९. मैं, मुझे और मेरा - नहीं पसंद तो नहीं पसंद, बात खतम, पीरियड!
इस विषय पर लिखने का ट्रिगर एक बातचीत का सिलसिला है जो मेरी समझ से बाहर है। सोचा आपसे बाँटू और आपके विचार जानूँ।
"अब मनुष्य हो, या जानवर या जगह, मुझे नहीं पसंद तो नहीं पसंद, बात खतम, पीरियड।" उसका आख़री फ़ैसला जैसा था।
शायद यह डाइलाग आपने सुना होगा या मारा होगा। अगर नहीं तो आप इस दुनियाँ के हैं ही नहीं।
जगह की बात तो समझ में आती है क्योंकि वे अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं कह सकते। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उन्हें कोई पसंद करता है या नही।
जंगली जानवरों को भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि वे उम्मीद भी नहीं करते। पालतू जानवरों की बात दूसरी है क्योंकि वे आश्रित हो चुके हैं, थोडा सा पुचकार दो, थोडा सा खाना डाल दो, ख़ुश। नाराज़ हुये तो ज्यादा से ज्यादा काट लेंगें।
मनुष्यों की बात अलग है। वे महशूश करते हैं, बोल सकते हैं और जरूरत पड़े तो पलट कर वार भी कर सकते हैं।
इसके बाद भी हम कुछ लोगों को पसंद नहीं करते। कहने को तो कहा गया है कि मानव को मानव से प्यार करना चाहिये पर होता तो नहीं, क्यों?
ईर्शा? हमें उसकी सफलता से, ऊँचे घराने से या और कुछ नहीं तो उसकी अच्छी शक्ल से ईर्शा है तो है, इसलिये हम उसे पसंद नही करते। जलन है तो है!
तुच्छ परिवार, जाति या रंग या धर्म का है इसलिये हम उसे पसंद नहीं करते।
उसने हमसे या हमारे किसी नज़दीकी से बुरा व्यवहार किया इसलिये हम उसे पसंद नहीं करते।
हमें उसकी कुछ आदतें अच्छी नहीं लगती इसलिये हम उसे पसंद नहीं करते।
ओ अपना काम ठीक से नहीं करता इसलिये पसंद नहीं।
ऐसे ही और कई कारण हो सकते हैं किसी को पसंद न करने का।
मुश्किल तब होती है जब आपको उस नापसंद को बर्दास्त करना पड़ता है। ओ आफिस में बास हो, या सहकर्मी, या घर में नौकरानी, या कोई रिस्तेदार ।
क्योंकि उन्हें न तो हटा सकते, न नज़रअंदाज़ कर सकते तो बस एक ही काम कर सकते हैं उनकी पीठ पीछे उनकी कमियाँ निकालना। कमियाँ भी इतनी कि गिनती भी खुद अपनी गिनती न कर सके। रोज एक नई कमी दिख ही जाती है। उनके हर काम में कोई न कोई मन्सुबा है जो आपको परेशान करने के लिये ही किया गया है।
मेरा एक दोस्त अपने पड़ोसी की कमियाँ निकालते नहीं थकता। मैने कहा क्यों न उससे खुलके बात कर लो। बोला, ओ इस क़ाबिल है ही नही। मैने कहा कहीं ओ भी तुम्हारे बारे में यही सोचता होगा, बोला मेरी बला से।
एक साहब अपने आफिस के साथी को पसंद नहीं करते। उसकी आदतें पसंद नहीं हैं। मैने कहा, कुछ तो अच्छाइयाँ होंगी? बोला क्या फ़र्क़ पड़ता है, पसंद ही नहीं है।
सच्चाई तो यह है कि न तो कोई पूरी तरह से परिपूर्ण है न पूरी तरह से गया गुज़रा। हर किसी में कुछ कमियाँ हैं, कुछ अच्छाइयाँ। कमियों को नज़रअंदाज़ कर दें और अच्छाइयों को स्वीकार तो समस्या ही खतम। पर ऐसा होता नहीं।
गांधी जी हवाई जहाज़ से यात्रा कर रहे थे। पीछे बैठा गोरा पूरे समय गांधी जी को गालियाँ लिखता रहा और जब थक गया तो सब पन्नों को आलपिन से जोड़ कर उतरने से कुछ देर पहले, गांधी जी को थमा दिया। गांधी जी ने लिखे पन्नों पर सरसरी निगाह डाली, आलपिन निकालकर जेब में रख ली और काग़ज़ों को फाड़कर रद्दी टोकरी में डाल दिया। पास बैठे यात्री ने पूछा कि सारे पन्ने तो फाड़कर फेंक दिये केवल आलपिन ही बचाई। गांधी जी ने कहा, आलपिन ही काम की थी।
कहीं ऐसा तो नहीं कि कमी खुद में है और दिखती दूसरों में! या फिर अगर हम किसी को किसी भी कारण पसंद नहीं करते तो हमें उसमें कुछ भी अच्छा नहीं दिखता ?
आप क्या कहते हैं?
आपके साथ भी यही होता हो तो कहिये 😩
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