गुरु के चरणों में श्रद्धा सुमन
ग़ुरूर ब्रह्मा ग़ुरूर विष्णु ग़ुरूर देवो महेश्वर:
ग़ुरूर शाक्षात पराब्रह्म, तस्मै गुरुवे नम:
इन पवित्र शब्दों के साथ यह मेरा अपने गुरु के बारे में चंद लाइनें लिखने का प्रयास है। नज़ीबाबाद के सरस्वती इंटरमीडियट कालेज (जो कि अब मूर्तिदेवी सरस्वती इंटरमीडियट कालेज के नाम से जाना जाता है और साहू शांति प्रसाद जैन ट्रस्ट ,टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप, द्वार संचालित था, मे हम दोनों भाइयों का दाख़िला जुलाई १९५७ मे हुआ। कोटद्वार से हाई स्कूल करने के बाद पास मे यही एक कालेज था जहाँ कामर्स पढ़ाई जाती थी। जब कालेज में दाखिल हुये तो पता चला कि पूरे जिले मे कालेज का नाम था। बोर्ड परीक्षा में १००% सफलता, कई छात्र मेरिट लिस्ट में। लंबी चौड़ी बिल्डिंग, खेल का मैदान। ग़रीब विद्यार्थियों को मुफ़्त किताबें, फ़ीस माफ़। पढ़ाई में अच्छा होने से वज़ीफ़ा।
लेकिन इन सब से ऊपर केला जी। हाँ, श्री राम नारायण केला जी, स्कूल के प्रधानाचार्य जिनको हम सब 'सर' कहकर बुलाते । केला जी अपनी कार्य कुशलता और अनुशासन के लिये जाने जाते थे। उन्हीं के परिश्रम से यह मिडिल स्कूल से इंटरमीडियट कालेज बना था। हमारे अध्यापक वर्ग मे थे द्विवेदी जी, सिंगल साहेब, जैन साहेब।
अब तक तो सुना ही था, विद्यार्थी के रूप में अनुभव भी होने लगा कि ऐसे ही तो इसको बेस्ट कालेज नही बोला जाता था। अनुशासन, अनुशासन और अनुशासन। केला जी का अनुशासन विद्यार्थियों तक ही सीमित नही था। इसमें अध्यापक भी आते थे। उनसे अपेक्षा थी कि कालेज टाइम से आधा घंटा पहले पहुँचे, हज़ारी रजिस्टर में हाज़िरी दें और ध्यान रखें कि हम सब अनुशासन मे हैं कि नहीं।
विद्यार्थियों से अपेक्षा थी कि वह कालेज टाइम से कम से कम १५ मिनट पहले कालेज पहुँच जांय पर गेट बंद होने से पहले वरना बिना संतोष जनक उत्तर देने पर सज़ा। केला जी ताज़ा अख़बार या कोई किताब हाथ में लिये कुर्सी पर कार्यालय के सामने विराजमान मिलते। एक नियम सा बन गया था, उनका पाँव छूते और चुपके से कक्षा की तरफ़ । देर से आने वाले को कान पकड़ कर उढ्ढा बैठक। अधिकतर देर से आने वाले को घर वापसी । कई बार ऐसे लेट लतीफों को उनके पिता या कोई घर का सदस्य वापस ला रहा होता और भरपूर माफ़ी के साथ आगे समय पर आने का आश्वासन दे रहा होता। नतीजा यह कि यदा कदा ही कोई देर से आता था। कपड़ों के बारे मे भी कड़े नियम। यूनिफ़ॉर्म तो नही थी पर जो भी पहनो साफ़ हो। क़मीज़ के बटन ढीक से लगे हों, कोई बटन कम न हो। जूते पालिस किये हुये, नाख़ून कटे हुये, बाल तरीक़े से सँवरे हुये, । जो भी नियम के बाहर पाया जाता घर भेज दिया जाता।
उस समय नज़ीबाबाद छोटा सा क़स्बा था। केलाजी क़स्बे की जानी मानी हस्तियों मे से थे। आचार्यजी के नाम से जाने जाते थे। लंबा छरहरा बदन, अधपकी लंबी दाढ़ी, कुर्ता और सफ़ेद धोती- कोई भी पहचान सकता था। 'सर' का दबदबा स्कूल की दीवारों तक ही सीमित नही था। वे अपनी स्कूल के सब बच्चों को जानते और पहचानते थे। अगर कोई किसी चाट के ठेले पर चाट खाता हुआ या ऐसी ही कोई अनचाही हरकत करता हुआ पाया जाता जो उनके स्कूल के मापदंड के बराबर नही होता तो उसकी वहीं पर ताजपोशी हो जाती यानी कान पकड़कर बैठो उठो और बोलो आगे नही होगा।सिनेमा देखने पर तो एकदम बंचित। बीड़ी, सिगरेट या तास खेलना तो पाप था। ऐसा नही कि कोई करता नही था पर पकड़े जाने का डर और उस पर सज़ा के मारे सब छिप कर और सावधानी से करते। दो साल मे दो पिक्चर तो हम भाइयों ने भी देखीं।
'सर' की मुलायम साइड भी थी। कभी स्कूल मे छड़ी का इस्तेमाल नही हो सकता था। अनुशासन के नाम पर किसी को शारीरिक कष्ट नही पहुँचा सकते थे। आँखों से सब कह देते थे। ग़रीब विद्यार्थियों को वज़ीफ़ा या किताबें मिलती थीं। पढ़ाई मे कमज़ोर को स्कूल मे अतिरिक्त समय दिया जाता। पढ़ाई मे होशियार को ईनाम, किताब या प्रमाण पत्र देकर प्रोत्साहित किया जाता। जब कभी कोई अध्यापक नही होता तो बड़ी कक्षा के विद्यार्थी को जूनियर क्लास मे पढ़ाने के लिये भेज देते। ऐसे कुछ अवसर मुझे भी मिले।
स्कूल मे श्रमदान का चलन भी था । हमने खेल मैदान साफ़ किये, ईंट, बालू आदि को मिस्त्रियों तक पहुँचाया। मना करने की गुंजाइस तो थी नही पर उनका खुद का उत्साह और किसी भी काम को छोटा न समझने की शिक्षा ने हम मे उत्साह भर दिया था। लगता हम अपने घर के लिये कर रहे हैं।
स्कूल के मैनेजिंग ट्रस्टी से उनके अच्छे संबंध थे। ट्रस्टी के परिवार से पढ़ने वाले बताते कि केला जी की अधिकांश शामें उनके घर पर ही उनके बुज़ुर्गों के साथ बीतती थीं। खाना भी वहीं से आता था। उन्हीं से पता चला कि केला जी सिनेमा देखते है। ट्रस्टी के साथ रात के आख़री सो मे बालकनी में बैठकर देखी जाती थीं।
अंतिम वर्ष १२ वीं की परीक्षा सर पर थी। एक रात को सिनेमा देखने गये। इंटरवेल मे नजर पड़ी तो देखा कि 'सर' भी ट्रस्टी के साथ बालकनी मे बैठे हैं। शायद उन्होंने भी हमको देख लिया था। इंटरवेल के बाद अंधेरे मे चुपके से खिसक लिये। अगले दिन स्कूल जाने से डर रहे थे पर मजबूरी थी। रोज़ की तरह पाँव छू कर क्लास मे गये। हमेशा की तरह वे प्रार्थना के समय हाज़िर थे। हमेशा की तरह उनके कुछ शब्द की इंतज़ार कर रहे थे। डर तो था ही कि अब बुलायें या तब। आने वाली परीक्षा के बारे मे मेहनत से तैयारी करने को कहा जिससे अच्छे अंकों से पास हों। और कहा कि कुछ विद्यार्थी जिनसे उन्हें बहुत उम्मीद है , ऐसे समय मे सिनेमा देखते हैं जो अच्छी बात नही है। अपने ऊपर अति विश्वास ठीक नही है। शायद जानबूझकर नाम नही बताये, न ही कोई सज़ा दी। सोचा होगा, आख़री दिनों मे और वह भी परीक्षा के समय मनोबल न गिर जाय।
बाद मे भी जब भी नज़ीबाबाद जाने का अवसर मिला, उनसे जरूर मिला। रिटायर होने के बाद उन्होंने एक स्कूल की स्थापना की जो आचार्य राम नारायण केला इंटरमीडियट कालेज के नाम से सुचारू रूप से चल रहा है और उनकी याद ताज़ा रखता है।
ऐसे थे हमारे 'सर'। आप सामान्य व्यक्ति लगते थे पर आप मे कुछ था। हमें आप पर गर्व है। आपने हमारी ज़िंदगी बनाये। बारंबार आपके चरणों मे प्रणाम।
ग़ुरूर ब्रह्मा ग़ुरूर विष्णु ग़ुरूर देवो महेश्वर:
ग़ुरूर शाक्षात पराब्रह्म, तस्मै गुरुवे नम:
इन पवित्र शब्दों के साथ यह मेरा अपने गुरु के बारे में चंद लाइनें लिखने का प्रयास है। नज़ीबाबाद के सरस्वती इंटरमीडियट कालेज (जो कि अब मूर्तिदेवी सरस्वती इंटरमीडियट कालेज के नाम से जाना जाता है और साहू शांति प्रसाद जैन ट्रस्ट ,टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप, द्वार संचालित था, मे हम दोनों भाइयों का दाख़िला जुलाई १९५७ मे हुआ। कोटद्वार से हाई स्कूल करने के बाद पास मे यही एक कालेज था जहाँ कामर्स पढ़ाई जाती थी। जब कालेज में दाखिल हुये तो पता चला कि पूरे जिले मे कालेज का नाम था। बोर्ड परीक्षा में १००% सफलता, कई छात्र मेरिट लिस्ट में। लंबी चौड़ी बिल्डिंग, खेल का मैदान। ग़रीब विद्यार्थियों को मुफ़्त किताबें, फ़ीस माफ़। पढ़ाई में अच्छा होने से वज़ीफ़ा।
लेकिन इन सब से ऊपर केला जी। हाँ, श्री राम नारायण केला जी, स्कूल के प्रधानाचार्य जिनको हम सब 'सर' कहकर बुलाते । केला जी अपनी कार्य कुशलता और अनुशासन के लिये जाने जाते थे। उन्हीं के परिश्रम से यह मिडिल स्कूल से इंटरमीडियट कालेज बना था। हमारे अध्यापक वर्ग मे थे द्विवेदी जी, सिंगल साहेब, जैन साहेब।
अब तक तो सुना ही था, विद्यार्थी के रूप में अनुभव भी होने लगा कि ऐसे ही तो इसको बेस्ट कालेज नही बोला जाता था। अनुशासन, अनुशासन और अनुशासन। केला जी का अनुशासन विद्यार्थियों तक ही सीमित नही था। इसमें अध्यापक भी आते थे। उनसे अपेक्षा थी कि कालेज टाइम से आधा घंटा पहले पहुँचे, हज़ारी रजिस्टर में हाज़िरी दें और ध्यान रखें कि हम सब अनुशासन मे हैं कि नहीं।
विद्यार्थियों से अपेक्षा थी कि वह कालेज टाइम से कम से कम १५ मिनट पहले कालेज पहुँच जांय पर गेट बंद होने से पहले वरना बिना संतोष जनक उत्तर देने पर सज़ा। केला जी ताज़ा अख़बार या कोई किताब हाथ में लिये कुर्सी पर कार्यालय के सामने विराजमान मिलते। एक नियम सा बन गया था, उनका पाँव छूते और चुपके से कक्षा की तरफ़ । देर से आने वाले को कान पकड़ कर उढ्ढा बैठक। अधिकतर देर से आने वाले को घर वापसी । कई बार ऐसे लेट लतीफों को उनके पिता या कोई घर का सदस्य वापस ला रहा होता और भरपूर माफ़ी के साथ आगे समय पर आने का आश्वासन दे रहा होता। नतीजा यह कि यदा कदा ही कोई देर से आता था। कपड़ों के बारे मे भी कड़े नियम। यूनिफ़ॉर्म तो नही थी पर जो भी पहनो साफ़ हो। क़मीज़ के बटन ढीक से लगे हों, कोई बटन कम न हो। जूते पालिस किये हुये, नाख़ून कटे हुये, बाल तरीक़े से सँवरे हुये, । जो भी नियम के बाहर पाया जाता घर भेज दिया जाता।
उस समय नज़ीबाबाद छोटा सा क़स्बा था। केलाजी क़स्बे की जानी मानी हस्तियों मे से थे। आचार्यजी के नाम से जाने जाते थे। लंबा छरहरा बदन, अधपकी लंबी दाढ़ी, कुर्ता और सफ़ेद धोती- कोई भी पहचान सकता था। 'सर' का दबदबा स्कूल की दीवारों तक ही सीमित नही था। वे अपनी स्कूल के सब बच्चों को जानते और पहचानते थे। अगर कोई किसी चाट के ठेले पर चाट खाता हुआ या ऐसी ही कोई अनचाही हरकत करता हुआ पाया जाता जो उनके स्कूल के मापदंड के बराबर नही होता तो उसकी वहीं पर ताजपोशी हो जाती यानी कान पकड़कर बैठो उठो और बोलो आगे नही होगा।सिनेमा देखने पर तो एकदम बंचित। बीड़ी, सिगरेट या तास खेलना तो पाप था। ऐसा नही कि कोई करता नही था पर पकड़े जाने का डर और उस पर सज़ा के मारे सब छिप कर और सावधानी से करते। दो साल मे दो पिक्चर तो हम भाइयों ने भी देखीं।
'सर' की मुलायम साइड भी थी। कभी स्कूल मे छड़ी का इस्तेमाल नही हो सकता था। अनुशासन के नाम पर किसी को शारीरिक कष्ट नही पहुँचा सकते थे। आँखों से सब कह देते थे। ग़रीब विद्यार्थियों को वज़ीफ़ा या किताबें मिलती थीं। पढ़ाई मे कमज़ोर को स्कूल मे अतिरिक्त समय दिया जाता। पढ़ाई मे होशियार को ईनाम, किताब या प्रमाण पत्र देकर प्रोत्साहित किया जाता। जब कभी कोई अध्यापक नही होता तो बड़ी कक्षा के विद्यार्थी को जूनियर क्लास मे पढ़ाने के लिये भेज देते। ऐसे कुछ अवसर मुझे भी मिले।
स्कूल मे श्रमदान का चलन भी था । हमने खेल मैदान साफ़ किये, ईंट, बालू आदि को मिस्त्रियों तक पहुँचाया। मना करने की गुंजाइस तो थी नही पर उनका खुद का उत्साह और किसी भी काम को छोटा न समझने की शिक्षा ने हम मे उत्साह भर दिया था। लगता हम अपने घर के लिये कर रहे हैं।
स्कूल के मैनेजिंग ट्रस्टी से उनके अच्छे संबंध थे। ट्रस्टी के परिवार से पढ़ने वाले बताते कि केला जी की अधिकांश शामें उनके घर पर ही उनके बुज़ुर्गों के साथ बीतती थीं। खाना भी वहीं से आता था। उन्हीं से पता चला कि केला जी सिनेमा देखते है। ट्रस्टी के साथ रात के आख़री सो मे बालकनी में बैठकर देखी जाती थीं।
अंतिम वर्ष १२ वीं की परीक्षा सर पर थी। एक रात को सिनेमा देखने गये। इंटरवेल मे नजर पड़ी तो देखा कि 'सर' भी ट्रस्टी के साथ बालकनी मे बैठे हैं। शायद उन्होंने भी हमको देख लिया था। इंटरवेल के बाद अंधेरे मे चुपके से खिसक लिये। अगले दिन स्कूल जाने से डर रहे थे पर मजबूरी थी। रोज़ की तरह पाँव छू कर क्लास मे गये। हमेशा की तरह वे प्रार्थना के समय हाज़िर थे। हमेशा की तरह उनके कुछ शब्द की इंतज़ार कर रहे थे। डर तो था ही कि अब बुलायें या तब। आने वाली परीक्षा के बारे मे मेहनत से तैयारी करने को कहा जिससे अच्छे अंकों से पास हों। और कहा कि कुछ विद्यार्थी जिनसे उन्हें बहुत उम्मीद है , ऐसे समय मे सिनेमा देखते हैं जो अच्छी बात नही है। अपने ऊपर अति विश्वास ठीक नही है। शायद जानबूझकर नाम नही बताये, न ही कोई सज़ा दी। सोचा होगा, आख़री दिनों मे और वह भी परीक्षा के समय मनोबल न गिर जाय।
बाद मे भी जब भी नज़ीबाबाद जाने का अवसर मिला, उनसे जरूर मिला। रिटायर होने के बाद उन्होंने एक स्कूल की स्थापना की जो आचार्य राम नारायण केला इंटरमीडियट कालेज के नाम से सुचारू रूप से चल रहा है और उनकी याद ताज़ा रखता है।
ऐसे थे हमारे 'सर'। आप सामान्य व्यक्ति लगते थे पर आप मे कुछ था। हमें आप पर गर्व है। आपने हमारी ज़िंदगी बनाये। बारंबार आपके चरणों मे प्रणाम।
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