एक कसक जो अब तक कचोटती है!
(सच्ची घटना)
१९६४ में कंपनी के काम से बैंगलोर,अब बेंगलूरु मैसूर राज्य अब कर्नाटक से हुबली अभी तक हुबली रेल के डिब्बे में एक नवजवान सरदारजी से जानपहचान हो गई। वह भी व्यापार के सिलसिले में हुबली जा रहा था। उतार भारत से आया था मेरी तरह दक्षिण भारत में तो कुछ घंटों के सफ़र में दोस्ती जैसी हो गई। बडा ज़िंदादिल इंसान। दोनों ने तय किया कि एक ही होटल में ठहरेंगे और एक ही कमरे में। जिस होटल को वह जानता था वहीं चले गये। मैं तो पहली बार आया था।
उस ज़माने में क्रेडिट कार्ड / डेबिट कार्ड तो होते नहीं थे तो सफ़र में नक़दी लेकर ही चलना पड़ता था पैंट की अंदर की पाकेट में छुपा कर। माना की दोस्ती सी हो गई थी पर फिर भी वह मेरे लिये अनजान मैं उसके लिये। आँख मूँद कर तो भरोशा नहीं कर सकता था। नकदी छिपा कर रख दी। शायद उसने भी यही किया होगा। अगली सुबह तलाशा तो नकदी ग़ायब, जहाँ सोचा कि रखी थी वहाँ मिली नहीं। सारी अटैचि, जेबें टटोल लीं। अब उस पर सीधा इल्ज़ाम भी कैसे लगा देता। पर मन में शक तो हुआ ही कि और कहाँ जा सकते हैं, आख़िर कमरे में तो हम दो ही हैं। मद्रास शहर अब चेन्नाई, मद्रास राज्य अब टामिलनाडु आफिस को फ़ोन किया कि तुरंत टेलीग्रेफिक मनीआर्डर करें।
अगले दिन मनीआर्डर मिल गया। इस बीच देखा तो सौ रुपये के सारे नोट, तब तक सौ रुपये का नोट ही देखा था, उस मोटी किताब के बीच में छिपे रखे थे जो मैंने सफ़र में ह्वीलर्स से ख़रीदी थी। याद आया कि मैने ही रखे थे और ढूंड कहीं और रहा था।
तब तक मेरा अजनबी दोस्त दूसरे शहर की ओर जा चुका था।
एक कसक सी हुई कि मैंने क्यों उसपर शक किया! ऐसा क्यों होता है कि हम लोगों पर विश्वास नहीं कर पाते? विश्वास करना इतना मुश्किल क्यों है। अजीब लगता है जब हम कहते हर व्यक्ति बेक़सूर जब तक साबित नहीं होता। Innocent until proven guilty. सब बेमानी सा लगता है।
वह बात अब तक कचोटती है हालाँकि छप्पन साल गुज़र गये हैं और बंगलोर शहर बेंगलूरू हो गया, मैसूर राज्य कर्नाटक, मद्रास शहर चेन्नाई और मद्रास राज्य टामिलनाडु। क्या होता अगर मैं उसपर सीधा इल्ज़ाम लगा देता और तलाशी लेने लगता? फिर सोचता हूँ कि, अगर ओ चला न गया होता तो सब क़िस्सा हँसी हँसी में बता देता, पर शायद नहीं भी!
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