ्वाड मा चार लग्गीन त नानी याद ऐ ग्ये। फिर क्या छै जाणी पड़। द्वी साल उकाल् उंधार नापीक, पाटुलू - बखुल्या ढ्वेक द्वी दिनी चार तक ही ही रै ग्यूं। द्वी धमाक पिताजी न मारीन और ली गेन अपर दगड कोटद्वार।

फिर कभी 'आज भी जाण' या 'आज नी जाण' या कपड़ा उतारणों क सवाल ही नी उठ।

Wednesday, September 13, 2017

सरकारी सरकार

सरकारी सरकार और जी आई सी बनचूरी के कंप्यूटर

पता नहीं कि गवर्नमेंट और गवर्नैन्स का सही अनुवाद है कि नहीं पर बहरहाल इसी से काम चला लेते हैं । गाँव में सरकारी स्कूल तो हैं पर सरकार नहीं है ।

बात गवर्नमेंट इन्टर कालेज बनचूरी की है। इत्तेफाक की बात है कि वहां के  एक अध्यापक से पता चला कि स्कूल में कंप्यूटर खराब पड़ें हैं । फ़ेसबुक पर मेरी पोस्ट से उन्हें पता चला कि मैं बनचूरी से हूँ । सोचा होगा कुछ कर पाऊंगा।अब तक तो आप लोग मेरे माध्यम से जान ही गये होंगे कि बनचूरी पट्टी मल्ला उदयपुर, यमकेश्वर ब्लाक, ज़िला पौडी गढ़वाल, उत्राखंड, भारत का एक गाँव है और वहाँ लखेडा लोग रहते हैं जो भारद्वाज ब्राह्मण जाति से हैं। यक़ीन न हो तो गूगल बाबा से पूछ कर तसल्ली कर सकते हैं।

बहरहाल विदेश मे हूँ सो कहा वापस आकर कुछ कर पाउँगा। बाद मे सोचा आज के इंटरनेट के ज़माने मे कहीं भी बैठे हों इच्छा हो तो काम किया या कराया जा सकता है। ह्वाट्सअप और फ़ेसबुक पर Lakhera Parivar of Utarakhand/Lakheras of
UK और यमकेश्वर जाग रहा है,  पर एक रिक्वेस्ट की कि हालात की तहक़ीक़ात करें और बतायें कि क्या किया जा सकता है। बनचूरी और रिखेडा के सदस्यों ने वादा किया कि जल्द ही पूरी जानकारी लेकर सूचित करेंगे। किसी ने कहा कि यह काम सरकार का है जिसके जबाब मे मैंने सलाह दी कि जो भी हो नुक़सान हमारे बच्चों का हो रहा है और जरूरत पड़े तो हम सब मिलकर समाधान निकाल लेंगे। सबने बात को सही ढंग से लिया, यह ख़ुशी की बात थी। इस बात को लगभग चार महीने हो गये।

हुआ तो कुछ नही पर Lakhera Parivar of Uttarakhand जो ७० गाँवों मे रहने वाले लखेडाओं का एक भव्य ग्रुप बना था, टूटने के कगार पर है। ग़ुलाम अली की गाई हुई ग़ज़ल की याद आ रही है। 'दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने, नाम आयेगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही'!!!!!  सुना  है रिखेडा वालों ने अपना अलग ग्रुप बना लिया है। बनचूरी वाले कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी अलग ग्रुप खडा कर दिया। आश्चर्य नही कि कुछ समय बाद ही रिखेडा और बनचूरी मे भी टूट कर अलग अलग ग्रुप बन जांय। आख़िर हैं तो एक ही वंस के। ख़ैर ग्रुप न होते तो न मैं होता न आप होते।

फिर याद दिलायी। कुछ हरकत हुयी। पता चला कि सरकार ने २००५ मे ह्विप्रो से चार कंप्यूटर ख़रीदे थे। कुछ समय बाद ख़राब हो गये, ठीक करवाये, फिर ख़राब हो गये और फ़िलहाल एक चल रहा है। सरकार से गुहार लगाई गई पर हुआ कुछ नही। सरकार ही सरकार है, पर सरकार नही। किसी भूतपूर्व छात्र ने यह भी बताया कि उसके समय मे कंप्यूटर टीचर ही नही था । कंप्यूटर रूम बंद ही रहता था। जब टीचर ही नही तो कंप्यूटर का क्या करेंगे। बात भी सही है। पर उनको शायद पता न हो कि कंप्यूटर ख़रीदने वाला सरकारी महकमा अलग होता  है और टीचर रखने वाला अलग और दोनों को पता नही होता कि कौन क्या कर रहा है। ख़रीदने वाले ने अपना काम जितना जल्दी हो सका, कर दिया, कमीशन का हिसाब हो गया बाकी जाने सरकारी सरकार। टीचर नियुक्त करने वाले को कोई जान पहचान या रिस्तेदारी मे कोई उपयुक्त उम्मीदवार नही मिला सो लटक रहा है। सरकारी माहौल मे सरकार चलाना कोई आसान काम है?

छपते छपते ख़बर यह है कि गाँव के एक नवयुवक जो कंप्यूटर का काम जानते हैं और कंप्यूटर टीचर भी हैं आने वाली अष्टमी पूजा पर गाँव जायेंगे और स्तिथि का ज़ायक़ा लेंगे और हे सके तो ठीक भी कर देंगे। उस समय शायद स्कूल भी छुट्टियाँ मना रहा होगा। अच्छा हो पहले से बात करके रखें । कहीं ऐसा न हो कि दरवाज़े बंद मिलें। साथ मे यह भी जरूरी है कि सरकारी परमिशन भी ले लें क्योंकि सरकारी काम मे बिना पूछे हाथ डालना भी ख़तरे से बाहर नही है।

इस पोस्ट को यहाँ इसलिये डाला कि जी आई सी बनचूरी जैसी हालत लगभग उत्तराखंड के हर स्कूल की हो सकती है, या है। टीचर है तो सामान नही, सामान है तो टीचर नही, दोनों हैं तो सीखने वाले नही। सीखने वाले तो इंतज़ार नही कर सकते। शहरों मे जायेंगे ही। और फिर मत कहना कि वापस नही आये। गवर्मेट और गवर्नैंस तब तक अलग नही होगी जब तक शक्ति का विकेंद्रीकरण नही होगा। अगर स्कूल के प्रधानाचार्य को कंप्यूटर ख़रीदने और कंप्यूटर टीचर रखने का अधिकार नही तो स्कूल के ठीक ढंग से चलने का ज़िम्मा उनका कैसे हो सकता है? सब काम शिक्षा मंत्री ही करना चाहते हैं तो यही होगा।

आज शहरों मे कंप्यूटर की शिक्षा आम बात है। स्कूल मे कंप्यूटर , घर मे कंप्यूटर । गाँव मे पढ़े यही बच्चे जब शहर मे आते हैं तो अपने आप को असहाय पाते हैं। उनको लगता है उनकी १२वीं की डिग्री बस एक काग़ज़ है। न दो शब्द अंग्रेज़ी के बोल पाते, न कंप्यूटर का ज्ञान, न कोई रसूक। १२ वीं पास शहरों के बच्चे जहाँ किसी काल सेंटर मे तुरंत जगह पा लेते हैं, गाँव के बच्चे किसी बनिये के यहाँ सामान पैक कर रहे होते हैं।

कुछ साहसी लोग जैसे पीजीजी से जुड़े लोग अपने स्तर पर इस काम मे लगे हैं पर साधनों की कमी के कारण उनका दायरा सीमित है। बनचूरी तक कहाँ पहुँच पायेंगे। वहाँ का बोझ तो हमको ही उठाना होगा।



Tuesday, September 12, 2017

सत्ता के गलियारे से

सत्ता के गलियारे से

पांच साल यूँ ही खिशक  जायेंगे, मुझे मालूम है,
वादे जो किये, निभाने भी होते हैं, मुझे मालूम है,
मित्रों आप तो बस यूँ ही परेशान हो, नाराज हो,
हम फिर लौट कर जरूर आयेंगे, मुझे मालूम है।

लोगों का क्या? कहतें हैं, सुनते हैं, भूल जाते हैं,
समय का क्या आता है, जाता है, फिर आ जाता है,
गले में हरी घास बंधी हो, ठीक से हाँकने वाला हो,
तो ऊंट भी तपते रेगिस्तान में  दौड़ता चला जाता है ।

लंबी लड़ाई में सत्ता को हथियाने में समय लगता है,
मिलने जाय तो सत्ता का सुख भोगने में समय लगता है,
वादों की याद  दिलाना सहज है लेकिन मेरे मित्रों,
हर किसी वादे  को निभाने में भी तो समय लगता है ।

फिर जल्दी किस बात की, सब होता है, हो जायेगा,
हमसे पहले भी तो यही हुआ, होगा, हो जायेगा,
यह इल्जाम लेकर कि हम उनसे अलग साबित ना हुए,
आप ही बताइए कहाँ, क्यों और कैसे जिया जायेगा।

हरि लखेड़ा
सितम्बर 2017












Yours DIGRESSIVELY

YOURS DIGRESSIVELY

I must do it. I must talk to him. I know where I can find him. But let me first  try his home. No,  not home, his mother would be sitting there in her black maxi waiting for someone to pour her grief on. Her husband died only last  month. Died is a respectable version of suicide. Raghav  was a good man, no point calling a dead man names. Above all, it was not his fault that people trusted him with their hard earned savings for better returns.  It was their greed and his over ambitious plans. But that for later. For now  let me find him.

He is a good boy in bad company.  Raghav had high hopes of him. He is the only son. With little help and counselling he will be back on tracks. It happens in bad times. Failure of his father's badly thought out project followed by humiliations by his own friends and then death, confused his mental faculties. He has taken to drugs and fallen into bad company. In the process had sold his mothers ornaments and family assets whatever was left of it.

We have laws with flaws. True even God's creation is not flawless. Perfection can allude anybody. Law makers always keep some loopholes, just in case one of their own is afflicted and needs a way out. Lawyers add spice to the dish, that is what they are trained for.

Raghav was a family friend. A born businessman with great ideas, which appeared promising in the beginning but fatal in the end. That does not take ingenuity from him. A rotten apple is always fresh in the beginning. He was not greedy for himself. He wanted to help. Speculating is not a crime, is it?  He failed himself and he failed who trusted him. That's not a crime. The finishing line can be bewitching.

He mostly lingers in the community park. He is not here either. But then he is a druggist! I will have to explore more hideouts. I must reach him. It is not too late. His mother needs him. He needs himself. We, his father's friends need him. He can be the savior. He should be the savior. Each one of can be a savior. Need not wait for the ultimate savior, the incarnation. That takes a long , very long time.

But hold on, why am I getting so generous? It is his or his mother's problem. I am already tired. In any case what  is the guarantee he will listen to me? Why should he? I was  a mute spectator when his father was writing his future. I knew it was dark yet I didn't stop him. He fell down and I was watching. I didn't even report for fear of accomplice.

But he doesn't know it. He was not there. He need not trust me. I have a duty to perform. The government is useless. Elections come and go and we elect the same rouges with different names and faces. In such difficult times, the government must help the mother in the  mourning. But no, they have more important issues to solve. What can be more important that the tragedy that has fallen on this family.

This damn scooter is again cracking. Every second day it is at the mechanic shop. It's old but not that old. People have decades old scooter and cycles in perfect running condition. All cheats.













Universal Language of Love and Hate.

Universal Language of Love and Hate. Sometimes, I wonder, why humans developed languages or even need them? If we look back, we will realize...