जब मुर्ग़ा बडण पड़ । (प्राथमिक पाठशाला, बनचूरी)
बनचूरी गाँव, उत्तराखंड मा पौडी जिले क यमकेश्वर ब्लाक मा पड़द। हमार टैम पर ज्यादा लोग पट्टी मल्ला उदयपुर मा पडद छे। गाँव मा एक प्राथमिक पाठशाला च जो काफ़ी पुराणी च, कम से कम मेरे से तो पुराणी च किलै कि मेरी आरंभिक पढ़ाई वखी ह्वे। या यन समझो कि अ आ इ ई बोलनण और लिखण का प्रयास वखी बिटीक शुरू ह्वे। बोल्णू तो काफ़ी पहले सीख ऐ छे पर बोल्यूं तै लिखे भी जै सकद वैक ज्ञान यखम ह्वे।
१९४६ मे जब पाँच साल हूं त स्कूल जाण लगु। जाण क्या लगु, धकाये ग्यूं। यना वना भटकण से त स्कूल ठीक। सबी माता पिता की दिली इच्छा हूंद कि बच्चा तै वू सब मील जु ऊँ तै नी मीलु। पैलि पैलि त ख़ाली हाथ जांद ख़ाली हाथ आंद। सुबेर सुबेर सूरज निकलण तक एक गिलास दूध क दगड कुछ खांद और लग जांद रस्ता। साथ मा गाँव क और दगड्या भी हूंद कुछ पैली बेरी वाल त कुछ पुराण घाघ।
उम्र मा बड़ नाता से दादा, चाचा पर बुलांद नाम लेकि छे पर डरद भी छे ऊँ से। क्वी त अपर बस्ता तक पकड़ै दींद छे। पाठशाला गाँव से डेढ़ मील उब। गौंखड्या स्कूल क नाम से प्रख्यात । आस पास गाँवों क बच्चा भी यखी । अच्छी ख़ासी चढ़ै। वु त रास्ता मा भिंड्वडी और घुरसाण कु पाणी क श्रोत,पाणी मील जांद छे । प्ये और लग गे चढै नापणोंक। आजै की तरां तब वाटर बौटल क रिवाज नी छे। हाँ हाथ मा एक जलाऊ लकड़ी लिजाण जरूरी छे जो स्कूल क अध्यापक क वास्त। जलाऊ लकडी रास्ता मा लाठी क काम भी आंद छे और स्कूल मा बेंत क भी। स्कूल पहुँचद ही प्रांगण मा खड़ ह्वे जांद और आँख बंद करीक ' वह शक्ति हमें दो दयानिधे' दोहरांद। अध्यापक निगरानी मा रंद। जब कबि देर ह्वे जांदी और पता चलदु कि प्रार्थना आरंभ ह्वे गे त भैर ही खड़ रंद या आंख चुरै क कक्षा मा घुस जांद। कभी कभी कान पकड़ी क उठक बैठक भी करण पड़दि छे। बड़ी क्लास क एक विद्यार्थी गांदु और बाकी सब दोहरांद।
कुछ मैना त रटण रटाण मा लग। मास्टर जी या ऊपरी कक्षा क क्वी विद्यार्थी बोलदु और बाकी सब दोहरांद। बारहखडी और गिनती सिखाण कूई अचूक तरीक़ा छे ।छुट्टी की घंटी बजि और स्कूल से भैर। स्कूल आण मा एक घंटा वापस जाण मा पंद्र मिनट। कबि त शर्त लगदी कि पैलि कु पहुँचुद घर। यन शर्त कबि स्कूल पहुँचुण कु नी लगी। समय अंदाज़े से बताणै छौं तब घड़ी त छे ना। समय का अंदाज सूरज कख तक पहुँच क हिसाब से ।
फिर मास्टर जी न पाटी, बखुल्या, क़लम लाण कु ब्वाल। असली पढै क समय ऐ गे बल।अब सूण से पैली एक पाटी को चमकाण, तवा क काल पाउडर क घोल से पोतण, जब सूखि जा त काँच क घुट्या से रगड़ण, पाटी यन चमक कि अपरी सूरत दिखे जाव। स्याही की जगह सफेद मिट्टी क घोल। बाँस या बुरांस की डंडी की क़लम। ई सब रखण कुण एक थैला। स्कूल जांद, पाटी पर सफ़ेद स्याही क कुछ आड़ी तिरछी लाइन मारीक वापस घर ऐ जांद। थोड़ी कालिख कपड़ों पर भी लगै लींद जैसे सब तै पता चलि जा कि लड़का स्कूल माँ पढै करणै च।
द्वी साल स्कूल मे चक्कर लगाण क बाबजूद जब पिताजी तै पता चल कि ' सौ दिन या नौ दिन चले अढाई कोस' वालु क़िस्सा च त अपर दगड कोटद्वार ले गीन । दुगड्डा तक ३० मील कु पैदल सफ़र और पैली बेर बस की सैर दुगड्डा से कोटद्वार एक दिन मा। ईं बात तै यदि विराम देकन असली विषय पर आंदू।
द्वी साल कोटद्वार से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करण बाद वापस प्राथमिक पाठशाला बनचूरी। तब तक बड़े भाई भी ननिहाल बीटीक तीसरी कक्षा उत्तीर्ण करीक बनचूरी ऐ गे। फिर स्कूल चढ़ै और गौंखड्या स्कूल। पर अब तक समझदार ह्वे गे छे। स्कूल मा क्वी ख़ास परिवर्तन ना। हेडमास्टर डेवरानी जी और सहायक अध्यापक सुरेंद्र सिंह जी। बस पाटी और बखुल्या की जगा किताब, कापी, नीली स्याही की दवात और क़लम न ले लै। बस्ता भारी। अब पता चल कि किलै हम तै बस्ती पकडांद रै ह्वाल।
अब किलै कि सीनियर ह्वे गे छे त हरकत भी सीनियरों की तरां। साथी दादा, एक चाचा, एक भतीजा मे से चार साल बडु, और एक दादा कु भी दादा और कुछ जूनियर विद्यार्थी। एक मी अकेला तीसरी कक्षा कु न सीनियर मा न जूनियर मा पर चिपक्यूं सीनियर से ही रौंदु छे। क्या मालूम छे एक दिन बहुत महँगु पौडुलु। गाँव मा भी हम चार की पल्टन।
सबसे बड़ दादा ईं पल्टन मा नी छे। वु बाद मे स्वामी जी बणी गे छे और बिजनौर मा वूंकु बहुत बडु आश्रम च बल। गाँव मा कैकी भी ककड़ी, मुंगरी, पपीता, संतरा, अमरूद, आम ग़ायब हूंद त नाम हमारा ही लींद । नाम कमाण कुण क्या क्या नी करण पडद।
अब मुद्दा पर आंदु। स्कूल म कैन बतै दै कि हममा अमुक हुक्का पींदु। कैन बतै ह्वालु आज तक पता नी चलु पर हुक्केबाज तै सज़ा मिलणी छे।वे तै हम सब पर शक छे। वु हुक्का पींदु छे य बात सारी गाँव माँ हम तै ही पता छे। वै तै या आदत अपर पिता कुण हुक्का तैयार करद करद पैडि छे। कभी कभी हम लोग भी सूटा मारि लींद छे। जब वैसे पूछे गे कि और कु कु पींद त वैन हम सब्यूंक नाम ले लै।सारि दिन कड़ी धूप मा हम पांचि मुर्ग़ा बणी रवां।
ऐ कुण बोल्दन पल्टन कु नियम। कई दिन तक हुक्केबाज से बात नी कर पर इज़्ज़त कु कबाड़ा त ह्वे ही गे छे। सारी स्कूल मा हँसी। घर म माता पिता तै भी पता चल। वैक बाद हुक्के क पास भी नी फटक।
मुर्ग़ा बणनै की विधि अपर बुज़ुर्गों से मालूम करी सकदन। बणुण मुश्किल नी पर बणी रौणु मुश्किल च।
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