Saturday, September 12, 2020

मैं जो हूँ, सो हूँ !

. मैं, मुझे और मेरा - मैं जो हूँ, सो हूँ !


एक उद्धरण से शुरू करता हूँ - 'जब जवान थे तो सोचता था दुनिया बदल दुंगा। समय बीता, शादी हुई चलो बीबी को बदलने से शुरू करता हूँ। फिर एक विद्वान ने कहा किसी को बदलने से पहले खुद को बदलना सीखो'


उसकी बात मान ली और अब पता चला खुद को बदलना सबसे मुश्किल काम है। मैं बाहरी चोला बदलने की बात नहीं कर रहा हूँ, तो मैं बडी आसानी से कर सकता था, किया भी। दाढ़ी मूँछ उगाईं, कुछ फोटो निकलवाए या निकाले और आने वाली पीढी के लिये एल्बम में सज़ादीं, इंटरनेट पर बिखेर दीं। आपने ने भी देखी होंगी, हैं ! कभी सर के बाल छोटे किये, कभी लंबे, कभी खुद पर गुमान हुआ, कौब्वाई वाला हैट डाला, कई टाइप के कपड़े बदले, यहाँ तक कि खादी का नेता टाइप कुर्ता सलवार भी। मतलब यह है कि बाहर से बदलना बहुत आसान था। 


क़ुदरत ने भी खूब साथ दिया, कई अवतारों में दिखा। नवजात शिशु, हाथ पाँव पर चलने वाला नन्हा बच्चा, जवां होता छोरा, जवान, अधेड़ और अब चाँदी जैसे केश वाला झुर्रियों वाला बूढ़ा। इन सब में मेरा कोई हाथ नहीं था। मैने भरसक कोशिश की कि जवान दिखता रहूँ जो आज भी करता हूँ पर सर की चाँदी और चेहरे की झुर्रियाँ सब भेद खोल देते हैं। 


मैं जानता हूँ मैं जो दिखता हूँ, मैं हूँ नहीं पर मैं उसकी बात भी नहीं कर रहा हूँ। मेरे लिखे चंद लेखों से लगता होगा मैं जैसे मैं कोई वेदों का ज्ञाता और आध्यात्मिकता का पुजारी ही नहीं  उन पर चलने वाला भी हूं। दिमाग़ी कसरत करता रहता हूं। अगर कभी मिले तो पता चलेगा कि ऐसा कुछ नहीं है। एक साधारण सा व्यक्तित्व जिसको आसानी से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। पर मानना पडेगा कि मैं अपने आप को जो हूँ नहीं वह प्रोजेक्ट करने में काफ़ी हद तक सफल रहा हूँ।  


अब तक कई शहर, घर, पड़ोसी, दोस्त, जानपहचान वाले, नौकरी, आदतें बदल चुका हूँ या बदलना पडा। इसके बाबजूद भी मैं नहीं बदला। 


बहुत कुछ बदला पर नहीं बदला तो मेरी  ईर्शा, चापलूसी, लालच, अभिमान, ग़ुस्सा, बदला लेने की ललक जो मेरा साथ नहीं छोड़ते, छोड़ना ही नहीं चाहते। मेरा एक पक्ष दया, समानता, निष्पक्षता की दुहाई देता है तो दूसरा जो कि हर समय भारी पड़ता कहता है कि ऐन केन प्रकारेण अपना मतलब साधो, भले उसमें कितने ही क्यों पिस जांय। 


रत्नाकर को ग़लतफ़हमी थी कि जो चोरी सीनाज़ोरी करके अपने परिवार का पालन करता है सही है क्योंकि नहीं करेगा तो कौन करेगा। पर सारा भ्रम टूट गया जब पत्नी और संतान ने साफ मना कर दिया कि वे उसके किसी भी गलत काम के पाप का भागीदार नहीं बनेंगे। एक ग्रिहस्थ होने के नाते मेरा फ़र्ज़ है कि अपने परिवार की हर संभव तरीक़े से भरण पोषण करूँ और इसी तर्क के सहारे अपने गलत तरीक़ों भी सही करार देता रहा। रत्नाकर तो बाल्मिकी बन गया पर मैं नहीं बदला। 


इतना सब कुछ होते हुये भी मेरे अंदर के 'मैं' को मैं नही बदल पाया। हमेशा चिपका रहता है। कई तरीक़े अजमाये। किताबेों ने सिखाया कि अंदर कुछ नहीं है, जो दिमाग कहता है करते जाओ। नैतिकता का भी सहारा लिया। घूमा फिरा, मंदिर मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारे छाने। कोशिश करता रहा कि इस 'मैं' को कहीं पटक कर जाऊँ पर नहीं कर पाया। 


अब मैने  अपने इस 'मैं' से समझौता कर लिया है। मैं इसको नही बदलने की कोशिश करुंगा और यह मुझे। लगता है अब सब ठीक है। दोनों ख़ुश हैं। 


मज़े की बात यह भी है कि मेरी  परछाईं जो मेरे साथ चलती है, जागती है, सोती है और कल तक मेरे और मेरे इस 'मैं' के बीच की तू तू मैं मैं का गवाह थी, अब चुप चाप रहती है। 


दुनिया के कोने कोनों में अध्यात्मवादियों की भरमार है, उनसे जलन भी होती है और उनपर अविश्वास भी। वे भी तो हम जैसे ही होंगे। कठिन परिस्तिथियों में वे भी टूट जाते होंगे! असली पहचान तो विषम परिस्तिथियों में ही होती है। कई तो जेलों की हवा भी खा रहे हैं। 


तो मैं उनमें अकेला नहीं हूँ जो लाख कोशिश के बाद टूट भी सकता है। 


बोर हो गये होंगे पर अब तक टिके हैं तो टिके रहिये कुछ देर और 






July 2020

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