कहानी चोरगदन की ( भाग-२-जनता का दोहन)
पिछले भाग मे हमने देखा कि कैसे चोरगदन से जंगली जानवरों और जंगली संपदा का दोहन हुआ। याद ताज़ा करने के लिये बता दूँ कि चोरगदन उत्तराखंड (जो कि तब तक उत्तर प्रदेश कहलाता था) के बनचूरी गाँव के पास के घने जंगल का नाम था। जंगल के आस पास दो गाँव और भी हैं रिखेडा और सार। मुझे बताया गया है कि इसे चोरगदन नही चोरगधन कहते हैं। ख़ैर। यह कहानी इस जंगल से इसलिये भी जुड़ी है कि इससे तीनों गाँवों का नाता था और रहेगा, शायद, अगर गाँव रहे तो। यह भी इशारा किया गया कि रिखेडा - बनचूरी मे कहाँ शेर, चीता, हाथी रहे होंगे, पर कहानी क्योंकि दो तीन सदी पहले से शुरू की थी तो सोचा रहे तो होंगे। बाघ तक तो मैंने भी देखे थे। ख़ैर । आगे बढ़ते हैं और मालूम करते हैं कि कैसे इन चोरों ने आदमियों का दोहन किया और कर रहे हैं।
जंगल के पास के गाँव इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, पालतू जानवरों के लिये घास आदि के लिये इस जंगल पर निर्भर थे। जंगली जानवरों के डर से रात मे कोई भी जंगल मे जाने की हिम्मत नही करता था पर दिन के समय ज़रूरत के हिसाब से सब लकड़ी और घास वहीं से लाते। कभी कोई जंगली जानवर का शिकार भी बन जाता पर कोई और उपाय भी नही था।
गाँव वाले खेती करते और साल मे दो फ़सल उगाते। गुज़ारा हो जाता। साथ मे पशुपालन करते और ख़रीद बेचकर गाँव की दुकान से कपड़ा, गुड, नमक आदि ख़रीद लेते। गाँव मे ही लोहार, सुनार, दर्ज़ी, नाई, मोची, तेली, भी थे। कुल पुरोहित सारे सोलह संस्कार निपटा लेता। वही वैद्य भी था। एक प्रकार से गाँव आत्म निर्भर थे। लोगों मे भाई चारा था। एक दूसरे की मदद से ही गाँव के सारे काम संपन्न होते थे। गाँव मे एकता थी । कुछ लोग तो उन्हें भेडचाल (herd mentality ) की उपाधि भी दे बैठे थे। रिखेडा और बनचूरी ही ऐसे गाँव थे जो जाति और धर्म के नाम पर नही बाँटे जा सकते थे क्योंकि यहाँ एक जाति और धर्म ही नही बल्कि एक ही गोत्र के परिवार रहते थे। लगभग हर परिवार से कम से कम एक सदस्य शहर मे काम करने लग गया था। जीवन सामान्य था पर उसमें आराम भी था।
फिर १९४७ ने आज़ादी आई। आज़ादी का मतलब तो गाँव के सीधे साधे लोगों की समझ मे नही आया पर लगा उनके दिन फिर जायेंगे। अपने लोगों की सरकार होगी। देखते देखते चुनाव की गर्मी भी शुरू हुयी। कांग्रेस के अलावा किसी और का नाम भी नही सुना था सो उसी के निशान पर मोहर लगा दी। उम्मीदवार पास के कांडी गाँव के थे और लोग उनको जानते भी थे तो काम आसान रहा। कामिनिस्ट और जनसंघ वाले भी घूमे पर बेकार। कुछ और साल बीते पर दिन नही फिरे। चुनाव आते और जाते। जब बैलों की जोड़ी मुँह तकती तो न चाहते हुये भी दया के मारे उसी पर मोहर चिपका देते। रिखेडा, सार , रौतगांव, पठोला, परंदा, खोबरा, कांडी, कोलसी, बिस्सी, चुपड़ा, आदि गाँवों से बदलाव की आवाज़ें आने लगीं पर बनचूरी वाले नही हिले। वैसे बाकी गाँवों मे भी ज़्यादा कांग्रेसी ही थे पर भेड़ चाल (herd mentality) का दोष बनचूरी वालों पर ही लगा क्योंकि सबने कांग्रेस को ही वोट किया।
कुछ और साल बीते। पर गाँव की स्थिति दस की तस। रो धो कर दोगड्डा से एक कच्ची सड़क लगभग २५ साल मे कई पीड़ाओं और पडाओं के बाद बनचूरी पहुँची। तब तक सबको पैदल ही आना जाना करना पड़ता था। लगभग १० साल , साल मे दो बार यह पैदल मार्च किया है। २५ मील का पैदल सफ़र पहले आधा , फिर दो तिहायी, फिर तीन चौथायी कम हुवा ही था कि पता लगा सडक को कांडी की तरफ़ मोड़ दिया गया है। जैसे तैसे एक दिन सड़क बनचूरी भी पहुँच गयी। फिर भी गाँव वालों ने कांग्रेस पर ही भरोसा रखा। न जय प्रकाश का, न मंडल का न ही कमंडल का ज़ोर चला पर कुछ बदलाव की हवा चलने लगी थी। वोटों को बचाये रखने के उपाय ढूँढते हुये कुछ योजनायें लायी गयीं। योजना क्या बस एक तरह से घूस। शराब ज़्यादा माफ़िक़ आई। जहाँ शराब से काम नही चला वहाँ नक़द। इन सबको अंजाम देने के लिये ग्राम प्रधान, सरपंच, पटवारी, पतरोल, हलकारा, पोस्टमैन, शिक्षक, ग्राम सेवक, सबका उपयोग किया जाने लगा। शराब और रुपये के आगे कौन नही झुका। बस एक बार लत पड़नी चाहिये। शुरू कांग्रेस ने या विपक्ष ने किया, कहना मुस्किल है।
नवंबर ९, २००० को बनचूरी को भी अपना अलग राज्य मिल गया। राज्य की उम्र याद रखना आसान है। नाम पड़ा उत्तरांचल जिसे बदलकर अक्टूबर २००६ मे उत्तराखंड कर दिया गया। लगा अब तो दिन फिरेंगे ही। पर नही। न नये राज्य से न नये नाम से । धर्म , जाति या गोत्र के नाम पर तो नही बाँट पाये पर शराब और रूपये ने कमाल कर दिखाया। कोई कांग्रेसी बन गया कोई भाजपाई। जो जितना ज़्यादा दरियादिली दिखाता वोट उसके। वैसे भी पाँच साल मे एक ही तो मौक़ा था हड़पने का फिर कौन पूछता है।
ज़ाहिर है जो देगा वह लेगा भी। ख़र्चा किया तो वसूलेगा भी। अगला चुनाव भी तो लड़ना है। चुनाव दिन पर दिन मंहगे होते जा रहे हैं। जितना लूट सको लूटो। योजना ऐसी बनाओ जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा रक़म बनाई जा सके और खुरचने ही जनता तक पहुँचे। जनता तो खुरचने मे भी ख़ुश हो जाती है, भूखे जो ठहरे। मनरेगा, बीपीएल, पेंशन, और न जाने क्या क्या। बनचूरी गाँव अपने पत्थरों के लिये मशहूर है पर पत्थरों को रोकने के लिये और पत्थर हेंवल नदी से आये घोड़े पर। बिल बड़ा जो करना था।
जिसको अ, ब भी नही आता था नेता बन गया। बस लाठी चलाना और तिकड़मों मे माहिर होना चाहिये। गद्दी हो चाहे दे कांग्रेस मे या भाजपाई मे। भाड मे जाय आडियोलाजी भाड मे जाय जनता। वैसे दोष उनका नही है। अगर वे चोर हैं तो बनाया भी हमने और चुना भी हमने।
चोरगदन ने अपना नाम सार्थक कर दिया। पूर्वजों ने कुछ सोचकर ही नाम रखा होगा। बस एक बात का सुख है कि बनचूरी से कोई चुनाव नही लड़ा। एक ने कोशिश की थी पर गाँव वालों ने उसे गाँव का मानना ही स्वीकार नही किया क्योंकि वह गाँव मे पैदा जरूर हुआ था पर रहा नही। हाँ कुछ हैं जो नेता जैसे अपने आप को दिखाते हैं पर हैं नही , क्योंकि काम तो चल ही रहा न। गाँव वाले अब भेडचाल वाली नियति से वोट भी नही करते। अपने मन से जिसको चाहे उसको वोट देते है । समझने वाले समझ गये हैं जो न समझे वो अनाड़ी है। बस खुद कभी गाँव मे मतदाता नही बन पाया।
गाँव की दशा मैं "खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी " बयां कर चुका हूँ। जंगल की दशा पिछले भाग मे साफ़ है। आप सोचेंगे बनचूरी ही क्यों सब जगह यही हाल है। इस लिये कि पहले तो मैं बनचूरी का हूँ , दूसरा कभी कभी जाता भी हूँ और कुछ देखा सुना लिखा है। कुछ अपनी तरफ़ से नही जोड़ा।
कहनी कई मोड़ ले सकती है, बस आपकी नज़र बनी रहे।
पिछले भाग मे हमने देखा कि कैसे चोरगदन से जंगली जानवरों और जंगली संपदा का दोहन हुआ। याद ताज़ा करने के लिये बता दूँ कि चोरगदन उत्तराखंड (जो कि तब तक उत्तर प्रदेश कहलाता था) के बनचूरी गाँव के पास के घने जंगल का नाम था। जंगल के आस पास दो गाँव और भी हैं रिखेडा और सार। मुझे बताया गया है कि इसे चोरगदन नही चोरगधन कहते हैं। ख़ैर। यह कहानी इस जंगल से इसलिये भी जुड़ी है कि इससे तीनों गाँवों का नाता था और रहेगा, शायद, अगर गाँव रहे तो। यह भी इशारा किया गया कि रिखेडा - बनचूरी मे कहाँ शेर, चीता, हाथी रहे होंगे, पर कहानी क्योंकि दो तीन सदी पहले से शुरू की थी तो सोचा रहे तो होंगे। बाघ तक तो मैंने भी देखे थे। ख़ैर । आगे बढ़ते हैं और मालूम करते हैं कि कैसे इन चोरों ने आदमियों का दोहन किया और कर रहे हैं।
जंगल के पास के गाँव इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, पालतू जानवरों के लिये घास आदि के लिये इस जंगल पर निर्भर थे। जंगली जानवरों के डर से रात मे कोई भी जंगल मे जाने की हिम्मत नही करता था पर दिन के समय ज़रूरत के हिसाब से सब लकड़ी और घास वहीं से लाते। कभी कोई जंगली जानवर का शिकार भी बन जाता पर कोई और उपाय भी नही था।
गाँव वाले खेती करते और साल मे दो फ़सल उगाते। गुज़ारा हो जाता। साथ मे पशुपालन करते और ख़रीद बेचकर गाँव की दुकान से कपड़ा, गुड, नमक आदि ख़रीद लेते। गाँव मे ही लोहार, सुनार, दर्ज़ी, नाई, मोची, तेली, भी थे। कुल पुरोहित सारे सोलह संस्कार निपटा लेता। वही वैद्य भी था। एक प्रकार से गाँव आत्म निर्भर थे। लोगों मे भाई चारा था। एक दूसरे की मदद से ही गाँव के सारे काम संपन्न होते थे। गाँव मे एकता थी । कुछ लोग तो उन्हें भेडचाल (herd mentality ) की उपाधि भी दे बैठे थे। रिखेडा और बनचूरी ही ऐसे गाँव थे जो जाति और धर्म के नाम पर नही बाँटे जा सकते थे क्योंकि यहाँ एक जाति और धर्म ही नही बल्कि एक ही गोत्र के परिवार रहते थे। लगभग हर परिवार से कम से कम एक सदस्य शहर मे काम करने लग गया था। जीवन सामान्य था पर उसमें आराम भी था।
फिर १९४७ ने आज़ादी आई। आज़ादी का मतलब तो गाँव के सीधे साधे लोगों की समझ मे नही आया पर लगा उनके दिन फिर जायेंगे। अपने लोगों की सरकार होगी। देखते देखते चुनाव की गर्मी भी शुरू हुयी। कांग्रेस के अलावा किसी और का नाम भी नही सुना था सो उसी के निशान पर मोहर लगा दी। उम्मीदवार पास के कांडी गाँव के थे और लोग उनको जानते भी थे तो काम आसान रहा। कामिनिस्ट और जनसंघ वाले भी घूमे पर बेकार। कुछ और साल बीते पर दिन नही फिरे। चुनाव आते और जाते। जब बैलों की जोड़ी मुँह तकती तो न चाहते हुये भी दया के मारे उसी पर मोहर चिपका देते। रिखेडा, सार , रौतगांव, पठोला, परंदा, खोबरा, कांडी, कोलसी, बिस्सी, चुपड़ा, आदि गाँवों से बदलाव की आवाज़ें आने लगीं पर बनचूरी वाले नही हिले। वैसे बाकी गाँवों मे भी ज़्यादा कांग्रेसी ही थे पर भेड़ चाल (herd mentality) का दोष बनचूरी वालों पर ही लगा क्योंकि सबने कांग्रेस को ही वोट किया।
कुछ और साल बीते। पर गाँव की स्थिति दस की तस। रो धो कर दोगड्डा से एक कच्ची सड़क लगभग २५ साल मे कई पीड़ाओं और पडाओं के बाद बनचूरी पहुँची। तब तक सबको पैदल ही आना जाना करना पड़ता था। लगभग १० साल , साल मे दो बार यह पैदल मार्च किया है। २५ मील का पैदल सफ़र पहले आधा , फिर दो तिहायी, फिर तीन चौथायी कम हुवा ही था कि पता लगा सडक को कांडी की तरफ़ मोड़ दिया गया है। जैसे तैसे एक दिन सड़क बनचूरी भी पहुँच गयी। फिर भी गाँव वालों ने कांग्रेस पर ही भरोसा रखा। न जय प्रकाश का, न मंडल का न ही कमंडल का ज़ोर चला पर कुछ बदलाव की हवा चलने लगी थी। वोटों को बचाये रखने के उपाय ढूँढते हुये कुछ योजनायें लायी गयीं। योजना क्या बस एक तरह से घूस। शराब ज़्यादा माफ़िक़ आई। जहाँ शराब से काम नही चला वहाँ नक़द। इन सबको अंजाम देने के लिये ग्राम प्रधान, सरपंच, पटवारी, पतरोल, हलकारा, पोस्टमैन, शिक्षक, ग्राम सेवक, सबका उपयोग किया जाने लगा। शराब और रुपये के आगे कौन नही झुका। बस एक बार लत पड़नी चाहिये। शुरू कांग्रेस ने या विपक्ष ने किया, कहना मुस्किल है।
नवंबर ९, २००० को बनचूरी को भी अपना अलग राज्य मिल गया। राज्य की उम्र याद रखना आसान है। नाम पड़ा उत्तरांचल जिसे बदलकर अक्टूबर २००६ मे उत्तराखंड कर दिया गया। लगा अब तो दिन फिरेंगे ही। पर नही। न नये राज्य से न नये नाम से । धर्म , जाति या गोत्र के नाम पर तो नही बाँट पाये पर शराब और रूपये ने कमाल कर दिखाया। कोई कांग्रेसी बन गया कोई भाजपाई। जो जितना ज़्यादा दरियादिली दिखाता वोट उसके। वैसे भी पाँच साल मे एक ही तो मौक़ा था हड़पने का फिर कौन पूछता है।
ज़ाहिर है जो देगा वह लेगा भी। ख़र्चा किया तो वसूलेगा भी। अगला चुनाव भी तो लड़ना है। चुनाव दिन पर दिन मंहगे होते जा रहे हैं। जितना लूट सको लूटो। योजना ऐसी बनाओ जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा रक़म बनाई जा सके और खुरचने ही जनता तक पहुँचे। जनता तो खुरचने मे भी ख़ुश हो जाती है, भूखे जो ठहरे। मनरेगा, बीपीएल, पेंशन, और न जाने क्या क्या। बनचूरी गाँव अपने पत्थरों के लिये मशहूर है पर पत्थरों को रोकने के लिये और पत्थर हेंवल नदी से आये घोड़े पर। बिल बड़ा जो करना था।
जिसको अ, ब भी नही आता था नेता बन गया। बस लाठी चलाना और तिकड़मों मे माहिर होना चाहिये। गद्दी हो चाहे दे कांग्रेस मे या भाजपाई मे। भाड मे जाय आडियोलाजी भाड मे जाय जनता। वैसे दोष उनका नही है। अगर वे चोर हैं तो बनाया भी हमने और चुना भी हमने।
चोरगदन ने अपना नाम सार्थक कर दिया। पूर्वजों ने कुछ सोचकर ही नाम रखा होगा। बस एक बात का सुख है कि बनचूरी से कोई चुनाव नही लड़ा। एक ने कोशिश की थी पर गाँव वालों ने उसे गाँव का मानना ही स्वीकार नही किया क्योंकि वह गाँव मे पैदा जरूर हुआ था पर रहा नही। हाँ कुछ हैं जो नेता जैसे अपने आप को दिखाते हैं पर हैं नही , क्योंकि काम तो चल ही रहा न। गाँव वाले अब भेडचाल वाली नियति से वोट भी नही करते। अपने मन से जिसको चाहे उसको वोट देते है । समझने वाले समझ गये हैं जो न समझे वो अनाड़ी है। बस खुद कभी गाँव मे मतदाता नही बन पाया।
गाँव की दशा मैं "खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी " बयां कर चुका हूँ। जंगल की दशा पिछले भाग मे साफ़ है। आप सोचेंगे बनचूरी ही क्यों सब जगह यही हाल है। इस लिये कि पहले तो मैं बनचूरी का हूँ , दूसरा कभी कभी जाता भी हूँ और कुछ देखा सुना लिखा है। कुछ अपनी तरफ़ से नही जोड़ा।
कहनी कई मोड़ ले सकती है, बस आपकी नज़र बनी रहे।
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