बंधन
मुझे बंधन स्वीकार न थे न हैं,
बंधनों से हमेशा डरता हूँ ।
कविता के नाम पर जो मन कहे,
बेधड़क लिख डालता हूँ ।
छंद, दोहे, सोरठे, और अब हाइकू,
कोई परीक्षा सी लगती है।
भावनाओं के बहाव को जो रोक दे
कविता कैसे हो सकती है।
तुकबंदी करने की ज़िद तो है,
पर लगाम बनाकर नहीं।
हो जाए तो ठीक न हो तो ठीक,
मन को दबाकर नहीं।
बंधन कोई भी हो बंधन ही है,
जाने अनजाने टूटता ही है ।
अंत में जीतता तो मन ही है ,
और कैसी भी हो कविता ही है।
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