Wednesday, September 13, 2017

सरकारी सरकार

सरकारी सरकार और जी आई सी बनचूरी के कंप्यूटर

पता नहीं कि गवर्नमेंट और गवर्नैन्स का सही अनुवाद है कि नहीं पर बहरहाल इसी से काम चला लेते हैं । गाँव में सरकारी स्कूल तो हैं पर सरकार नहीं है ।

बात गवर्नमेंट इन्टर कालेज बनचूरी की है। इत्तेफाक की बात है कि वहां के  एक अध्यापक से पता चला कि स्कूल में कंप्यूटर खराब पड़ें हैं । फ़ेसबुक पर मेरी पोस्ट से उन्हें पता चला कि मैं बनचूरी से हूँ । सोचा होगा कुछ कर पाऊंगा।अब तक तो आप लोग मेरे माध्यम से जान ही गये होंगे कि बनचूरी पट्टी मल्ला उदयपुर, यमकेश्वर ब्लाक, ज़िला पौडी गढ़वाल, उत्राखंड, भारत का एक गाँव है और वहाँ लखेडा लोग रहते हैं जो भारद्वाज ब्राह्मण जाति से हैं। यक़ीन न हो तो गूगल बाबा से पूछ कर तसल्ली कर सकते हैं।

बहरहाल विदेश मे हूँ सो कहा वापस आकर कुछ कर पाउँगा। बाद मे सोचा आज के इंटरनेट के ज़माने मे कहीं भी बैठे हों इच्छा हो तो काम किया या कराया जा सकता है। ह्वाट्सअप और फ़ेसबुक पर Lakhera Parivar of Utarakhand/Lakheras of
UK और यमकेश्वर जाग रहा है,  पर एक रिक्वेस्ट की कि हालात की तहक़ीक़ात करें और बतायें कि क्या किया जा सकता है। बनचूरी और रिखेडा के सदस्यों ने वादा किया कि जल्द ही पूरी जानकारी लेकर सूचित करेंगे। किसी ने कहा कि यह काम सरकार का है जिसके जबाब मे मैंने सलाह दी कि जो भी हो नुक़सान हमारे बच्चों का हो रहा है और जरूरत पड़े तो हम सब मिलकर समाधान निकाल लेंगे। सबने बात को सही ढंग से लिया, यह ख़ुशी की बात थी। इस बात को लगभग चार महीने हो गये।

हुआ तो कुछ नही पर Lakhera Parivar of Uttarakhand जो ७० गाँवों मे रहने वाले लखेडाओं का एक भव्य ग्रुप बना था, टूटने के कगार पर है। ग़ुलाम अली की गाई हुई ग़ज़ल की याद आ रही है। 'दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने, नाम आयेगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही'!!!!!  सुना  है रिखेडा वालों ने अपना अलग ग्रुप बना लिया है। बनचूरी वाले कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी अलग ग्रुप खडा कर दिया। आश्चर्य नही कि कुछ समय बाद ही रिखेडा और बनचूरी मे भी टूट कर अलग अलग ग्रुप बन जांय। आख़िर हैं तो एक ही वंस के। ख़ैर ग्रुप न होते तो न मैं होता न आप होते।

फिर याद दिलायी। कुछ हरकत हुयी। पता चला कि सरकार ने २००५ मे ह्विप्रो से चार कंप्यूटर ख़रीदे थे। कुछ समय बाद ख़राब हो गये, ठीक करवाये, फिर ख़राब हो गये और फ़िलहाल एक चल रहा है। सरकार से गुहार लगाई गई पर हुआ कुछ नही। सरकार ही सरकार है, पर सरकार नही। किसी भूतपूर्व छात्र ने यह भी बताया कि उसके समय मे कंप्यूटर टीचर ही नही था । कंप्यूटर रूम बंद ही रहता था। जब टीचर ही नही तो कंप्यूटर का क्या करेंगे। बात भी सही है। पर उनको शायद पता न हो कि कंप्यूटर ख़रीदने वाला सरकारी महकमा अलग होता  है और टीचर रखने वाला अलग और दोनों को पता नही होता कि कौन क्या कर रहा है। ख़रीदने वाले ने अपना काम जितना जल्दी हो सका, कर दिया, कमीशन का हिसाब हो गया बाकी जाने सरकारी सरकार। टीचर नियुक्त करने वाले को कोई जान पहचान या रिस्तेदारी मे कोई उपयुक्त उम्मीदवार नही मिला सो लटक रहा है। सरकारी माहौल मे सरकार चलाना कोई आसान काम है?

छपते छपते ख़बर यह है कि गाँव के एक नवयुवक जो कंप्यूटर का काम जानते हैं और कंप्यूटर टीचर भी हैं आने वाली अष्टमी पूजा पर गाँव जायेंगे और स्तिथि का ज़ायक़ा लेंगे और हे सके तो ठीक भी कर देंगे। उस समय शायद स्कूल भी छुट्टियाँ मना रहा होगा। अच्छा हो पहले से बात करके रखें । कहीं ऐसा न हो कि दरवाज़े बंद मिलें। साथ मे यह भी जरूरी है कि सरकारी परमिशन भी ले लें क्योंकि सरकारी काम मे बिना पूछे हाथ डालना भी ख़तरे से बाहर नही है।

इस पोस्ट को यहाँ इसलिये डाला कि जी आई सी बनचूरी जैसी हालत लगभग उत्तराखंड के हर स्कूल की हो सकती है, या है। टीचर है तो सामान नही, सामान है तो टीचर नही, दोनों हैं तो सीखने वाले नही। सीखने वाले तो इंतज़ार नही कर सकते। शहरों मे जायेंगे ही। और फिर मत कहना कि वापस नही आये। गवर्मेट और गवर्नैंस तब तक अलग नही होगी जब तक शक्ति का विकेंद्रीकरण नही होगा। अगर स्कूल के प्रधानाचार्य को कंप्यूटर ख़रीदने और कंप्यूटर टीचर रखने का अधिकार नही तो स्कूल के ठीक ढंग से चलने का ज़िम्मा उनका कैसे हो सकता है? सब काम शिक्षा मंत्री ही करना चाहते हैं तो यही होगा।

आज शहरों मे कंप्यूटर की शिक्षा आम बात है। स्कूल मे कंप्यूटर , घर मे कंप्यूटर । गाँव मे पढ़े यही बच्चे जब शहर मे आते हैं तो अपने आप को असहाय पाते हैं। उनको लगता है उनकी १२वीं की डिग्री बस एक काग़ज़ है। न दो शब्द अंग्रेज़ी के बोल पाते, न कंप्यूटर का ज्ञान, न कोई रसूक। १२ वीं पास शहरों के बच्चे जहाँ किसी काल सेंटर मे तुरंत जगह पा लेते हैं, गाँव के बच्चे किसी बनिये के यहाँ सामान पैक कर रहे होते हैं।

कुछ साहसी लोग जैसे पीजीजी से जुड़े लोग अपने स्तर पर इस काम मे लगे हैं पर साधनों की कमी के कारण उनका दायरा सीमित है। बनचूरी तक कहाँ पहुँच पायेंगे। वहाँ का बोझ तो हमको ही उठाना होगा।



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