Tuesday, September 1, 2020

कमरे में हाथी

 





1. मैं, मुझे और मेरा -कमरे में हाथी -





अगर आप इस कहानी का आनंद लेना चाहते हैं तो अंत तक ज़रूर पढ़ें  

कहानी का शीर्षक तभी सार्थक माना जाना चाहिए जब वह कहानी के अंत के साथ न्याय करता हो अन्यथा शीर्षक कुछ भी हो सकता है देखा गया है कि पाठक समझते हैं कि शीर्षक का विषय से कोई लेना देना नहीं है पर लेखक जानता है कि उनसे यही शीर्षक क्यों रखा कोई और क्यों नहीं संभव है कुछ समय अंतराल में लेखक श्वयं बता सके कि उसने यह शीर्षक क्यों रखा पर बौद्धिक क्षमता की कुछ सीमाएँ तो होती ही हैं

दोस्तों बिलकुल उचित है कि आपको पता चले कि मैंन कहानी का यही शीर्षक क्यों चुना, कोई दूसरा क्यों नहीं हम सबको पता है, सबको मतलब वे सबको जो पढ़ने का शौक़ रखते हैं, कि नामज़द लेखक , कवि और उपन्यासकार प्रस्तावना में चंद पंक्तियों में विषय की भूमिका जमाते हैं चाहे उसका किताब से दूर तक का भी रिश्ता हों पर भूमिका को इतना रंगीन बना देते हैं कि गाहक किताब ख़रीदने को आतुर हो जाय, भले ही बाद में पछताना पड़े। विश्वास कीजिए मैं भुक्तभोगी हूँ। मैंने कई किताबें शीर्षक और प्रस्तावना पढ़कर ख़रीदीं बाद में एक मित्र ने सलाह दी किडौंट जज बुक बाइ इट्स टाइटिल उसका असर यह हुआ कि हर किताब ख़रीदने लगा और बाद में कबाड़ी को बेचता रहा। फिर नामी गरामी लेखकों की ही किताब ख़रीदने लगा जिनका रिव्यू ठीक रहा हो और जो बेस्ट सेलिंग की लिस्ट में गई हों पर यहाँ भी सबकी मिली भगत में फँस गया अब इंटरनेट से डाउनलोड कर लेता हूँ अगर फ़्री हो तो, वरना जय राम जी की नतीजा १००० किताबें जमा कर चुका हूँ पर पढ़ना बाक़ी है खुद लिखता हूँ तो दूसरे का लिखा पसंद ही नहीं आता। होता है, होता है  


. मैं,मुझे और मेरा - कमरे में हाथी- पिछली टुकड़ी से आगे :


तो आप लोग जानना चाहते थे कि कहानी का शीर्षककमरे में हाथीक्यों ? कुछ और क्यों नहीं? मसलन बिल्ली, कुत्ता, चूहा, मच्छर ? गाहक यानी यहाँ पाठक,राजा होता है, गांधी जी कह गये हैं तो आपकी बात माननी पड़ेगी सच्चाई यह है कि नाम में कुछ नहीं रखा हालाँकि इसका विपरीत भी उतना सही है कि जो कुछ है नाम में ही है अगर नहीं विश्वास तो किसी महिला से पूँछो कि स्कूल के दिनों में किस तरह पिताश्री को बहला फुसलाकरगाय और गौरी’ ‘हाथी मेरे साथीपिक्चर देखने को ले गई बेचारे पिता ने सोचा कि जानवरों पर होगी और उसकी लाड़ली बिटिया को जानवरों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी होनी चाहिए कि कैसे उनको प्यार से पालना चाहिए और कैसे संरक्षण मिलना चाहिए  


अगर अब भी कोई शक है तो कुछ और उदाहरण देता हूँ पहले अपने से ही शुरू करता हूँ माता-पिता ने नाम तो रख दिया पर जिस नाम को लेकर घूमता हूँ , यानीहरिजो उस ऊपर वाले सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञाता का नाम है , पर वह सब अवगुण मेरे अंदर है जो उसे तक पता नहीं लक्ष्मी चाय के ठेले पर चाय बेचती है, सरस्वती कपड़े सिलती है और सीता ट्रेवल्स का नाम तो सुना ही होगा ऐसे ही रामू साइकल रिपेयर करता है, विष्णु भोजनालय चलाता है और शिव हरि लाइन स्टोर में दारू बेचता है.

विषय से भटक गया हूँ सारा कशूर ब्ल्यू लेवल का है। वैसे ब्ल्यू, ब्लैक, रेड, देशी सफ़ेद या पीली कोई भी हो दो तीन साट के बाद फ़र्क़ तक पता नहीं चलता। कुछ बार वाले इसका फ़ायदा उठाने में नहीं चूकते, जैसे ही गाहक टन्न हुआ लगा दी डुप्लीकेट या सस्ती।

विषय पर आता हूँ मैं शपथ लेता हूँ कि सच कहुंगा, सब सच कहुंगा और सच के अलावा कुछ नहीं कहुंगा यह लेख मेरा है, मैंने लिखा है और किसी की नक़ल नहीं है


. मैं, मुझे और मेरा- कमरे में हाथी- पिछली टुकड़ी से आगे 


हाँ तो मैं कह रहा था कि यह लेख मेरा खुद का लिखा हुआ है दरअसल इस लेख के कंसीव करने की भी कहानी है पर वह फिर कभी कंसीव पर एक घटना याद रही है सो चलते चलते वह भी सुन लीजिए मंच पर एक वक्ता खड़े थे , अंग्रेज़ी में भाषण कर रहे थे बीच में बोले - आइ कंसीव...... आइ कंसीव....आइ कंसीव... गाड़ी अटकती दिखी तो श्रोताओं में से एक महिला ज़ोर से बोली- मिस्टर ! हम महिलायें एक बार कंसीव करती हैं और एक बच्चे को जन्म देती हैं और आप तीन बार कंसीव कर चुके हो और कुछ भी नहीं! आप समझ सकते हैं वक्ता पर क्या बीती होगी  


मैं फिर विषय से भटक गया। हाँ तो हम कहाँ थे?

राइट! तो इस कहानी का शीर्षककमरे में हाथीक्यों रखा? सच यह है कि मैं चाहता था कि आप यह सवाल पूछें जो कि आपका अधिकार है जैसे कि मेरा अधिकार है कि मैं जबाब दूँ कि दूँ पर क्योंकि मैं मंच पर खड़ा हूँ और आप श्रोताओं में तो मेरे पास आपके सवालों का जबाब देने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। 


आपको बता दूँ कि मैं भी श्रोताओं में बैठता रहा हूँ अक्सर मैं इस असमंजस में पड़ जाता रहा कि सवाल पूछूँ कि नहीं, पूछूँ तो क्या पूछूँ, पूंछूं तो क्या होगा, पूछूँ तो क्या होगा, कहीं बेवक़ूफ़ी भरा सवाल पूछ दिया और लोग हंस दिये तो? ऐसा कौन सा गंभीर सवाल पूछूँ कि वक्ता निरुत्तर हो जाय और हाल तालियों से गड़गड़ा उठे


इसी उधेड़बुन में दूसरे वही सवाल पूछ बैठे जो मैं पूछना चाहता था और मैं उनकी तत्परत्ता पर जलभुन कर रह गया। इसके पहले कि मैं कोई और भीरीभरकम सवाल सोचता सभा विसर्जित हो गई तब मुझे अहसास हुआ कि सब से बड़ा बेवक़ूफ़ी भरा सवाल अभी पूछा जाना बाक़ी है  


. मैं, मुझे और मेरा- कमरे में हाथी- पिछली टुकड़ी से आगे 


हम बात कर रहे थे कि सवाल पूछना क्यों ज़रूरी है इस बार बिना आपके किसी हिंट के मैं विषय पर लौट आया। 

सवाल और जवाब में एक अजीब रिश्ता है जितनी तेज़ी सवाल पर सवाल जब पूछे जाते हैं तो जबाब उतने ही गोलमटोल होते जाते हैं जिनका कुछ भी मतलब निकाला जा सके। तो कोई सीधा सवाल होता है और ही कोई सीधा जबाब कुछ सवालों का तो कभी जबाब ही नहीं मिला। जबाब इस पर भी निर्भर करता है कि कौन, कब और कहाँ जबाब दे रहा है राजनीतिज्ञ तो माहिर हैं इस काम में , सत्ता में हैं तो हाँ, नहीं तो ना

मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से आया, मैं कहाँ जाऊँगा का जबाब क्रिष्ण, मोहम्मद, ईशु दे चुके हैं पर समझ में किसके आया? १८ वीं सदी तक हम वैष्णव, शैविक, तांत्रिक, और जाने क्या क्या थे पर हिंदू नहीं। अभी भी हमारे शंक्राचार्य अलग अलग पीठाधीस बन कर बैठे हैं। तो हमारा कोई संस्थापक है मक्का। हमसे हिंदुत्व की व्याख्या करने को कहेंगे कि वही घिसापिटा जबाब-हिंदुत्व एक जीने की कला है ( Way of life) 


ओएमजी! यह क्या हो रहा है ? मैं विषय से भटक क्यों जा रहा हूँ? कुछ करना पड़ेगा? कुछ नशा तो नहीं हो गया? अब ज़रूरी नहीं कि नशा शराब में ही होता है नशा शराब में होता तो नाचती बोतल! नशा करना मेरी आदत नहीं ही खून में है चाहे धन का हो या ताक़त का या अकल का! नशा शक्ल का भी होता है हशीनों को, नशा रंग का होता है गोरे चिट्टों को! मेरे पर यह सब लागू नहीं होता तो फिर और क्या हो सकता है? पर है क्या

कोशिश करता हूँ कि अब भटकूँगा नहीं अगर मैंने कहानी का यह नाम रखा तो कोई कोई कारण तो होगा। आपको अब तक कहानी अच्छी लग रही है तो मुश्कराइये या कुछ भी करिये जिससे मैं आगे बढ़ूं नहीं तो मुझे ही कुछ करना होगा कहीं भी भगवान भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद अपने आप करता है।

बात को और लंबा खींचते हुए बताता हूँ कि कहानी का यह नाम क्यों रखा हालाँकि कोई मजबूरी नहीं है। भी बताऊूं तो क्या होगा? इतनी देर तक सुनते रहे कुछ देर और रुक जाओगे  

वैसे भी मैं ही सोच रहा हूँ कि आप पूछोगे पर पूछा तो नहीं ! कितना इशारा करूँ कि पूछो! एक महान लेखक जो बे सर पैर की बातों में महारत हासिल कर चुका हो अच्छा नहीं लगता की बेसुरा ढोल बजाये जबकि उसके पास ढोल है सुर। 

एक नेत्रहीन मानव हाथी ख़रीदने मेले में जाता है उसे हाथी की कोई ज़रूरत भी थी पर दुनिया को दिखाना चाहता था कि नेत्रहीन भी हाथी ख़रीद सकता है कई हाथियों को टटोलने के बाद जब निर्णय नहीं ले पाता तो एक हाथी बेचने वाला जो उसे काफ़ी देर से तक रहा था पूछ ही बैठा कि क्या बात है उसे कोई हाथी पसंद नहीं आया

नेत्रहीन व्यक्ति ने कहा कि उसने हर तरफ़ से हाथी को टटोला, चार पाँव तो समझ पाया पर यह पता नहीं चल पाया कि सर किधर है और पूँछ किधर


कमरे में हाथी जिसे अंग्रेज़ी में एलीफ़ेंट उन रूम कहते हैं इसी कड़ी में है जब स्तिथि समझ से बाहर हो, कोई रास्ता सूझ रहा हो जैसे  आजकल कोरोना की महामारी में हो रहा है तो कमरे से हाथी को निकालें तो कैसे


अब आप जानते हैं कि मैंने इसका शीर्षक क्यों रखा है क्योंकि इसका शीर्षक है सिर और पूंछ नहीं। विश्व अर्थव्यवस्था, विश्व अर्थव्यवस्था के बारे में भूल जाओ, हमें क्या करना है? हम पहले भारतीय हैं और भारत पहले। कोरोना ने हमें सिखाया है कि आत्म्निर्भर

(Independent) समस्या यह है कि हम इस हाथी को नहीं जानते हैं, यह नहीं जानते हैं कि सिर किस तरफ है और पूंछ किस तरफ है, मांग पहले आती है या आपूर्ति पहले आती है। अगर कोई नौकरी नहीं है, तो खरीदने के लिए कोई पैसा नहीं है कि मांग कैसे बढ़ेगी और अगर मांग वृद्धि नहीं है जो आपूर्ति बनाने का उपयोग करता है? इसके विपरीत अगर आपूर्ति होती है तो मांग होगी। अफ्रीका से आए एक जूता विक्रेता की कहानी को याद रखें कि चूंकि कोई भी वहां जूते नहीं पहनता है, इसलिए उसकी कोई मांग नहीं है, जबकि देश के दूसरे हिस्से से रिपोर्टिंग करने वाले अन्य सेल्समैन विभिन्न आकारों के जूते से भरे जहाज के लिए अनुरोध करते हैं क्योंकि कोई भी वहां जूते नहीं पहनता है। और मांग पैदा करके एक बड़ी रकम बनाने का सौ प्रतिशत मौका है।

लेकिन यह अफ्रीका के बारे में एक कहानी थी जहां से हम भारतीय आए थे, मुझे यकीन नहीं है, मुझे उस पर मुकदमा नहीं करना चाहिए, लेकिन जो भी हो, हम बहुत उन्नत हैं, जूते, कपड़े पहनते हैं और क्या नहीं, लेकिन खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं।

मुझे लगता है कि 'आत्मानिर्भर' का अर्थ है कि हमारे पास जो है या जो नहीं है, उससे संतुष्ट होना चाहिए।


पिक्चर अभी बाक़ी है- पढ़ते रहिये 


. मैं, मुझे और मेरा-थका देने  वाला 'मैं


हाँ! मैं खुद को खुद थका सकता हूँ, उसके लिये किसी दूसरे की जरूरत नहीं है।


कभी कभी मैं खुद को सुनना बंद कर देता हूँ। कभी कभी नहीं, अक्सर। मैं दो 'मैं' का बना पुतला हूँ -एक जो बाहर है जो सबको दिखता है और दूसरा जो अंदर है केवल मुझको दिखता है। 


ये अंदर वाला 'मैं' ही मुझे बहुत थकाता है। बाहर वाला 'मैं' तो बहुत अच्छा है, मुझे बहत पसंद भी है। मेरी  किसी भी बात में दख़लंदाज़ी नहीं करता बल्कि मुझे प्रोत्साहित करता रहता है कि मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ। 


यह अंदर वाला 'मैं' बोलता रहता है, बातूनी कहीं का! ईमानदारी की बात तो यह है कि मैं इस अंदर वाले 'मैं' से हर बात में सहमत हूँ -जैसे सच बोलना चाहिये, ईमानदार होना चाहिये, दयाभाव रखना चाहिये, क्रोध नहीं करना चाहिये, अपना कर्म करूँ और फल से लगाव रखूँ आदि आदि। तब तो मैं इस अंदर वाले 'मैं' से शतप्रतिशत सहमत हो जाता हूँ  निभाने का वादा भी करता हूँ पर वादा करते ही वादा टूट भी जाता है। 


बार बार बोलता है कि जो खुद नहीं करता उसका प्रवचन करूँ। मैने कहा हाँ पर 'हां' कब भूल जाता हूँ पता ही नही चलता फिर शुरू हो जाता है उपदेश पर उपदेश। 


एक के बाद उपदेशात्मक लेख लिखता रहता था। अंदर वाले 'मैं' को दिया वादा याद आया और लिखना बंद कर दिया। फिर पता नहीं कैसे क़लम चलने लगी और लगा उपदेश देने मानो इस धरती पर मैं ही एक अकेला संत बचा हूं। 


कई बार वादा किया कि सिगरेट शराब पर हाथ नहीं लगाउँगा पर निभा नहीं पाया। टूटे वादों की लंबी लिस्ट है। कुछ वादे तो लगा कि मैंने निभाना शुरू कर दिया है पर जब उसे बताया तो बोला 'मेरे कहने पर नहीं, किसी और कारण से निभा रहे हो, डाक्टर के कहने पर' बात तो सच है। 


आश्चर्य की बात है कि इसकी सलाहों में कुछ तो वही हैं जो माता-पिता ने दीं थीं। उन्होंने कहा था  -बड़ों का सम्मान करो, जानबूझकर किसी को चोट मत पहुँचाओ, चोरी मत करो, और ऐसे ही कुछ और। माता-पिता की सलाह को मैं मानता रहा हूं, मानता हूँ ओर मानता रहुंगा पर इसका श्रेय अंदर वाले 'मैं' को क्यों दूं


कई बार कहा बहुत हुआ, बंद करो ये टोका टोकी। बाहर वाली दुनिया को तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ तेरा क्या अंदर छुपा रहता है, सामना तो मुझे करना पड़ता है   माने तब ! थका कर रख देता है! खुद शांति से रहता है, मुझे रहने देता है। 


आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ!!! 


थक गये हों तो फ़ुर्सत में पढ़ सकते हैं , अभी और भी है 



. मैं, मुझे और मेरा - मैं जो हूँ, सो हूँ !


एक उद्धरण से शुरू करता हूँ - 'जब जवान थे तो सोचता था दुनिया बदल दुंगा। समय बीता, शादी हुई चलो बीबी को बदलने से शुरू करता हूँ। फिर एक विद्वान ने कहा किसी को बदलने से पहले खुद को बदलना सीखो'


उसकी बात मान ली और अब पता चला खुद को बदलना सबसे मुश्किल काम है। मैं बाहरी चोला बदलने की बात नहीं कर रहा हूँ, तो मैं बडी आसानी से कर सकता था, किया भी। दाढ़ी मूँछ उगाईं, कुछ फोटो निकलवाए या निकाले और आने वाली पीढी के लिये एल्बम में सज़ादीं, इंटरनेट पर बिखेर दीं। आपने ने भी देखी होंगी, हैं ! कभी सर के बाल छोटे किये, कभी लंबे, कभी खुद पर गुमान हुआ, कौब्वाई वाला हैट डाला, कई टाइप के कपड़े बदले, यहाँ तक कि खादी का नेता टाइप कुर्ता सलवार भी। मतलब यह है कि बाहर से बदलना बहुत आसान था। 


क़ुदरत ने भी खूब साथ दिया, कई अवतारों में दिखा। नवजात शिशु, हाथ पाँव पर चलने वाला नन्हा बच्चा, जवां होता छोरा, जवान, अधेड़ और अब चाँदी जैसे केश वाला झुर्रियों वाला बूढ़ा। इन सब में मेरा कोई हाथ नहीं था। मैने भरसक कोशिश की कि जवान दिखता रहूँ जो आज भी करता हूँ पर सर की चाँदी और चेहरे की झुर्रियाँ सब भेद खोल देते हैं। 


मैं जानता हूँ मैं जो दिखता हूँ, मैं हूँ नहीं पर मैं उसकी बात भी नहीं कर रहा हूँ। मेरे लिखे चंद लेखों से लगता होगा मैं जैसे मैं कोई वेदों का ज्ञाता और आध्यात्मिकता का पुजारी ही नहीं  उन पर चलने वाला भी हूं। दिमाग़ी कसरत करता रहता हूं। अगर कभी मिले तो पता चलेगा कि ऐसा कुछ नहीं है। एक साधारण सा व्यक्तित्व जिसको आसानी से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। पर मानना पडेगा कि मैं अपने आप को जो हूँ नहीं वह प्रोजेक्ट करने में काफ़ी हद तक सफल रहा हूँ।  


अब तक कई शहर, घर, पड़ोसी, दोस्त, जानपहचान वाले, नौकरी, आदतें बदल चुका हूँ या बदलना पडा। इसके बाबजूद भी मैं नहीं बदला। 


बहुत कुछ बदला पर नहीं बदला तो मेरी  ईर्शा, चापलूसी, लालच, अभिमान, ग़ुस्सा, बदला लेने की ललक जो मेरा साथ नहीं छोड़ते, छोड़ना ही नहीं चाहते। मेरा एक पक्ष दया, समानता, निष्पक्षता की दुहाई देता है तो दूसरा जो कि हर समय भारी पड़ता कहता है कि ऐन केन प्रकारेण अपना मतलब साधो, भले उसमें कितने ही क्यों पिस जांय। 


रत्नाकर को ग़लतफ़हमी थी कि जो चोरी सीनाज़ोरी करके अपने परिवार का पालन करता है सही है क्योंकि नहीं करेगा तो कौन करेगा। पर सारा भ्रम टूट गया जब पत्नी और संतान ने साफ मना कर दिया कि वे उसके किसी भी गलत काम के पाप का भागीदार नहीं बनेंगे। एक ग्रिहस्थ होने के नाते मेरा फ़र्ज़ है कि अपने परिवार की हर संभव तरीक़े से भरण पोषण करूँ और इसी तर्क के सहारे अपने गलत तरीक़ों भी सही करार देता रहा। रत्नाकर तो बाल्मिकी बन गया पर मैं नहीं बदला। 


इतना सब कुछ होते हुये भी मेरे अंदर के 'मैं' को मैं नही बदल पाया। हमेशा चिपका रहता है। कई तरीक़े अजमाये। किताबेों ने सिखाया कि अंदर कुछ नहीं है, जो दिमाग कहता है करते जाओ। नैतिकता का भी सहारा लिया। घूमा फिरा, मंदिर मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारे छाने। कोशिश करता रहा कि इस 'मैं' को कहीं पटक कर जाऊँ पर नहीं कर पाया। 


अब मैने  अपने इस 'मैं' से समझौता कर लिया है। मैं इसको नही बदलने की कोशिश करुंगा और यह मुझे। लगता है अब सब ठीक है। दोनों ख़ुश हैं। 


मज़े की बात यह भी है कि मेरी  परछाईं जो मेरे साथ चलती है, जागती है, सोती है और कल तक मेरे और मेरे इस 'मैं' के बीच की तू तू मैं मैं का गवाह थी, अब चुप चाप रहती है। 


दुनिया के कोने कोनों में अध्यात्मवादियों की भरमार है, उनसे जलन भी होती है और उनपर अविश्वास भी। वे भी तो हम जैसे ही होंगे। कठिन परिस्तिथियों में वे भी टूट जाते होंगे! असली पहचान तो विषम परिस्तिथियों में ही होती है। कई तो जेलों की हवा भी खा रहे हैं। 


तो मैं उनमें अकेला नहीं हूँ जो लाख कोशिश के बाद टूट भी सकता है। 


बोर हो गये होंगे पर अब तक टिके हैं तो टिके रहिये कुछ देर और 



. मैं, मुझे और मेरा- मेरे सपने 


मुझे सपने आते हैं .....


-कौन सी बडी  बात है? सपने सबको आते हैं। तुम कोई खास हो क्या?


मैं बताता हूँ.....

- जानता हूँ क्या कहोगे! यही कि पाँच बजे उठता हूँ, मतलब फ़ोन पर अलार्म सेट कर रखा है पाँच बजे का, बजता है तो उठ जाता हूँ, पता नहीं सो रहा होता हूँ कि जाग रहा होता हूँ वग़ैरा वग़ैरा


मुझे बोलने तो दो, बीच में ही टोक देते हो.....

-तुम बोल तो रहे हो! हर समय वही शब्द दोहराते रहते हो! सपने में जो दिखता है सब सच लगता है जैसे वाक़ई हो रहा है वग़ैरा वग़ैरा


भगवान के लिये.....

इसमें भगवान कहाँ से गया? बात तुम्हारे और मेरे बीच तुम्हारे सपनों की हो रही है ! कई बार कहा मुझ में विश्वास रखो पर तुम हो कि सुनते ही नहीं


हमेशा.....

-हमेशा क्या? तुम मैं हो, मैं तुम हूँ। समझते क्यों नहीं


लेकिन एक रात.....

- कई बार कह चुके हो! तुम दौड़ने की कोशिश कर रहे थे पर तुम्हारे पाँव उठ ही नहीं रहे थे! पर तुम तो ज़िंदा हो, बाघ ने खाया तो नहीं जिसके देख कर भागने की कोशिश कर रहे थे!


इतना ही नहीं.....

-मालूम है ! तुमको सामने भगवान दिखे पर तुम उन तक पहुँच नहीं पाये क्योंकि तुम्हारे पाँव उठे ही नहीं! कम से कम तुमको दिखे तो, सपने में ही सही! भगवान तक पहुँचने के लिये बहुत कुछ करना पड़ता है। 


और फिर एक रात.....

-तुम अपने माता पिता के साथ बैठ कर खाना खा रहे थे जिनको दिवंगत हुये कई साल हो गये! जैसे तुम उनको याद करते हो, वे भी तुम्हें याद करते हैं, सबके माता पिता यही करते हैं


समझने की कोशिश करो.....

-कैसी कोशिश? कि तुम अपने चहेते रेस्टोरेंट टीजीआईएफ में दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे थे और अचानक वह एक बहुत बडी लेक बन गई जो चारों तरफ से पहाडों से घिरी थी और तुम को बाहर का रास्ता नहीं सूझ रहा था और तुम्हारे दोस्त भी नजर नहीं रहे थे ब्ला ब्ला .. कई बार कहा कि दारू कम पिया करो। 


इतना कठोर तो बनो.....

-कठोर और मैं? तुम खुद पर कठोर होते जा रहे हो। हर वक्त सपने देखते रहते हो। आफिस के सपने जहाँ अब तुम्हें कोई याद तक नहीं करता, दोस्त जो जाने कहाँ हैं और तुम्हारी तरह सपने देख रहे होंगे, जगहें जिनसे अब तुम्हें कोई लगाव नहीं। जरा खुली आँखों से देखो और सोचो। जो तुम सपनों में देखते हो वही हैं जो तुम जागते समय सोचते रहते हो। वह हाल की बात हो सकती है या वर्षों पुरानी बात। सपने जाग्रत अवस्था के दिमाग़ की परछाईं भर हैं जिनका संबंध उन लोगों से है जिनको तुम जानते थे या हो, उन जगहों से है जहाँ जहाँ तुम गये या जाते हो, सफलता-असफलता, प्यार-नफ़रत, दया, क्रोध, जैसी भावनाओं से है जिनसे तुम गिरे या गुज़र रहे हो। 


-मैं यह सब जानता हूँ और तुम नहीं क्योंकि सारा वज़न मेरे सर पर रहता है। मेरे पास कोई उपाय भी नही क्यों तुम्हारी सुप्त अवस्था में मुझे तुम्हारी देखभाल करनी है, तुम्हें चौकन्ना रखना है। कुछ सपने तुम्हें डरा भी सकते हैं ताकि तुम्हें याद रहे कि तुम जितना शक्तिशाली अपने को समझते हो, उतना हो नहीं। तुम्हारी भी कमज़ोरियाँ हैं, तुम डर भी सकते हो, रो भी सकते हो, मजबूर, बेसहारा हो सकते हो। 


-अपनी याददास्त पर गर्वित मत हो। यादें बहुत मतलबी होती हैं, पक्षपाती होती हैं। तुम्हारी ग़लतियों को नहीं बतायेंगी, जिन लोगों ने तुम्हारा हर हाल में साथ दिया उनकी याद नहीं दिलायेंगीं। 


-तुम कहते हो तुम्हें  वर्षों पुरानी बातें याद हैं, बकवास। पिछली रात या उससे पहली रात को क्या खाया था वो तक तो याद नहीं और बात करते हो वर्षों की! अगली घड़ी का तो पता नहीं और स्कीमें बनाते हो आने वाले कल, महीने, साल की


-जो कुछ है बस आज है, कल वाला कल चला गया, आने वाला कल का पता नहीं। आज में रहो, आज में जियो। नींद भी अच्छी आयेगी और सपने भी सुहावने


सपने सुहाने ...... देखते रहिये। आगे बढ़ते हैं। 



. मैं, मुझे और मेरा- मेरा बेड रूम


मेरा एक बेडरूम है।

(तो क्या ख़ास बात है, कइयों के पास होते हैं?)


इसकी चार दीवारें हैं।

(इसमें नया क्या है? सब कमरों की दीवार होती हैं तभी तो उनको कमरा बोलते हैं)


इसका एक दरवाज़ा है।

(तो? हर कमरे का कम से कम एक दरवाज़ा तो  होता ही  है)


कमरे में एक बिस्तर है

(निःसंदेह, तभी तो इसको बेडरूम कहते हैं)


इसमें एक खिड़की है।

(ठीक है, हर कमरे में नहीं होती पर कितनी बार और कब तक खिड़की खुली रखते हो?)


और बहुत कुछ है-एक ड्रेसिंग टेबल, एक कुर्सी के साथ छोटी सी राइटिंग टेबल, एक  लैपटॉप, एक क्लोज़ेट जिसको मंदिर बना रखा है, एक कपड़ों की आलमारी लौकर के साथ, एक पंखा, एयरकंडिशनर, हीटर, और..

(रुको, यह आराम करने की जगह है या गोदाम? )


पर मुझे तो सब चाहिऐं, सब ज़रूरत की चीजें आसपास हों तो अच्छा लगता है शुरू शुरू में केवल चटाई थी और मुझे नींद भी अच्छी आती थी। 

(तुम्हारा मतलब तुमको अब ठीक से नींद नहीं आती? )


कुछ ऐसा ही समझो पर यह सब अचानक नहीं हुआ समय लगा लोग कह रहे हैं उम्र बढ़ती है तो नींद कम होने लगती है

(तो तुम कहना चाहते हो कि जो इतना सामान तुमने अपने चारों ओर बटोर रखा है, उसका तुम्हारी कम नींद से कोई संबंध नहीं है)


मुझे मालूम नहीं है

(कहीं ये डर तो नहीं कि चोर ले जायेगा?)


इतना  भी नहीं, पूरी सीक्योरिटी है।

( तो फिर सोच रहे हो तुम्हारे बाद इस कमरे का, कमरे में रखे सामान का क्या होगा?)


सोचना तो पड़ता ही है

(दे दिवा दो, अपने रहते ! )


यही सोच रहा हूँ। 


नींद आने लगी हो तो, बाद में पढ़ सकते हैं😂


. मैं, मुझे और मेरा - नहीं पसंद तो नहीं पसंद, बात खतम, पीरियड


इस विषय पर लिखने का ट्रिगर एक बातचीत का सिलसिला है जो मेरी समझ से बाहर है। सोचा आपसे बाँटू और आपके विचार जानूँ। 


"अब मनुष्य हो, या जानवर या जगह, मुझे नहीं पसंद तो नहीं पसंद, बात खतम, पीरियड।" उसका आख़री फ़ैसला  जैसा था। 


शायद यह डाइलाग आपने सुना होगा या मारा होगा। अगर नहीं तो आप इस दुनियाँ के हैं ही नहीं। 


जगह की बात तो समझ में आती है क्योंकि वे अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं कह सकते।  कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उन्हें कोई पसंद करता है या नही। जंगली जानवरों को भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि वे उम्मीद भी नहीं करते।  पालतू जानवरों की बात दूसरी है क्योंकि वे आश्रित हो चुके हैं, थोडा सा पुचकार दो, थोडा सा खाना डाल दो, ख़ुश। नाराज़ हुये तो ज्यादा से ज्यादा काट  लेंगें। 


मनुष्यों की बात अलग है। वे महशूश करते हैं, बोल सकते हैं और जरूरत पड़े तो पलट कर वार भी कर सकते हैं। 


इसके बाद भी हम कुछ लोगों को पसंद नहीं करते। कहने को तो कहा गया है कि मानव को मानव से प्यार करना चाहिये पर होता तो नहीं, क्यों


ईर्शा? हमें उसकी सफलता से, ऊँचे घराने से या और कुछ नहीं तो उसकी अच्छी शक्ल से ईर्शा है तो है, इसलिये हम उसे पसंद नही करते। जलन है तो है


तुच्छ परिवार, जाति या रंग या धर्म का है इसलिये हम उसे पसंद नहीं करते। 


उसने हमसे या हमारे किसी नज़दीकी से बुरा व्यवहार किया इसलिये हम उसे पसंद नहीं करते। 


हमें उसकी कुछ आदतें अच्छी नहीं लगती इसलिये हम उसे पसंद नहीं करते। 


अपना काम ठीक से नहीं करता इसलिये पसंद नहीं।


ऐसे ही और कई कारण हो सकते हैं किसी को पसंद करने का।


मुश्किल तब होती है जब आपको उस नापसंद को बर्दास्त करना पड़ता है। आफिस में बास हो, या सहकर्मी, या घर में नौकरानीया कोई रिस्तेदार  


क्योंकि उन्हें तो हटा सकते, नज़रअंदाज़ कर सकते तो बस एक ही काम कर सकते हैं उनकी पीठ पीछे उनकी कमियाँ निकालना। कमियाँ भी इतनी कि गिनती भी खुद अपनी गिनती कर सके। रोज एक नई कमी दिख ही जाती है। उनके हर काम में कोई कोई मन्सुबा है जो आपको परेशान करने के लिये ही किया गया है। 


मेरा एक दोस्त अपने पड़ोसी की कमियाँ निकालते नहीं थकता। मैने कहा क्यों उससे खुलके बात कर लो। बोला, इस क़ाबिल है ही नही। मैने कहा कहीं भी तुम्हारे बारे में यही सोचता होगा, बोला मेरी बला से। 


एक साहब अपने आफिस के साथी को पसंद नहीं करते। उसकी आदतें पसंद नहीं हैं। मैने कहा, कुछ तो अच्छाइयाँ होंगी? बोला क्या फ़र्क़ पड़ता है, पसंद ही नहीं है। 


सच्चाई तो यह है कि तो कोई पूरी तरह से परिपूर्ण है पूरी तरह से गया गुज़रा। हर किसी में कुछ कमियाँ हैं, कुछ अच्छाइयाँ। कमियों को नज़रअंदाज़ कर दें और अच्छाइयों को स्वीकार तो समस्या ही खतम। पर ऐसा होता नहीं। 


गांधी जी हवाई जहाज़ से यात्रा कर रहे थे। पीछे बैठा गोरा पूरे समय गांधी जी को गालियाँ लिखता रहा और जब थक गया तो सब पन्नों को आलपिन से जोड़ कर उतरने से कुछ देर पहले, गांधी जी को थमा दिया। गांधी जी ने लिखे पन्नों पर सरसरी निगाह डाली, आलपिन निकालकर जेब में रख ली और काग़ज़ों को फाड़कर रद्दी टोकरी में डाल दिया। पास बैठे यात्री ने पूछा कि सारे पन्ने तो फाड़कर फेंक दिये केवल आलपिन ही बचाई। गांधी जी ने कहा, आलपिन ही काम की थी। 


कहीं ऐसा तो नहीं कि कमी खुद में है और दिखती दूसरों में! या फिर अगर हम किसी को किसी भी कारण पसंद नहीं करते तो हमें उसमें कुछ भी अच्छा नहीं दिखता


आप क्या कहते हैं


आपके साथ भी यही होता हो तो कहिये 😩


१०. मैं, मुझे और मेरा- कचोटती संदेह की कसक-(कसक)


जाने कब इस संदेह के घेरे से निजात मिलेगी। पता नहीं कब से मैं इसके घेरे में हूँ या यह मेरे घेरे में। कभी कभी अचानक उबल कर बाहर जाता है। सामने खडे होकर मुछे ललकारने लगता है, कुछ इस तरह:


मैं- मैं ज़िन्दगी में विश्वास रखता हूँ। 

कसक- कौन सी ज़िन्दगी? जिसका अंत निश्चित है?

(मेर पास कोई जबाब नहीं और ही वही रटे रटाये शब्दों की तोतागिरी करना चाहता हूँ)


मैं- मैं भगवान में विश्वास करता हूँ और नियमित रूप से पूजा भी करता हूँ।

कसक- भगवान! तुमने देखा है उसको? पुरुष है कि स्त्री ? पूजा भी इसलिये करते हो कि अपने किये पापों की सज़ा से डरते हो, कहीं उसकी नज़रों जमें गिर जाओ ! पूजा भी एक दिखावा है, जिसमें दिल है दिमाग

(बात तो सही है, मंत्र जाप करने, घंटी बजाने, गीता रामायण पढ़ने का तो नाम भर है, दिल और दिमाग तो कहीं और घूमता रहता है )


मैं- मेरा विश्वास है कि जब तक अन्यथा साबित हो हर व्यक्ति विश्वास के लायक है।

कसक- बाबजूद इसके की उन्हीं लोगों से तुमने धोखा खाया जिन पर तेरा अटूट विश्वास था

(और उपाय भी क्या था? जब कोई शलीके से झूठ बोल रहा हो तो विश्वास हो ही जाता है। 


मैं- मेरा मानना है ज़िन्दगी में हमेशा ख़ुश रहना चाहिये, भरपूर आनंद लेना चाहिये इसका।

कसक- ठीक! कुछ आदतें पड़ गई हैं - मसालेदार खाना, दारू सारू, रुपया पैसा, और तुम इन्हें आनंद कहते हो? आँखों मे पट्टी बाँधे घूमते हो कि सडक पर भूखे नंगे दिखें और तुम इसे आनंद कहते हो

(मैं जानता हूँ पर चाहूँ भी तो सबकी समस्या तो हल नहीं जाकर सकता।)


मैं- मैं अपनी तरफ से जितना हो सके लोगों की मदद करता हूँ, कपड़े लत्ते, नक़द आदि का दान भी देता रहता हूँ

कसक - तुम एक नंबर के पाखंडी हो! पुराने किसी काम आने वाले कपड़े देते हो, मंदिरों की पेटियों में कुछ फटे पुराने नोट घुसा देते हो और इसे दान कहते हो, सोचते हो ग़रीबों का भला होगा

(पुराने ही सही पर किसी ग़रीब के तो काम ही जाते हैं! मंदिर भी तो कुछ पुन्य का काम करते ही हैं।)


मैं- मैं अपने बीबी बच्चों से प्यार करता हूँ।

कसक- गलत। तुम मतलबी हो। तुम उनसे उम्मीद रखते हो कि बदले में वे तुम्हारी पूजा करें, तुम्हारे बेफिजूल हुकुम बजायें और जब बूढ़े हो जाओ तो तुम्हारी देखभाल करें। 

(इसमें बुराई क्या है? सारी श्रिष्टि ही लेन देन पर टिकी है।)


मैं - ठीक है, ठीक हैमैं अपने आप से तो प्यार कर सकता हूँ कि भी नहीं?

कसक- फिर गलत। तुम अपने शरीर से प्यार करते हो। तुम शरीर नहीं हो और शरीर तुम नहीं। आत्मा से प्यार करो। 

(श्वस्थ  आत्मा भी तो श्वस्थ शरीर में ही रह सकती है, इसमें ग़लती क्या है??) 


मैं और कसक कभी खतम होने वाले द्वंद्व में जी रहे हैं। सोचने और करने के लिये भी स्वतंत्र नहीं। कहीं मैं और कसक एक ही तो नहीं


पसंद आया हो तो जरूर बतायें 


इति of the beginning 



July 2020










No comments:

Post a Comment

Universal Language of Love and Hate.

Universal Language of Love and Hate. Sometimes, I wonder, why humans developed languages or even need them? If we look back, we will realize...