आज भी जाण?
१९४०-५० क बीच माँ जन्म्यां लोग ख़ास करीक जु वे टाइम पहाड मा रै ह्वाल और जौन वख स्कूल जाण शुरू के ह्वालू। पाँच - छ: सालक बच्चा ताई स्कूल भेजुणु क्वी मज़ाक़ नी च। शहरी बात अलग च। साफ सुथरी यूनीफार्म, गल माँ टाइ लटकीं, कंधा माँ ख़ूबसूरत बैग जे मा पाणी क बोतल रखणैकी अलग जगा च, और एक सुंदर सी टिफ़िन बाक्श क भितर मन पसंद स्नैक्स । घरै क सामिणी बस ऐ जांद। घुर करीक बस स्कूलम ली जांद। स्कूलम प्यार से बात करणी वाली टीचर, ढेर सारी खिलौना, दीवारों पण बढिया बढिया पेंटिंग, झुलणौं कुण झूला। एतना सब ह्वे कन भी बच्चा ताई रोज़ स्कूल भेजण माँ क्या पापड़ बेलण पडदन सब ताई पता च।
सब गांवों की बात त मी नी जाणदू पर बनचूरी माँ क्या हूंद छाई वेक कुछ कुछ याद अब भी च। पिताजी क ज्यादा बोल्णू पर माँ न हिम्मत करीक स्कूल भेजणक इरादा त कर पर सोच माँ पड़ ग्याई कि पता नी क्या ह्वालू। पैल दिन त दगड माँ खुद ग्यै। एक डेढ़ मीलैकि उकाल् छ: सालूक बच्चा! ख़ैर कनी कैक चल त ग्यै। दूसर दिन पल्या पुत्यैक गांवक बच्चौंक दगड भ्याज।
सवाल एक ही 'आज भी जाण?' जबाब भी एक ही 'हाँ आज भी जाण और रोज़ जाण'!
रोज की त पता नी पर सुबेर सुबेर कनी कैक हाथ मुख ध्वैक, रातैकी बचीं रोटी ख़ैकि, जाण शुरू कर त दै पर वख जैक कन करण क्या च पता नी पौड। रोज़ जाओ, लाइन माँ खड्वैक प्रार्थना क नाम पर होंठ घुमाव, चटाइ पर बैठीक अ आ इ ई ब्वालीक छुट्टी की घंटीक इंतज़ार करणैइ रौ। जनी भरशा दा कुण मास्टर जीक इशारा ह्वौ और घंटी बजाणै कुण उठ तब तक मी कमरा से भैर। स्कूल आण माँ अगर एक घंटा लगी ह्वालू त जाण माँ ज्यादा से ज्यादा दस मिनट।
बहुत ह्वे ग्ये। 'आज भी जाण ' अब नी जाण' मा कब घुरे ग्ये पता त नि चलो पर एक दिन सारी कपड़ा उतारीक खडु ह्वे ग्यूं। नी जांणै। जब पिछ्वाड मा चार लग्गीन त नानी याद ऐ ग्ये। फिर क्या छै जाणी पड़। द्वी साल उकाल् उंधार नापीक, पाटुलू - बखुल्या ढ्वेक द्वी दिनी चार तक ही ही रै ग्यूं। द्वी धमाक पिताजी न मारीन और ली गेन अपर दगड कोटद्वार।
फिर कभी 'आज भी जाण' या 'आज नी जाण' या कपड़ा उतारणों क सवाल ही नी उठ।
१९४०-५० क बीच माँ जन्म्यां लोग ख़ास करीक जु वे टाइम पहाड मा रै ह्वाल और जौन वख स्कूल जाण शुरू के ह्वालू। पाँच - छ: सालक बच्चा ताई स्कूल भेजुणु क्वी मज़ाक़ नी च। शहरी बात अलग च। साफ सुथरी यूनीफार्म, गल माँ टाइ लटकीं, कंधा माँ ख़ूबसूरत बैग जे मा पाणी क बोतल रखणैकी अलग जगा च, और एक सुंदर सी टिफ़िन बाक्श क भितर मन पसंद स्नैक्स । घरै क सामिणी बस ऐ जांद। घुर करीक बस स्कूलम ली जांद। स्कूलम प्यार से बात करणी वाली टीचर, ढेर सारी खिलौना, दीवारों पण बढिया बढिया पेंटिंग, झुलणौं कुण झूला। एतना सब ह्वे कन भी बच्चा ताई रोज़ स्कूल भेजण माँ क्या पापड़ बेलण पडदन सब ताई पता च।
सब गांवों की बात त मी नी जाणदू पर बनचूरी माँ क्या हूंद छाई वेक कुछ कुछ याद अब भी च। पिताजी क ज्यादा बोल्णू पर माँ न हिम्मत करीक स्कूल भेजणक इरादा त कर पर सोच माँ पड़ ग्याई कि पता नी क्या ह्वालू। पैल दिन त दगड माँ खुद ग्यै। एक डेढ़ मीलैकि उकाल् छ: सालूक बच्चा! ख़ैर कनी कैक चल त ग्यै। दूसर दिन पल्या पुत्यैक गांवक बच्चौंक दगड भ्याज।
सवाल एक ही 'आज भी जाण?' जबाब भी एक ही 'हाँ आज भी जाण और रोज़ जाण'!
रोज की त पता नी पर सुबेर सुबेर कनी कैक हाथ मुख ध्वैक, रातैकी बचीं रोटी ख़ैकि, जाण शुरू कर त दै पर वख जैक कन करण क्या च पता नी पौड। रोज़ जाओ, लाइन माँ खड्वैक प्रार्थना क नाम पर होंठ घुमाव, चटाइ पर बैठीक अ आ इ ई ब्वालीक छुट्टी की घंटीक इंतज़ार करणैइ रौ। जनी भरशा दा कुण मास्टर जीक इशारा ह्वौ और घंटी बजाणै कुण उठ तब तक मी कमरा से भैर। स्कूल आण माँ अगर एक घंटा लगी ह्वालू त जाण माँ ज्यादा से ज्यादा दस मिनट।
बहुत ह्वे ग्ये। 'आज भी जाण ' अब नी जाण' मा कब घुरे ग्ये पता त नि चलो पर एक दिन सारी कपड़ा उतारीक खडु ह्वे ग्यूं। नी जांणै। जब पिछ्वाड मा चार लग्गीन त नानी याद ऐ ग्ये। फिर क्या छै जाणी पड़। द्वी साल उकाल् उंधार नापीक, पाटुलू - बखुल्या ढ्वेक द्वी दिनी चार तक ही ही रै ग्यूं। द्वी धमाक पिताजी न मारीन और ली गेन अपर दगड कोटद्वार।
फिर कभी 'आज भी जाण' या 'आज नी जाण' या कपड़ा उतारणों क सवाल ही नी उठ।
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