Sunday, April 15, 2018

Bhaiyya bye bye



Hari Lakhera


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From: Hari Lakhera <hplakhera@yahoo.co.in>
To: Hari Prasad Lakhera <hplakhera@yahoo.co.in>
Sent: Sunday, 15 April, 2018, 12:25:55 PM IST
Subject: भैया बाई बाई

भैया बाई बाई 

विजय उम्र के उस मोड़ पर था जब सारी दुनिया खूबसूरत लगती है। खासकर  औरतें, चाहे वो टीचर हो या कोई रिश्तेदार  । साथ पढ़ने वाली कोई हम उम्र बालिका हो तो बेहतर। बालिका सुंदर हो तो कहने ही क्या। और अगर बालिका भी मीठी मीठी बातें करने में माहिर हो तो सोने पे सुहागा । हर समय यही ख्याल कि कब दिखाई देगी। मेरा नाम जोकर का चिन्तू याद आया? 

दसवीं कक्षा का छात्र था, विजय । छोटा-सा कस्बा ।  सारी स्कूल में गिनती की लड़कियां ही पढ़ती  थीं । समय ही  ऐसा था । पढ़ लिखकर क्या करेगी । घर ही तो संभालना है । खाना बनाने,  कढाई बुनाई,  साफ सफाई,  लालन-पालन में जिंदगी बितानी है । चिठ्ठी पत्री लिखना पढना सीख  जाय वही काफी है । घर घर में शिलाई ऊषा ने चलाई वाली तर्ज पर लडकियों को पाल पोश कर बड़ा किया जाता था ।

पार्वती  उर्फ़ पर्तू भी  उसी दौर की थी। घर वाले स्कूल इस लिए नहीं भेज रहे थे कि पढ़ लिखकर  अफसर बनेगी । जैसे ही ठीक ठाक रिस्ता मिल जाय, हाथ पीले कर के  ससुराल बिदा कर देंगे । तब तक दो चार  अक्षर  और सीख जायेगी,  घर बैठ कर फालतू दिमाग चाटेगी,  स्कूल भेज दो। घर में  अकेली संतान । सबकी चहेती, कुछ ज्यादा ही । ज्यादा लाड प्यार से बिगड़ने का डर तो रहता है पर पर्तू ऐसी लगती नहीं थी।

संयोग की बात कि विजय की कक्षा मे चालीस लड़को के बीच बस एक ही लडकी । संयोग ही था कि पर्तू भी आगे की उसी बेंच पर जिस पर विजय । दोनों का स्वभाव  अलग । एक पढ़ाई में मशगूल,  दूसरी चपड चपड में । ए तो शुक्र था कि टीचर के रहते भीगी बिल्ली बन जाती।  पारिवारिक परिवेश भी  अलग-अलग । एक मध्यवर्गीय पांच भाई बहनों में,   दूसरी पैसे वाले घर की  अकेली लाडली। एक के पास गिनती के कमीज़ पैंट,  दूसरी हर रोज नई पोशाक में । 


शुरू शुरू में तो कैसे हो, क्या हाल है तक ही चला पर धीरे-धीरे झिझक खुलने लगी । फिर पढाई में भी मदद मागने लगी। विजय बड़ी खुशी से सारे नोट्स थमा देता । एक दिन जब फीस लाना भूल गयी तो कहने लगी मेरे घर जाकर ले आऔ। विजय ने कहा वहां मुझे कौन जानता है,  जो मेरा विश्वास करेगा  और पैसे पकडा देगा। बोली, मेरे घर सब तुमको जानते हैं,  मैंने सब बता दिया है कि तुम मेरे दोस्त हो। शक़्ल से भी जानते हैं ।कहना पर्तू ने भेजा है । अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मुझे उसका घर का नाम कैसे पता चला । पहली बार सुना तो खूब हंसा, पर फिर यह सोचकर कि नाराज़ न हो जाय, कहा बडा प्यारा नाम है । खैर घर गया और पैसे लाकर स्कूल  आफिस मे जमा भी कर दिये ।


फिर क्या था । समय निकलता गया। प्यार  अंदर ही अंदर फलता-फूलता गया । बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । पढ़ने में दिल कम और इंतजार में ज्यादा । साथ ही यह भी डर कि इंप्रेशन जमाने के लिए क्लास में अब्बल रहना होगा,  यही तो  एक प्लस प्वाइंट है । सो दिन के समय जागती आँखों में ख्वाब  और रात में देर देर तक जाग कर पढाई। उसके घर के  आसपास फटकते रहना  और साथ में यह भी डर कि कहीं देख न ले और देख लिया तो क्या बहाना बनाऊंगा । 

कुछ शारिरीक रख रखाव की तरफ भी ध्यान जाने लगा । रोज धुले धुलाए कपड़े बदल कर  आना । भाई बहन कुछ कहते तो बस यूँ ही कहकर टाल देता । मां डांटती तो कह देता टीचर ने रोज कपड़े बदल कर  आने को कहा है । प्यार में थोड़ा बहुत झूठ तो चलता ही है । 

ऐसा नहीं कि पर्तू दूसरे लड़कों से बात नहीं करती थी। सबसे हाय हैलो तो चलता ही था । यहां तक तो ठीक था पर  अगर कुछ लंबा खिन्चता नजर  आता तो चिढ़ जाता,  गुस्सा भी  आता,  जलन भी होती, डर भी लगता कि कहीं फिसल न जाए । पर करता भी क्या,  हक तो जमा नहीं सकता था ।

साल कब और कैसे निकल गया पता ही नहीं चला । फाइनल परीक्षा सर पर आ गई । परीक्षा की तैयारी के लिए छुट्टियाँ शुरू । सब तैयारी में लग गए । स्कूल में मिलने का सवाल ही नहीं,  घर से बाहर दिखाई नहीं देती । ऊपर से परीक्षा का भूत। आज की तरह मोबाइल तो थे नहीं जो बतिया लेते ।

परीक्षा भी पार हो गई ।  अब परीक्षा फल की इंतजार  और पास के कस्बे  में आगे पढ़ने के लिए  एडमिशन की तैयारी । गर्मियों की छुट्टियाँ ख़त्म हुईं,  रिजल्ट  आया,  पास के कस्बे में   एडमिशन  हुआ,  पर्तू से  विदाई ली,  फिर मिलने का वादा किया। पर्तू फ़ेल हो गई थी । कोई मलाल भी नहीं । पास हो भी  जाती तो क्या होता । कस्बे में आगे स्कूल नहीं, पर्तू दूसरी जगह जा नहीं सकती। पढ़ाई शेष । कपड़ो और किताबों से भरा संदूक उठा कर विजय चला नयी दुनिया में । 

समय तो ठहरता नहीं है । कभी वापस कस्बे में  आया भी तो पर्तू से मुलाकात नहीं हुई । घर जाकर मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । यही सोचकर रह गया कि पता नहीं क्या सोचेगी। शायद शादी ही हो गई हो।  ग्यारहवीं की परीक्षा का समय था,  होम एग्जामिनेशन, ज्यादा बोझ नहीं । स्कूल जा रहा था तो देखा कि पर्तू कुछ लडकियों के साथ नास्ते 
की दुकान पर नास्ता कर रहे है । पहले तो विश्वास नहीं हुआ,  फिर गौर से  देखा । हाँ है तो वही। चाहता तो  था कि सीधे जाकर मिल ले पर बाकी लड़कियां क्या कहेंगी सोचकर रुक गया  और इंतजार करता रहा कि उसकी नजर पड़े,  आँखे मिले, पहचान ले तो बात बने । 

ऐसा ही हुआ । नजर मिली।  अरे विजय तुम? पास आई। बताया होम साइंस के प्रेकटिकल देने कन्या विद्यालय में  आई है । साथ ही हंसी  और बोली इससे बार पास होकर रहेगी ।बताया परीक्षा के बाद शाम की बस से सबके साथ लौट जायेगी । विजय के बारे में पूछा । बोली लडके हो, पढकर अफसर तो बनोगे ही। विजय ने शाम को बस अड्डे पर मिलने का वादा किया । 

बस के टाइम से पहले ही पहुंच गया, कहीं चली न जाए । एक घंटे बाद सब लडकियों के साथ पर्तू  आई। सामान बस की छत पर रखवाया । पर्तू बस में  खिड़की वाली सीट पर बैठ गयी। खिसकती बस से हाथ हिलाते हुए बोली भैया बाई बाई । आओ तो मिलना ज़रूर ।

शायद साथ की लड़कियां  कुछ और न समझ ले इसलिए भैया कहा होगा । पहले तो नाम से ही बुलाती थी । या फिर  उस के दिल में विजय के लिए ओ ख्याल नहीं जो विजय के  दिल में  उसके लिए था ।

विजय ने  कभी बताया भी नहीं,  उसको क्या सपना  आता ?

Tuesday, April 10, 2018

Dande Haqiqat



दंडे हकीकत
बात 1956-57 की है । पी आई सी कोटद्वार में दसवीं कक्षा का छात्र था ।  पता नहीं क्यों पर क्लास के मोनीटर का भार मेरे नाजुक कंधों पर लाद दिया गया । मुझे लगा यह प्रधानाचार्य जी  और कक्षा अध्यायापक जी की मिलीभगत है । वरना क्लास मानिटर तो सलमान खान जैसा दबंग होना चाहिए जो सारी क्लास को अपनी दबंगीयत से काबू में रखने के काबिल हो और साथ ही खुद  अपनी दबंग हरकतों से क्लास को हडकाने से बाज़  आये । एक पंथ दो काज ।

पर मेरे से तो न पंथ की संभावना थी न काज की। पढाकू, रट्टू, उपनाम कमा चुका था । दोस्त भी  इसी प्रकार के । चार पांच का ग्रुप जो 90 % समय  पढ़ने के लिए  और शेष खेल में देते ।  क्लास में पहली पंक्ति पर बिराजमान, क्लास शुरू होने से पहले । अध्यापकों के चहेते ।

इसी बीच प्रधानाचार्य जी की भतीजी क्लास की सदस्या बनीं। पास में ही कन्या विद्यालय था पर वहां न जाकर लड़को के स्कूल में दाखिल। पता चला कि पिछले वर्ष मैट्रिक की परीक्षा में रह गयी थीं  और इस वर्ष प्राइवेट छात्रा के रूप मे किस्मत आजमाने के इरादे से  और प्रधानाचार्य जी की शिफारिस पर क्लास में बैठने की  अनुमति पा गयीं थीं । हमको क्या? क्लास को तो कुछ नया चाहिए था सो मिल गया ।

क्लास तीन महीने पार कर गई थी । कम से कम क्लास के अंदर तो शांति थी । लगता था जैसे  अचानक ही  महान बदलाव  आ गया था । लेकिन यह तो लल बिफोर द स्टोर्म यानी तूफान से पहले की शांति थी । सारी क्लास में 40 लड़को के बीच एक ही लडकी हो तो अनुशासन खुद  आ जाता है ।

स्कूल के नियम के अनुसार स्कूल में देर से आना या न आना या कोई नियम के विरुद्ध हरकत की सजा आठ आने का दंड था। उस समय आठ आने में  एक सेर आटा या आधा सेर दूध मिल जाता था । मतलब  आठ आने की बड़ी कीमत थी। पैसे वाले घर के लड़के तो  अपनी पाकेट मनी  से चुका देते  और घर में पता भी नहीं चलता पर गरीब बच्चों पर यह दोहरी मार थी। पहले तो स्कूल में डांट पडती फिर घर में । साथ में मां बाप पर भी बोझ। हम इसका दबी जुबान में विरोध तो करते पर नियम तो नियमबदल तो नही सकते थे ।  आज की तरह हाय हाय  के नारे भी नहीं लगा सकते थे ।स्कूल से ही बाहर कर दिये जाते ।

छात्रा सभ्रांत  घर कीसुन्दर हाव भाव स्वभाव, और ऊपर से प्रधानाचार्य जी की भतीजी । आगे की तीन सीट वाली बेंच पर मेरे दाहिने बिठा दिया । बाईं तरफ मेरा एक पढाकू दोस्त ।सब ठीक चल रहा था । खाली पीरियड में जब जायादातर लड़के बाहर होते हम क्लास में अगले पीरियड की किताब पलट रहे होते । कभी कभी  इधर-उधर की बातें भी कर लेते ।

उस दिन कक्षा  अध्यापक के किसी काम के कारण क्लास में कुछ  देर से पहुँचा। पूरी क्लास में हंगामा बरपा था। अध्यापक भी नहीं आये  थे।

क्लास में ब्लेक बोर्ड साफ करने का काम बारी बारी से होता था । अध्यापक के आने से पहले यह होना जरूरी था नहीं तो डाट पडती  और कशूरवार को पूरे वक्त बेंच पर खड़ा होना पडता ।

हुआ यह कि डस्टर किसी बैक बेंचर के पास था । जैसे ही उसने चाक और धूल से सना डस्टर पीछे से साफ करने वाले के पास  आगे फेंका ठीक  उसी समय  इस छात्रा का पदार्पण हुआ  और डस्टर  उनके मुखौटे पर जा लिपटा। सारा चेहरे पर कालीसफेद   धूल    फैल गयी। आव देखा ना ताव, भुनभुनाती हुई, तमतमाती हुई, सीधे प्रधानाचार्य के  औफिस की तरफ लपक गयी । जाते जाते कहीं गयी  'देख लुंगी '। पता चला कि शीकायत दर्ज करा कर घर चली गई ।

हम सब सदमे में । अब क्या? दीनू तो गया । बेचारा दीनू। नाम तो दीनदयाल था पर सब दीनू ही बोलते थे । गरीब परिवार का छात्र कैसे कर के यहाँ तक आया । पढ़ने में  औसत पर जैसा नाम वैसा गुण । कभी कभी हंस भी लेता था । थोड़ी देर बाद कक्षा  अध्यापक आये । सबसे पूछा किसने किया, दीनू बोला यह गलती  अनजाने में  उससे हुई। प्रधानाचार्य के पास पेश किया गया और 5 रुप्या फाइन।

अगले दिन छात्रा तो  आई पर दीनू नहीं । कहाँ से  लाता 5 रुप्या? अगले दिन भी नहीं  आया । अब तो कुछ करना होगा। छात्रा से कहा कुछ करो वरना हम चुप नहीं रहेंगे । तय हुआ सब मिलकर प्रधानाचार्य के पास जाकर गूहार लगायेंगे । तो पढाकू ग्रुप और छात्रा चल पड़े । अब  नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर ।

हमारे कुछ कहने से पहले छात्राने ही कहा कि दीनू से  अनजाने में गलती हो गई  और उसे माफ किया जाय। हम गर्दन हिलाते रहे । प्रधानाचार्य पिघले और माफ़ भी कर दिया।

न जाने क्यों मुझे लगा कि हम इसके लिए नहीं  आये । हमको तो सिस्टम बदलना होगा । बड़ी हिम्मत करके कहा  ' सर 5 रुप्या तो हम जोड़ ही लेते और दीनू भी  आ जाता पर आगे का क्या? '

प्रधानाचार्य ने पूछा  और क्या चाहिए? सबने कहा  आर्थिक दंड से  छुट्टी । गरीब परिवारों के पास बड़ी हिम्मत करके फीस का इंतजाम होता है दंड कहाँ से देगे। चाहें तो कोडे मार दीजिएमुर्गा बना दीजिये ।  आर्थिक दंड मत दीजिये और क्लास से बाहर मत कीजिये ।

अगले दिन प्रधानाचार्य जी ने चपरासी को भेज कर बुलाया । स्कूल के पास से नहर गुजरती थी । वहीं पास बैठने का इशारा किया ।  पीठ थपथपाई । बोले कुछ नहीं । ओ तो  उठकर चले गये । मैं अब तक वहीं बैठा हूँ । सर आप की पीठ थपथपाना ही आपका आशीर्वाद था । आप जरूर से देख रहे हैं और मुस्कुरा भी रहे हैं ।

स्कूलों में  अब शारीरिक दंड बर्जित है । आर्थिक दंड के कोई  मायने  ही नहीं ।  । दीनू बिना पढ़े पास हो जाता है , सुना है दसवीं तक। छात्राये    सुरक्षित नहींअध्यापक लाचार। हाँअध्यापकों को  यह सब झेलने  और बेबी सिटिग का मुआवजा अच्छा मिल जाता है ।

हरि लखेड़ा
अप्रैल 2018

Sunday, April 8, 2018

Uttarakhand Bhraman -Rishikesh-Dehradun


उत्तराखंड भ्रमण -३ ऋषीकेश -देहरादून
बनचुरी और किमसार  के दौरे के बाद ऋषिकेश पहुंचते ही गढ़वाली दम तोड़ने लगती है. इस लिए मैं भी देशी में रम जाता हूँ. ऐसा नहीं की गावों में देशी नहीं बोली जाती पर प्लेन्स में आती ही हर पहाड़ी देशी बोलने लगता है. ऐसा भी नहीं की प्लेन्स में आकर वो गढ़वाली भूल जाता है पर माहौल का तकाजा तो निभाना ही पड़ता है.
बनचुरी और किमसार में गढ़वाली ही बोली इस लिए गढ़वाली  में पहले दो एपिसोड लिखे. अब देशी बोलना पद रहा तो देशी में ही लिखना पड़ेगा न. अब तक नहीं समझ पाया की हिंदी को गढ़वाल में देशी क्यों बोलते हैं. किसी को पता हो तो प्रकाश डालें  प्लीज. देशी से मेरा मतलब 'देशी ' से नहीं है. लोग भी क्या क्या सोचने लगते हैं.
एक अनुभव और हुवा. बनचुरी से ऋषीकेश आते हुए बीच में कुछ लोगों से रास्ता पूछना पड़ा. मैं  गढ़वाली में पूछ  रहा था और वो देशी में जबाब दे रहे थे. सब नहीं , कुछ कुछ. सायद वो वहाँ के हो ही न पर लग तो नहीं रहा था. सुना है जब से उत्तराखंड बन है बाहर के लोग खासकर बिहार से बहुत आ गए हैं. आएंगे ही. अब घरों में लिंटर, बिजली, पानी के पाइप , टी वी , आदि का रिपेयर तो वही करेंगे.
खैर, जब तक स्थानीय लोग ये सब नहीं सीखेंगे, बाहर वालों पर निर्भर रहना ही होगा. पठाल लगाने वाले रहे नहीं, पठाल हैं भी नहीं। वैसे भी समय के साथ बदलाव जरूरी है.
ऋषिकेश में खास कुछ नहीं किया. मुनि की रेती के पास राम झूला के इस पार श्वर्ग आश्रम के सामने स्थित शिवानंद आश्रम से २५ साल पुराना नाता है। स्वामी चिदानंद जी के शंरक्षण और अशीर्बाद के तहत एक व्यक्तिगत कार्यक्रम हुवा था।  तभी से आजन्म सदस्य  हैं.आश्रम स्वामी शिवानंद जी ने बरसों पहले स्थापित किया था. एक छोटी से कुटिआ जिसे गुरु कुटीर के नाम से जनन जाता है से शुरू होकर आज एक बहुत बड़ा आश्रम है. इसके बारे में http://www.dlshq.org/ पर सब सूचना उपलब्ध है सो पाठकों का समय नहीं लूंगा. जब भी जाते हैं, जो अक्सर हर दूसरे साल होता ही है, मूल उद्देश्य कुछ पल शांत वातावरण बिताने का होता है. प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नहा धो कर समाधी मंदिर में मैडिटेशन, भजन, पूजा आरती के बाद शिवा मंदिर में  भजन, पूजा आरती, के बाद सात बजे अन्न कुटीर में चाय नास्ता।  थोड़ी देर भजन कुटीर जो २४ घंटे खुली रहती है में हाजरी के बाद समधि मंदिर में भजन, पूजा आरती। ११ बजे दिन का खाना और फिर मूड और समय हो तो लक्ष्मण झूला, स्वर्ग आश्रम आदि दर्शन. दिन में पुस्तकालय में भी जाया जा सकता है. दिन में ३ बजे चाय, अगर इच्छा हो तो. शाम ७ बजे सांय का खाना और कहने के बाद समाधी मंदिर में सत्संग, भजन, कीर्तन, पूजा आरती।  ९.३० बजे रात्रि विश्राम. रोज का लगभग यही कार्यकर्म होता है. अक्सर १० दिन के लिए जाते हैं पर इस बार सर एक रात के लिए ही जा पाए वरना हमेश की तरह हरिद्वार कनखल भी जाते. रहने का बहुत अच्छा प्रबंध है, खाना सात्विक।
देहरादून में लिखने के लिए कुछ खास नहीं है. तीन साल के बाद गया. सब तरफ फ्लाईओवर बन रहे हैं. डबल इंजन की सर्कार के पोस्टर देखे. लोगों ने मतलब भी समझा दिया कि केंद्र और राज्य सरकार मिलकर काम कर रही है. अच्छा है, यही चहल पहल, विकास, अंदर दूर दराज़ गाओं में में दिखनी चाहिए. जितना भी दो दिन में अंदर घूमकर देखा, लगा नहीं कि ऐसा है या होगा. खेत बंजर हैं, स्कूल में टीचर नहीं, हॉस्पिटल में डॉक्टर नहीं. मानवों से ज्यादा बन्दर दिखने को मिले. देखा तो नहीं पर सुना है बाघ कई बकरियों को हजम कर चूका है.
गैरशेन राजधानी बने तो भी क्या होगा? देहरदून की तरह ही बाहर वाले प्रॉपर्टी का व्यापर करेंगे. खेतिहर जमीन बिक कर कमर्शियल हो जाएगी. जमीन के दाम तो बढ़ेंगे ही पर उसका लाभ जिनकी जमीन जाएगी उनको मिलेगा की नहीं. लोगों को पक्के, अच्छे वेतन वाले जॉब मिलेंगे या नहीं, स्कूलों में टीचर ख़ुशी से जायेंगे या नहीं, हस्पतालों में डॉक्टर, नर्स ख़ुशी से जायेंगे या नहीं. कई सवाल हैं.
और हाँ , बेटी वाले गाओं के आस पास नौकरी करने वाले लड़कों के घर में अपनी बेटी देंगे या नहीं. क्या देहरादून, दिल्ली या फिर बम्बई और उससे भी दूर विदेश की ही सोचेंगे?
फिर मिलला। राजी ख़ुशी रैन।आपका ,
हरि प्रसाद लखेड़ा,
ग्राम , बनचुरी, पौड़ी गढ़वाल , उत्तराखंड
आज दिनांक ०५/०४/२०१८
हाल फिलहाल -दिल्ली.  


Universal Language of Love and Hate.

Universal Language of Love and Hate. Sometimes, I wonder, why humans developed languages or even need them? If we look back, we will realize...