कोरोना महामारी का एक दर्दनाक पहलू
पिता जी कहते थे जब वे आठ साल के थे तो उनके माता पिता दोनों प्लेग की महामारी में चल बसे थे। दो छोटे भाई भी थे। सबको उनके ताऊ ताई जी ने पाला।
कुछ सालों का अनुमान गलत भी हो सकता है। पिता जी का जनम १९०५ में हुआ था तो जब वे ८ साल के रहे होंगे तो १९१८ में उनके माता पिता का देहांत हुआ होगा। १९१८ में ही बंबई फ्लू के नाम से महामारी फैली थी जो आई तो यूरोप से थी पर पहले बंबई में फैली थी तो बंबई फ्लू के नाम से जानी गई, तब के भारत, इंडिया या हिंदुस्तान में।
प्लेग था यह फ्लू पर गाँव के गाँव ख़ाली हो गये थे। दफ़नाने तक के लिये लोग या तो बचे नहीं थे या डर के मारे कोई घर से बाहर नहीं निकलना चाहता होगा। बस एक के ऊपर एक रख कर फूँक दिये गये, कैसे भी। कितना मार्मिक द्रिश्य रहा होगा।
लगभग १०० साल बाद आज कोरोना ने भी वही डर पैदा किया है। तब की तरह हालात उतने बुरे नहीं हैं, क्योंकि चिकिस्ता व्यवस्त्था लाखों गुना सुधर चुकी है।
रिकार्ड के लिये दिसंबर २०१९ में चीन के हुवान शहर से चलकर एक कीड़ा पूरे विश्व में फैल गया केवल दो या तीन महीने के अंदर। कीड़ा भी इतना छोटा कि दूरबीन से भी ठीक से नजर न आये। देखते देखते पहले सौ, फिर हज़ार, फिर हज़ारों और लाखों तक लोग इसकी चपेट में आ गये। किसी को पता नहीं कि कब जायेगा, जायेगा भी कि नहीं?
गिनती जारी है, इतने बीमार, इतने ठीक हुये, इतने चल बसे। किसको पता था कि रिशीकपूर, इरफ़ान खान, सरोज खान, पंडित जसराज, कई और जिनकी अर्थी के पीछे सैकड़ों लोग होते और जो इस बीमारी से भी नहीं मरे, परिवार जनों को अकेले ही उनके म्रित शरीर की अंतिम गति करनी पड़ी।
सबसे दुख तो तब होता है जब कोरोना बीमारी से म्रितक की अंतिम गति में उसके अपने परिवारवाले भी शामिल नहीं हो पाते।
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