दंडे
हकीकत
बात
1956-57 की
है । पी आई सी कोटद्वार में दसवीं कक्षा का छात्र था । पता
नहीं क्यों पर क्लास के मोनीटर का भार मेरे नाजुक कंधों पर लाद दिया गया । मुझे
लगा यह प्रधानाचार्य जी
और कक्षा अध्यायापक जी की मिलीभगत है । वरना क्लास
मानिटर तो सलमान खान जैसा दबंग होना चाहिए जो सारी क्लास को अपनी दबंगीयत से काबू
में रखने के काबिल हो और साथ ही खुद अपनी
दबंग हरकतों से क्लास को हडकाने से बाज़ आये
। एक पंथ दो काज ।
पर
मेरे से तो न पंथ की संभावना थी न काज की। पढाकू, रट्टू, उपनाम
कमा चुका था । दोस्त भी
इसी प्रकार के । चार पांच का ग्रुप जो 90 % समय पढ़ने
के लिए
और शेष खेल में देते । क्लास
में पहली पंक्ति पर बिराजमान, क्लास शुरू होने से पहले । अध्यापकों के चहेते ।
इसी
बीच प्रधानाचार्य जी की भतीजी क्लास की सदस्या बनीं। पास में ही कन्या विद्यालय था
पर वहां न जाकर लड़को के स्कूल में दाखिल। पता चला कि पिछले वर्ष मैट्रिक की
परीक्षा में रह गयी थीं
और इस वर्ष प्राइवेट छात्रा के रूप मे किस्मत
आजमाने के इरादे से
और प्रधानाचार्य जी की शिफारिस पर क्लास में बैठने
की
अनुमति पा गयीं थीं । हमको क्या? क्लास
को तो कुछ नया चाहिए था सो मिल गया ।
क्लास
तीन महीने पार कर गई थी । कम से कम क्लास के अंदर तो शांति थी । लगता था जैसे अचानक
ही
महान बदलाव आ
गया था । लेकिन यह तो लल बिफोर द स्टोर्म यानी तूफान से पहले की शांति थी । सारी
क्लास में 40
लड़को के बीच एक ही लडकी हो तो अनुशासन खुद आ
जाता है ।
स्कूल
के नियम के अनुसार स्कूल में देर से आना या न आना या कोई नियम के विरुद्ध हरकत की
सजा आठ आने का दंड था। उस समय आठ आने में एक
सेर आटा या आधा सेर दूध मिल जाता था । मतलब आठ
आने की बड़ी कीमत थी। पैसे वाले घर के लड़के तो अपनी
पाकेट मनी
से चुका देते और
घर में पता भी नहीं चलता पर गरीब बच्चों पर यह दोहरी मार थी। पहले तो स्कूल में
डांट पडती फिर घर में । साथ में मां बाप पर भी बोझ। हम इसका दबी जुबान में विरोध
तो करते पर नियम तो नियम,
बदल तो नही सकते थे । आज
की तरह हाय हाय
के नारे भी नहीं लगा सकते थे ।स्कूल से ही बाहर कर
दिये जाते ।
छात्रा
सभ्रांत
घर की, सुन्दर
हाव भाव स्वभाव,
और ऊपर से प्रधानाचार्य जी की भतीजी । आगे की तीन
सीट वाली बेंच पर मेरे दाहिने बिठा दिया । बाईं तरफ मेरा एक पढाकू दोस्त ।सब ठीक
चल रहा था । खाली पीरियड में जब जायादातर लड़के बाहर होते हम क्लास में अगले
पीरियड की किताब पलट रहे होते । कभी कभी इधर-उधर
की बातें भी कर लेते ।
उस
दिन कक्षा
अध्यापक के किसी काम के कारण क्लास में कुछ देर
से पहुँचा। पूरी क्लास में हंगामा बरपा था। अध्यापक भी नहीं आये थे।
क्लास
में ब्लेक बोर्ड साफ करने का काम बारी बारी से होता था । अध्यापक के आने से पहले
यह होना जरूरी था नहीं तो डाट पडती और
कशूरवार को पूरे वक्त बेंच पर खड़ा होना पडता ।
हुआ
यह कि डस्टर किसी बैक बेंचर के पास था । जैसे ही उसने चाक और धूल से सना डस्टर
पीछे से साफ करने वाले के पास आगे फेंका ठीक उसी
समय
इस छात्रा का पदार्पण हुआ और
डस्टर
उनके मुखौटे पर जा लिपटा। सारा चेहरे पर कालीसफेद धूल फैल
गयी। आव देखा ना ताव,
भुनभुनाती हुई, तमतमाती हुई, सीधे
प्रधानाचार्य के
औफिस की तरफ लपक गयी । जाते जाते कहीं गयी 'देख
लुंगी '।
पता चला कि शीकायत दर्ज करा कर घर चली गई ।
हम
सब सदमे में । अब क्या?
दीनू तो गया । बेचारा दीनू। नाम तो दीनदयाल था पर
सब दीनू ही बोलते थे । गरीब परिवार का छात्र कैसे कर के यहाँ तक आया । पढ़ने में औसत
पर जैसा नाम वैसा गुण । कभी कभी हंस भी लेता था । थोड़ी देर बाद कक्षा अध्यापक
आये । सबसे पूछा किसने किया, दीनू बोला यह गलती अनजाने
में
उससे हुई। प्रधानाचार्य के पास पेश किया गया और 5 रुप्या
फाइन।
अगले
दिन छात्रा तो
आई पर दीनू नहीं । कहाँ से लाता
5 रुप्या? अगले
दिन भी नहीं
आया । अब तो कुछ करना होगा। छात्रा से कहा कुछ करो
वरना हम चुप नहीं रहेंगे । तय हुआ सब मिलकर प्रधानाचार्य के पास जाकर गूहार
लगायेंगे । तो पढाकू ग्रुप और छात्रा चल पड़े ।
अब
नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर ।
हमारे
कुछ कहने से पहले छात्राने ही कहा कि दीनू से अनजाने
में गलती हो गई
और उसे माफ किया जाय। हम गर्दन हिलाते रहे ।
प्रधानाचार्य पिघले और माफ़ भी कर दिया।
न
जाने क्यों मुझे लगा कि हम इसके लिए नहीं आये
। हमको तो सिस्टम बदलना होगा । बड़ी हिम्मत करके कहा ' सर
5 रुप्या
तो हम जोड़ ही लेते और दीनू भी आ जाता पर आगे का क्या? '
प्रधानाचार्य
ने पूछा
और क्या चाहिए? सबने कहा आर्थिक
दंड से
छुट्टी । गरीब परिवारों के पास बड़ी हिम्मत करके
फीस का इंतजाम होता है दंड कहाँ से देगे। चाहें तो कोडे मार दीजिए, मुर्गा
बना दीजिये ।
आर्थिक दंड मत दीजिये और क्लास से बाहर मत कीजिये
।
अगले
दिन प्रधानाचार्य जी ने चपरासी को भेज कर बुलाया । स्कूल के पास से नहर गुजरती थी
। वहीं पास बैठने का इशारा किया । पीठ
थपथपाई । बोले कुछ नहीं । ओ तो उठकर चले गये । मैं अब तक वहीं बैठा हूँ । सर आप
की पीठ थपथपाना ही आपका आशीर्वाद था । आप जरूर से देख रहे हैं और मुस्कुरा भी रहे
हैं ।
स्कूलों
में
अब शारीरिक दंड बर्जित है । आर्थिक दंड के कोई मायने ही
नहीं ।
। दीनू बिना पढ़े पास हो जाता है , सुना
है दसवीं तक। छात्राये
सुरक्षित नहीं, अध्यापक
लाचार। हाँ,
अध्यापकों को यह
सब झेलने
और बेबी सिटिग का मुआवजा अच्छा मिल जाता है ।
हरि
लखेड़ा
अप्रैल
2018
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