उत्तराखंड भ्रमण -३ ऋषीकेश -देहरादून
बनचुरी और किमसार के दौरे के बाद ऋषिकेश पहुंचते ही गढ़वाली दम
तोड़ने लगती है. इस लिए मैं भी देशी में रम जाता हूँ. ऐसा नहीं की गावों में देशी
नहीं बोली जाती पर प्लेन्स में आती ही हर पहाड़ी देशी बोलने लगता है. ऐसा भी नहीं
की प्लेन्स में आकर वो गढ़वाली भूल जाता है पर माहौल का तकाजा तो निभाना ही पड़ता
है.
बनचुरी और किमसार में गढ़वाली ही बोली इस
लिए गढ़वाली में पहले दो एपिसोड लिखे. अब
देशी बोलना पद रहा तो देशी में ही लिखना पड़ेगा न. अब तक नहीं समझ पाया की हिंदी को
गढ़वाल में देशी क्यों बोलते हैं. किसी को पता हो तो प्रकाश डालें प्लीज. देशी से मेरा मतलब 'देशी ' से नहीं है. लोग भी क्या क्या सोचने लगते
हैं.
एक अनुभव और हुवा. बनचुरी से ऋषीकेश आते
हुए बीच में कुछ लोगों से रास्ता पूछना पड़ा. मैं
गढ़वाली में पूछ रहा था और वो देशी
में जबाब दे रहे थे. सब नहीं , कुछ कुछ. सायद वो
वहाँ के हो ही न पर लग तो नहीं रहा था. सुना है जब से उत्तराखंड बन है बाहर के लोग
खासकर बिहार से बहुत आ गए हैं. आएंगे ही. अब घरों में लिंटर, बिजली, पानी के पाइप , टी
वी , आदि का रिपेयर तो वही करेंगे.
खैर, जब
तक स्थानीय लोग ये सब नहीं सीखेंगे, बाहर वालों पर
निर्भर रहना ही होगा. पठाल लगाने वाले रहे नहीं, पठाल
हैं भी नहीं। वैसे भी समय के साथ बदलाव जरूरी है.
ऋषिकेश में खास कुछ नहीं किया. मुनि की
रेती के पास राम झूला के इस पार श्वर्ग आश्रम के सामने स्थित शिवानंद आश्रम से २५
साल पुराना नाता है। स्वामी चिदानंद जी के शंरक्षण और अशीर्बाद के तहत एक
व्यक्तिगत कार्यक्रम हुवा था। तभी से
आजन्म सदस्य हैं.आश्रम स्वामी शिवानंद जी
ने बरसों पहले स्थापित किया था. एक छोटी से कुटिआ जिसे गुरु कुटीर के नाम से जनन
जाता है से शुरू होकर आज एक बहुत बड़ा आश्रम है. इसके बारे में http://www.dlshq.org/
पर सब सूचना उपलब्ध है सो पाठकों का समय नहीं लूंगा. जब भी जाते हैं,
जो अक्सर हर दूसरे साल होता ही है, मूल
उद्देश्य कुछ पल शांत वातावरण बिताने का होता है. प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर
नहा धो कर समाधी मंदिर में मैडिटेशन, भजन, पूजा आरती के बाद शिवा मंदिर में
भजन, पूजा आरती, के
बाद सात बजे अन्न कुटीर में चाय नास्ता।
थोड़ी देर भजन कुटीर जो २४ घंटे खुली रहती है में हाजरी के बाद समधि मंदिर
में भजन, पूजा आरती। ११ बजे दिन का खाना और फिर मूड और समय
हो तो लक्ष्मण झूला, स्वर्ग आश्रम आदि दर्शन. दिन में
पुस्तकालय में भी जाया जा सकता है. दिन में ३ बजे चाय, अगर
इच्छा हो तो. शाम ७ बजे सांय का खाना और कहने के बाद समाधी मंदिर में सत्संग,
भजन, कीर्तन, पूजा
आरती। ९.३० बजे रात्रि विश्राम. रोज का
लगभग यही कार्यकर्म होता है. अक्सर १० दिन के लिए जाते हैं पर इस बार सर एक रात के
लिए ही जा पाए वरना हमेश की तरह हरिद्वार कनखल भी जाते. रहने का बहुत अच्छा प्रबंध
है, खाना सात्विक।
देहरादून में लिखने के लिए कुछ खास नहीं
है. तीन साल के बाद गया. सब तरफ फ्लाईओवर बन रहे हैं. डबल इंजन की सर्कार के
पोस्टर देखे. लोगों ने मतलब भी समझा दिया कि केंद्र और राज्य सरकार मिलकर काम कर
रही है. अच्छा है, यही चहल पहल, विकास,
अंदर दूर दराज़ गाओं में में दिखनी चाहिए. जितना भी दो दिन में अंदर घूमकर
देखा, लगा नहीं कि ऐसा है या होगा. खेत बंजर हैं,
स्कूल में टीचर नहीं, हॉस्पिटल में
डॉक्टर नहीं. मानवों से ज्यादा बन्दर दिखने को मिले. देखा तो नहीं पर सुना है बाघ
कई बकरियों को हजम कर चूका है.
गैरशेन राजधानी बने तो भी क्या होगा?
देहरदून की तरह ही बाहर वाले प्रॉपर्टी का व्यापर करेंगे. खेतिहर जमीन
बिक कर कमर्शियल हो जाएगी. जमीन के दाम तो बढ़ेंगे ही पर उसका लाभ जिनकी जमीन जाएगी
उनको मिलेगा की नहीं. लोगों को पक्के, अच्छे वेतन वाले
जॉब मिलेंगे या नहीं, स्कूलों में टीचर ख़ुशी से जायेंगे या नहीं,
हस्पतालों में डॉक्टर, नर्स ख़ुशी से
जायेंगे या नहीं. कई सवाल हैं.
और हाँ , बेटी
वाले गाओं के आस पास नौकरी करने वाले लड़कों के घर में अपनी बेटी देंगे या नहीं.
क्या देहरादून, दिल्ली या फिर बम्बई और उससे भी दूर विदेश
की ही सोचेंगे?
फिर मिलला। राजी ख़ुशी रैन।आपका ,
हरि प्रसाद लखेड़ा,
ग्राम , बनचुरी,
पौड़ी गढ़वाल , उत्तराखंड
आज दिनांक ०५/०४/२०१८
हाल फिलहाल -दिल्ली.
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