Monday, October 9, 2017

सडकसतो आ गई, अब?

बनचूरी के वो दिन (२)- सडक तो आ गई, अब? (भाग २)

वर्षों से जिसका इंतज़ार था आख़िर वो सडक गाँव मे पहुँच ही गई। हम सब ख़ुश थे कि अब पैदल नही जाना पड़ेगा। इसके अलावा सडक और क्या कुछ दे सकती है का न ज्ञान था न किसी ने बताया ही। सडक, बिजली और पानी प्रगति की निशानी है। ज़ाहिर  है सडक आने से गाँव का विकास होना चाहिये था। पर क्या ऐसा कुछ हुआ? आइये देखते हैं।

बनचूरी बहरहाल बस अड्डा बन चुका था। पास के सार और रावतगांव के लोग आकर यहीं से बस लेते। कोटद्वार से सुबह वाली बस आती , सवारी  ले जाती। अब ड्राइवर, कंड्क्टर और बस से उतरने वाली और बस की इंतज़ार  मे बैठी सवारी बिना चाय पानी के कैसे रहते। सो चाय की दुकान भी खुल गई जिसमें हल्का नास्ता भी मिलने लगा। देखते देखते दो दुकानें भी खुल गईं। जरूरत का सब सामान मिलने लगा। गाँव मे लगभग हर घर मे दूध देने वाली गाय हुआ करती थी। कुछ ने दूध बच्चों को देने और घी बनाने की जगह दुकान मे देना शुरू कर दिया। नक़द पैसे मिल जाते। पहले खेत मे सरसों उगाई जाती थी और तेल निकालने के लिये गाँव मे ही पिरोने के लिये चली जाती। तेल साल भर छौंक लगाने के काम आता। खाने मे श्वाद था। पता चला कोटद्वार मे अच्छे दाम मिलते हैं। सरसों के दाने भी चले गये।

इससे बड़ा झटका तब लगा जब सब खेती छोड़कर नवयुवक कोटद्वार की तरफ़ जाने लगे। अब तक तो दूध, सरसों, ही जा रहा था अब तो जवान लड़के भी जाने लगे। क्यों न जाते? नक़द जो दिखने लगा था। कम मेहनत ज्यादा नक़द। खेतों मे शरीर तोड़ने से तो कोटद्वार मे काम करना ज्यादा फ़ायदे वाला काम था। एक बार कोटद्वार तक आ गये तो दिल्ली कौन सी दूर है? कमाई का एक हिस्सा मनीआर्डर करके घर भेज दो, सब सुखी। खेतिहर अर्थ व्यवस्था मनीआर्डर व्यवस्था बन गई।

जब मनीआर्डर आने लगे। दुकान से पिसा पिसाया आटा मिलने लगा। कौन जांदरू घुमाय, कौन गधन या गुदड के घट मे गेहूँ पिसाने जाय? कुटा कुटाया चावल मिलने लगा। कौन ओखली मे सर दे? डालडा, नमक, गुड, चीनी, चाय, कपड़ा- जो चाहिये सब कुछ मिलने लगा तो भला खेतों मे कौन हड्डिया तोड़ेगा? बैल पालो, भेड़ बकरी पालो, गोट करो, हल लगाओ, बीज बोओ, रखवाली करो। जाडा, गर्मी, बरसात झेलो। इससे अच्छा बाहर जाओ। खुद भी खाओ परिवार को भी पालो। सडक का फिर क्या फायदा?

कैसे भी करके अगले दस- पंद्रह साल तक खेत आबाद रहे। सडक बनाने वाले अपना काम कर गये। नेताओं ने वाह वाही बटोर ली । हम जैसे कुछ जो थोड़ी बहुत शिक्षा पा चुके थे पहले ही शहरी बन चुके थे। कहीं न कहीं हम भी चूक गये। फिर आया मनरेगा । रही सही कसर उसने पूरी कर दी। आधा ही सही पर बिना काम किये या आधा सा कामकिये जेब मे नक़द आने लगा। मनरेगा वाले भी खुस, गाँव वाले भी खुस। धीरे धीरे पहले खेतिहर जानवर गये, फिर गोट, फिर जुताई बुआई । एक के बाद एक खेत बंजर होते गये। खेतों के साथ घर भी बंजर हो रहे हैं।

सुना है कि मौजूदा सरकार ने सत्ता संभालते ही दारू की मोबाइल दुकान की मंज़ूरी दे दी। अब पौखाल नही जाना पड़ेगा। दवा का न सही दारू का इंतज़ाम तो हो ही गया। भांग की खेती बडे पैमाने पर करके जनता का मनोबल बढ़ सकता है।

इसमें सडक का कोई दोष नही है। हां, सडक और बिजली आने से गाँव का विकास तो नही हुआ। पलायन आसान जरूर हो गया। अब भी ज्यादा कुछ नही बिगड़ा है। संभाला जा सकता है। कुछ नव जवानों को आगे आना होगा। जानकार लोगों से सलाह लेकर गाँव व की मिट्टी मे क्या उगाया जाय, कहाँ बेचा जाय, कैसे बेचा जाय जैसे सवालों का आंकलन करके काम करना होगा।

बहस जारी रहे।

हरि लखेडा
अक्टूबर २०१७





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