विरासत का बोझ।
यहाँ विरासत से मेरा तात्पर्य वसीयत में मिली संपत्ति से नही अपितु विरासत में मिले उन मानकों से है जो संतान को उनके माता पिता से मिलती हैं। कोई संतान उनके माता पिता के नाम से जानी जाती है और कोई माता पिता उनके संतान के नाम से जाने जाते हैं। कुछ संतान अपने माता पिता से भी कई ऊँचाइयों पर गये और कुछ बरबाद भी हो गये, अधिकतर बीच में ही रह गये।
ऐसे माता पिता के घर में जन्म लेना अपने आप में एक शौभाग्य की बात है किन्तु साथ ही उनके मानकों पर खरा उतरना उतना ही बडा बोझ भी हो सकता है। माता या पिता उनके महान चरित्र के लिये आदरणीय रहे हों। लोग उनकी सेवा भावना, सत्त्यता और ईमानदारी के क़ायल हों और उनकी इज़्ज़त करते हों। महात्मा गांधी के लड़के वह सब नहीं कर पाये पर जीवन भर उनके सिद्धांतों के तले दबे दबे से महसूस करते रहे। अध्यापक हो या जज, मैनेजर, राजनीतिज्ञ, प्रसासनिक, कलाकार, वक़ील, लेखक, या कोई और सब यही चाहते हैं कि उनकी संतान उनसे आगे निकले।
ये बच्चे आरंभ से ही सुरक्षित वातावरण मे पलते हैं। शुरू से ही उनसे कई उम्मीदें होती हैं। जज चाहेगा कि उसकी संतान एक दिन देश की सबसे बडी अदालत का मुख्य न्यायाधीश हो। लेखक चाहेगा कि उसकी संतान की गिनती एक दिन विश्व के महान लेखकों मे हो। प्रसासनिक चाहेगा कि उसकी संतान मुख्य प्रसासनिक अधिकारी बने। और सब भी यही चाहेंगे।
पर संतान क्या चाहती है, क्या महसूस करती है, क्या माता पिता जानते हैं? क्या संतान खुलकर बोलने का साहस जुटा पाती है? जबाब है, अधिकांश रूप में नहीं।
एक दिन एक तेरह चौदह साल की लड़की से मिलना हुआ। उसके माता पिता दोनों ही बहुत बडे प्रसासनिक अधिकारी हैं। स्वाभाविक है कि वे चाहते हैं कि उनकी बेटी भी एक दिन प्रसासनिक सेवा में आये और उच्च पद पर आसीन हो। मैने पूछा -बडे होकर क्या बनना चाहती हो, अपने माता पिता की तरह उच्च अधिकारी? बडे विश्वास के साथ बोली- नहीं, अपना खुद का ब्यूटी पार्लर खोलुंगी और प्रसासन के साथ साथ अपना शौक़ भी पूरा करुंगी।
उसकी उम्र में अभी कई मोड़ आयेंगे पर मुझे उम्मीद है माता पिता अपनी मर्ज़ी उसपर नहीं थोपेंगे।
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