Thursday, June 29, 2017

उत्तराखंड पलायन- कुछ सुझाव- भाग-२

उत्तराखंड पलायन - कुछ सुझाव-भाग -२

हमने देखा कि जो शहरों मे रह रहे थे गाँव वालों से कुछ अलग दिखने लगे। फिर वो अलग भी रहने लगे। संयुक्त परिवार टूटकर इकाइयों मे बँट गये। कुछ शहरों मे कुछ गाँव मे। जो गाँव मे थे उनको शहर वालों  से कोई मदद नही मिली। नतीजा ये हुआ कि उन्होंने भी उनके हिस्से के खेत जोतने बंद कर दिये। साथ ही उनके हिस्से के घर की देख भाल भी बंद हो गयी। देखते देखते खेत बंजर हो गये और घर खंडहर।  एक दिन शहर वालों ने गाँव आना भी बंद कर दिया। मन तो करता था पर हालात से मजबूर थे।

सारे उत्तराखंड के गाँवों की यही समस्या है। सबको तो नही अपना सकते, चलो अपने अपने गाँव को अपनायें। शुरूवात बनचूरी से करते हैं। एक बात तो तय है। पहले तो शहर मे बसे लोग गाँव जायेंगे नही। अगर चले भी गये तो सबका गुज़ारा खेत से नही हो सकता। खेत के अलावा कुछ और काम करना पड़ेगा जिसके लिये बहरहाल तो कोई गुंजाइश नही है। कुछ जो रिटायरमेंट  के बाद गये हैं या तो पेंशन पर या जमा पूजीं पर टिके हैं।

समस्याओं से ही समाधान निकलते हैं। कुछ सुझाव हैं :-

1. लगभग ७५% बनचूरी के लोग दिल्ली और देहरादून मे हैं। उन सबको फ़ेसबुक या ह्वाट्सअप पर लाने का प्रयास करें। लगभग सबके पास फ़ोन हैं । जो भी इस काम मे आगे आना चाहे स्वागत । जवान, जानकार और कर्मठ हों तो बहुत अच्छा।
2. दिल्ली और देहरादून मे मिलें और विचार करें कि क्या किया जा सकता है कि गाँव फिर से आबाद हो सकें।
3. सबसे पहले जवान पीढी के कुछ लोग स्वेच्छा से मिलकर गाँव जांय और सारे रास्तों की झाड़ झंकार साफ़ करें। जो लोग गाँव मे हैं उनसे सलाह और सहयोग लें। पिछली बार गया था तो देखा गाँव से भ्वाचर और भिंड्वडी के पानी तक जाने का रास्ता ही ग़ायब था। जंगल ही जंगल दिख रहा था। गदन तक जाने की सोच भी नही सकते। ग़नीमत है गाँव के रास्ते और गलियाँ सीमेंटेड हो गयीं थीं और रात को सोलर लाइट से गाँव चमक रहा था।
4. साथ ही अपने अपने घरों की सफ़ाई करें। छोटी मोटी टूट फूट ठीक कर लेने से रहने लायक बन जायेंगे। एक दूसरे का हाथ बटायें। घर और रास्ते साफ़ दिखेंगे तो रहने का मन करेगा।अगर यह भी संभव नही तो किसी एक चार कमरों के घर को मरम्मत करके गेस्ट हाउस बना सकते हैं जिसका ख़र्चा सब मिलकर उठायें । उसकी देखभाल का ज़िम्मा किसी गाँव के वासी को कुछ मुआवज़े पर दे सकते है। जब कोई गाँव जाय तो गेस्ट हाउस मे पेमेंट देकर रह सके। खाने का इंतज़ाम भी संभव है। कांडी के होटल मे रहने से तो टूटे फूटे अपने घर मे या गाँव के साधारण गेस्ट हाउस मे रहना कहीं अच्छा है।
5. अपने हिस्से के खेत गाँव मे किसी भाई बंद को दे दीजिये जिसके खेत आपके खेत से लगे हों या जो लेना चाहे। इससे जोतने मे आसानी होगी। इससे चकबंदी जैसी खेती हो पायेगी। पूर्ण चकबंदी शायद संभव न हो। वरना कोई पूरा डांगू, खरीक, सलाण या फंदेधार कर सकता है। आपके लिये तो वैसे भी बोझ ही है। कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग एक और उपाय है। शर्त बस एक होगी कि लेने वाला खेत और घर दोनों को आबाद करेगा ताकि आप जब घर जांय तो घर साफ़ सुथरा मिले और आप कुछ दिन वहाँ रहकर पहाड़ का आनंद ले सकें। उससे क्या हुआ कितना हुआ मे कोई साझेदारी नही होगी।
6. घर मे शौचालय बना दें। सरकार इसमें मदद करे तो ठीक अन्यथा आप खुद बनायें। अगर हर घर के लिये संभव न हो तो सार्वजनिक शौचालय बन सकते हैं, पुरुषों के लिये अलग और महिलाओं के लिये अलग। जब दिल्ली या मुम्बई मे सार्वजनिक  शौचालय हो सकते है तो बनचूरी मे क्यों नही।
7. अब खेतों मे क्या उगायें इस पर बात करते हैं। मेरे विचार से गेहूँ या धान अब लाभदायक नही है। दुकान मे मिल जाता है और सस्ता भी। कोदा शायद ढीक रहे। मौसम के हिसाब से दालें - उड़द, तोर, गहथ, की फ़सल हो सकती है। कोटद्वार मे अच्छे दाम पर बिक भी जायेगा।आलू और प्याज़ भी उगाया जा सकता है। फलों मे आम, पपीता, संतरा, सीज़न के हिसाब से सब्ज़ियाँ।
8. सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा मसालों मे है। हल्दी, हींग, अदरक, मिर्च, ज़ीरा, धनिया बीज, काली मिर्च, आदि मसाले के अच्छे दाम मिल सकते हैं। क्या उगाया जा सकता है और क्या नही, इस पर विचार करना होगा।
9. पौडी गढ़वाल के कई इलाक़ों मे मशरूम की खेती हो रही है। बनचूरी मे होगी कि नही कह नही सकता।
10. इस डर से कि सब बंदर और जंगली जानवर ख़त्म कर देंगे कब तक जियेंगे? पास के सार गाँव वालों से सीख लो। उनके यहाँ कैसे इतनी अच्छी खेती होती है, उनकी फ़सल कैसे सुरक्षित रहती है। दो मील का फ़ैसला है पर जहाँ बनचूरी के खेत बंजर हैं, सार गाँव के हरे भरे, क्यों?
12. गाँव मे साल में एक बार ज़रूर जांय जब तक स्वास्थ्य साथ दे। वहाँ कुछ दिन रहें। सबसे बढ़िया समय अष्टमी का है। देवी के दर्शन और लोगों से मिलन। जो ख़र्चा करेंगे गाँव वालों की जेब मे ही जायेगा। गाँव की अर्थव्यवस्था मे इज़ाफ़ा होगा।
13. गाँव मे बिजली है । छोटा मोटा कोई उद्योग भी लगाया जा सकता है। पर इस पर बाद मे बात कर सकते हैं।
14. जो कहते हैं कि गाँव मे बच्चों की शिक्षाका समुचित इंतज़ाम नही है, ओ ग़लत हैं। हम उसी या उससे भी बदतर शिक्षा व्यवस्था से निकले हैं। आज तो गाँव मे ही १२वीं तक स्कूल है, और क्या चाहिये।
15. यह कहना कि गाँव मे बीमार पड़ने पर इलाज की व्यवस्था नही है ओ भी ग़लत है। गाँव में छोटी छोटी बीमारी के लिये प्रारम्भिक हस्पताल है, और पास मे ही भ्रिगुखाल का बड़ा हस्पताल। फिर जीप मे ३ घंटे के अंदर कोटद्वार। बड़े शहरों मे भी लोग सड़कों पर दम तोड़ते पाये गये हैं।
16. मनोरंजन के लिये टी वी हैं। कुछ नहीं तो पुराने ज़माने की तरह ताश और चौपड़ तो है ही। अब तो बच्चे क्रिकेट खेलते भी नज़र आते हैं। हम तो गिल्ली डंडा, गाँव वाली हाकी और हथगिंदी खेलते थे। फ़ुटबॉल के लिये पैसे कहाँ थे।
17. और आपस मे पालिटिक्स मत करिये। लड़िये मगर अपने अधिकारों के लिये सरकार से। नेता ओ हो जो वादे पूरे करे । जहाँ तक बनचूरी का सवाल है  सब एक हैं। जो अपनी मदद खुद नही कर सकता उसकी मदद कोई नही कर सकता।
अब आप कह सकते हैं कि इतना सब कुछ है तो मैं क्यों बाहर हूँ। खुद क्यों नही उदाहरण बनता। बात सही है। एक तो उम्र का सवाल है और दूसरा बर्सों से शहरों मे रह कर आदतें ख़राब हो चुकी हैं। वैसे भी येसुझाव मेरी पीढी के लिये नही हैं। हमारे बाद की और उनकी आने वाली पीढी के लिये हैं।

बहुत कुछ किया जा सकता है, कुछ कर गुज़रने की हिम्मत होनी चाहिये। मुझे याद है मै और मेरे जेष्ठ भाई १२वीं क्लास की पढ़ाई तक ( १९५९ तक) हर गर्मियों की दो महीने की छुट्टियों मे कोटद्वार/नज़ीबाबाद से गाँव जाते थे। खेतों की मर्म्मत करते, बड़े बड़े पत्थरों का पगार चिनते। जंगल से घास लकड़ी लाते। बरसात से पहले घर के पास के सग्वाड मे बाड लगाते। मज़े की बात यह कि ये सब करने मे मज़ा आता था और कुछ कर पाने का गर्व होता था।

दिन दूर नही जब शहरों से व्यापारी लोग आकर ऊपर देवी डाँडा की जमीन कुछ ख़रीदकर, कुछ हथिया कर वहाँ टूरिस्ट रेसोर्ट बना देंगे और कल के ज़मींदार उनके यहाँ वेटर की नौकरी कर रहे होंगे। अष्टमी का हफ़्ते भर का मेला लगेगा जिसमें पूजा कम और तमाशा ज़्यादा होगा। शायद नीचे औलेगी की जमीन पर भी कोई फ़ार्म हाउस होगा पर बनचूरी वाले का नही।

इस विषय पर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है । बहुत से कर्मठ लोग काम भी कर रहे हैं। सब अपना अपना अनुभव बाँटेंगे तो और भी अच्छा होगा। एक दूसरे की मदद से ही सफलता मिलती है।

आपके समय के लिये धन्यवाद। फिर मिलेंगे।

हरि प्रसाद लखेडा, बनचूरी, पौडी  गढ़वाल ।



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