खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी- आपका उत्तराखंड ।
ठीक से नही बता सकता पर लगभग ४०० साल पहले हमारे पूर्वज रिखेडा गाँव से बनचूरी मे बस गये थे। दोनों गाँव लगभग एक दूसरे से सटे हैं। परिवार बड़े होते है तो कुछ को अलग घर बनाकर रहना जरूरी हो जाता है। खेती की जमीन तो पहले ही रही होगी बस कुछ को बँटवारे मे बनचूरी की ज़मीन मिली होगी ओर उन्होंने सुविधा की ख़ातिर बनचूरी मे घर बना लिया।
बनचूरी दो हिस्सों मे बंटी है- मल्ली और तल्ली। कुछ परिवार मल्ली बनचूरी मे बसे तो कुछ तल्ली मे। सवाल सिर्फ़ सुविधा का रहा होगा। घर खेत और पानी के पास हो। मल्ली बनचूरी वालों के अधिकांश खेत ऊपर थे ओर तल्ली बनचूरी वालों के नीचे। कुछ हिस्से मे आये हुये खेत रिखेडा मे भी थे।
मेरे विचार से तल्ली बनचूरी मे कुल मिलाकर पाँच या छ: परिवार आये होंगे। जिन्होंने थोड़ा ऊपर करके मकान बनाये उनको मंजख्वाल बोला गया, बाँयी तरफ़ वालों को वलख्वाल, दायीं तरफ़ वालों को पलख्वाल और नीचे की तरफ़ वालों को डगुंल्डा के नाम से जाना जाने लगा। परिवार बढ़े तो नये घर बने, खेत बँटे, । उस समय (१९४०-६०) जहाँ तक याद है सारे परिवार खेती करते थे। साल मे दो फ़सले होती थीं। लगभग हर घर मे बैल, हल और खेतिहर जानवर थे । साल मे लगभग छ: महीने घर का एक सदस्य जानवरों के साथ खेतों मे रात गोट मे गुज़ारता और दिन मे जंगल मे जानवरों को चराने ले जाता। काफ़ी लोग शहरों मे रोज़गार करते पर पाँव उनके भी गाँव मे ही थे। मेहनत ज़्यादा थी पर खेतों से परिवार का राशन मिल जाता था।
धीरे धीरे कई कारणों से लोगों ने शहरों का रुख़ किया और वहीं के हो गये। ४०० साल का इतिहास ४०-५० साल मे बदल गया।
नीचे जो तस्वीर है ओ पलख्वाल की है। यहां लगभग १५ परिवार रहते थे। दो एक को छोड़कर अब यहाँ कोई नही रहता। मंजख्वाल, वलख्वाल और डगुंल्डा की हालत थोड़ी बेहतर है। खेती तो छूट चुकी है पर मनरेगा, बीपीयल और पेंशन की मेहरबानी से सबका गुज़ारा चल रहा है। एक दो परिवार बकरी भी पाले हैं जिससे कुछ आमदनी हो जाती है। कुल मिलाकर कल का किसान आज का मज़दूर या दुकानदार बन गया है।
यह तस्वीर मे छोटे भाई बीरेन्द्र लखेडा के बेटे किशोर ने फ़ेसबुक पर डाली, सोचा हक़ीक़त भी बयान कर दूँ। भाई बीरेन्द्र की वजह से ही हमारा पैत्रिक मकान सलामत है। यह बात अलग है कि हम चाहते हुये भी ज़्यादा नही जा पाते।

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