Tuesday, September 1, 2020

Sirnames and Groups

सोसियल साइट्स पर जाति और सरनेम के आधार पर ग्रुप्स का औचित्य!


ह्वाट्सएप, फ़ेसबुक, टेलीग्राम की महिमा कहूँ या कुछ और पर इन सोसिल साइट्स पर हर तरह के ग्रुप गये हैं अपने आप में मेल जोल बढ़ाने की यह बहुत अच्छी शुरुआत है। मुख़ातिब या मुखामुखी नहीं तो यही सही। बस एक स्मार्ट फ़ोन, इंटरनेट कनेक्शन और बहुत सा समय होना चाहिए कोरोना ने समय समस्या का भी समाधान कर दिया है कल अगर ये सोसियल साइट्स पैसा चार्ज करना शुरू कर दें तो सारे नहीं तो आधे तो बंद हो ही जायेंगे। यह ग्रुप्स रहें रहें पर इन ग्रुप्स का औचित्य ज़रूर सवालों के कटघरे में रह जायेगा।

कई तरह के ग्रुप्स हैं - पर मेरा सवाल बहरहाल जाति के नाम से और सरनेम के नाम से बने ग्रुप्स से है। एक समय आया था जब बिहार में कुछ लोगों ने अपने नाम के साथ सरनेम लगाना बंद कर दिया था। मेरे कुछ मित्र हैं जिनके नाम से पता नहीं चलता कि वे कौन सी जाति से हैं। कारण सिर्फ़ इतना था कि सरनेम जाति प्रथा को बढ़ावा देता है जो अपने आप में एक कड़वा सच है किन्तु यह चला नहीं कि क्योंकि हमारे समाज में एक ही गोत्र में शादी व्याह बर्जित है और जो सही है। सरनेम लगाने से इस समस्या का समाधान होता है। इसको बनाये रखना जरूरी भी है, नहीं तो समाज में कई कुरीतियाँ पनप सकती हैं। 


दूसरी तरफ़ तर्क है कि जाति और सरनेम हमारी पहचान है जिसपर हमें गर्व होना चाहिए। मुश्किल तब होती है जब जितनी बड़ी जाति उतना बड़ा गर्व! सदियों से हम इस जातिप्रथा के शिकार रहे हैं पर सीखा कुछ नहीं। जाति, धर्म और रंग का भेद भाव सब जगह है हालाँकि सब इसको ख़त्म करने में लगे हैं क्योंकि सब को पता चल गया है कि इनसे किसी का भला नहीं हो सकता अपनी पहचान बनाये रखना सही है पर दूसरों को हीन समझना गलत है। 


ग्रुप्स ज़रूर बनाइये पर जाति या सरनेम के आधार पर नहीं। कोई भी जाति या सरनेम निम्न नहीं होता, निम्न होती हमारी सोच। कब, कहाँ , किस परिवार में, जाति में , धर्म में जन्म होगा किसको पता

ग्रुप्स ज़रूर बनाइये पर किसी उद्देश्य के लिये। मानवता की सेवा करने से बड़ा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता  

ग्रुप्स ज़रूर बनाइये, पहचान ज़रूर बनाइये पर जिस जगह, देश पैदा हुए उससे बड़ी पहचान नहीं हो सकती  

ग्रुप्स ज़रूर बनाइये पर गर्वित होने के लिये नहीं, शुक्रगुज़ार होने के लिये कि ग्रुप बनाने के योग्य हुये। 

अच्छा हो ग्रुप्स किसी उद्देश्य मनोरंजन के अतिरिक्त किसी समाज कल्याण के लिये भी हो और क्योंकि साधनों की सीमा हो सकती है तो गाँव, पट्टी, या ब्लाक के नाम से बनें ताकि मनोरंजन के साथ साथ आपसी भाईचारा बढ़े और इलाक़े में कुछ सार्वजनिक सार्थक कार्य भी हो। 

आज हम एक ही गाँव के लोग जगह जगह बिखरे हुए हैं, एक दूसरे को जानते तक नहीं। मेरे अपनी बनचूरी रिखेडा के लखेडा परिवार देश विदेश में बस गये हैं और एक दूसरे को जानते तक नहीं। राज्य के लगभग ७० गाँवों में लखेडा बसे हैं या बसते थे। आस पास के दो चार गाँव वाले मिलकर, लोकल लेवल पर सब गाँव वालों के लिये कुछ कर सकें तो बहुत बडी बात है। पूरे ७० गाँवों के लिये करना कहाँ हो पायेगा? यही बात दूसरे सरनेम वालों पर भी लागू होती है। ठीक से पता नहीं पर राज्य में ५००० से ऊपर सरनेम हैं जो १६००० गाँवों में बसे है या बसते थे। 


सोसियल साइट्स ने मौक़ा दिया है तो इसका फ़ायदा उठाने में ज़रूर आगे बढ़ना चाहिये।


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