बनचूरी के वो दिन-(१) वफ़ादार काल्लू
काल्लू कोई ऐसा वैसा कुत्ता नही था। सबसे बडी बात तो यह कि हो बनचूरी मे जन्मा, पला और बड़ा हुआ था। जो अपने आप मे एक बरदान सा है। अपना गाँव सबको ही स्वर्ग लगता है। वह इस बात से भी साबित होती है कि काल्लू बनचूरी गाँव मे एकमात्र कुत्ता था जिसने गाँव की रखवाली का ज़िम्मा अपने सर ले रखा था। कहने को उसके माँ बाप और तीन भाई भी थे । उन दिनों यह आम बात थी कि एक गाँव से दूसरे गाँव मे कुत्तों का आना जाना लगा रहता था। जब कोई व्यक्ति दूसरे गाँव से आता और थोड़ा सा भी प्यार दिखाता कुत्ता उसके पीछे हो लेता। पर काल्लू ने यह परंपरा खत्म कर दी। काल्लू ने गाँव के चारों तरफ़ अपने तरीक़े से सीमा रेखा खींच दी थी। उस सीमा रेखा के अंदर जंगली जानवर तो क्या कोई कुत्ता भी नही झाँक सकता था। पर एक दिन काल्लू को भी एक जीवन संगिनी मिल गई। गाँव के किसी आदमी के साथ किसी दूसरे गाँव से आई थी और काल्लू ने भी कोई आनाकानी नही की।
अगर आपको यह लग रहा है कि बनचूरी के लोगों को कुत्तों से प्यार नही था इसी लिये कोई और कुत्ता वहाँ नही आया तो आप उनकी दरियादिली से परिचित ही नही हैं। वास्तव मे बनचूरी वाले बडे दिल वाले हैं पर क्या करें काल्लू को ही यह प्यार किसी और के साथ बाँटना मंज़ूर नही था। जब कभी भी कोई भूला भटका कुत्ता या कुतिया गाँव मे आई तो काल्लू ने उसे तुरंत रवाना कर दिया। ऐसा भी नही था कि बनचूरी वाले दो चार कुत्ते या कुतिया और नही पाल सकते थे पर काल्लू को तो एक मात्र एकाधिकार चाहिये था। ख़ैर अब तो काल्लू भी घरवाला हो गया था। उसको एक कल्ली जो मिल गई थी। काल्लू का काल्लू नाम किसने रखा और क्यों यह तो मालूम नही पर लगता है उसके बचपन मे किसी गाँव वाले ने अपने बचपन मे ग़ुस्से या प्यार से यह नाम रखा होगा। काल्लू का मतलब शायद कम अक़्ल से था जैसे हम किसी को ग़ुस्से से या प्यार से बुद्धू बोल देते हैं। जो कोई भी काल्लू या लो ले करके आवाज़ लगाता सब दौड़े चले आते। जो भी मिलता खा लेते और पूँछ हिलाकर वापस अपनी जगह पर जम जाते या फिर किसी दूसरी आवाज़ की इंतज़ार करते। काल्लू और कल्ली का रात का आराम स्थल पलख्वाल वालों की तिवारी निश्चित थी। बाकी इधर उधर सो जाते।
काल्लू की खिंची हुयी सीमा रेखा गाँव की बीच की धुरी से लगभग आधा मील तक चारों और गोलाकार फैली थी। बांई ओर पल्ली सौलदणी, दांई ओर गुलेधार। सामने डगुंल्डा, पीछे आम का पेड़। भनक मिलते ही काल्लू के कान खड़े हो जाते और दौड़ पड़ता घुसपैठिए को भगाने। सारे गाँव को पता चल जाता कि कुछ ख़तरा है।कल्ली भी कुछ दूर उसके साथ जाती पर बीच मे से ही वापस आ जाती। बाकी थोड़ा भौंक कर नमक हलाली करते और कहीं छुप जाते। अनजान व्यक्ति गाँव मे आता तो गाँव का कोई भी व्यक्ति के पुचकारने पर चुप हो जाते।
काल्लू के कई बहादुरी के कारनामे गिनाये जाते। कई बार वह बाघ से लड़ा था और उसे सीमा से बाहर करके ही लौटा था। उसके रहते गाँव के किसी बछड़े या मेमने को अनाथ नही होना पडा, न ही किसी गाय या बकरी को अपना बच्चा खोना पडा। उससे पहले कई बार बाघ घात लगाकर सन्नी से बछड़े या बकरी उठा चुका था। गाँव मे सुअरों ने भी गर्दी मचा रखी थी । काल्लू के होश संभालते ही सब बंद हो गया था। कई बार ज़ख़्मी हुआ। राणा सांगा से अधिक घाव थे उसके शरीर पर।
गाँव वाले उसका पुरा ख़्याल रखते। अच्छाखासा लंबा चौड़ा था। एकदम काले रंग का। चिकना गठीला बदन। चौकन्नी आँखें, खड़े कान, फुर्तीली चाल। देखते देखते उसका परिवार भी बढ़ा पर उसकी सारी वफ़ादारी गाँव के लिये थी। उम्र कब किसका इंतज़ार करती है। काल्लू भी बूढ़ा हो चला था। कुछ भी हो पर गाँव की रक्षा का भार लिया था तो निभाता रहा। और एक दिन रात के तीसरे प्रहर मे जब सब लोग गहरी नींद मे थे, काल्लू भौंकता हुआ सौलदणी की तरफ़ गया । आवाज सुनते ही कुछ लोग पीछे पीछे गये । आवाज बंद हो चुकी थी। पता चला कि घायल अवस्था मे एक पेड़ के पास पडा है। बाघ तो भाग गया पर काल्लू को काफ़ी घाव लगे थे। गाँव वाले उठाकर घर लाये, बहुत उपचार किया । बचा नही पाये।
फिर कोई काल्लू पैदा ही नही हुआ।
सर्वसूचनार्थ :
1. काल्लू का असली नाम कुछ और था जो तब भी उचित नही था और मौजूदा बदलते सामाजिक परिवेश मे तो बिलकुल भी नही लिया जाना चाहिये।
2. बनचूरी केवल एक पर्याय है उन सब गाँवों का जो उत्तराखंड राज्य मे हिमालय की तलहटी मे बसे हैं।
हरि लखेडा
सितंबर, २०१७
काल्लू कोई ऐसा वैसा कुत्ता नही था। सबसे बडी बात तो यह कि हो बनचूरी मे जन्मा, पला और बड़ा हुआ था। जो अपने आप मे एक बरदान सा है। अपना गाँव सबको ही स्वर्ग लगता है। वह इस बात से भी साबित होती है कि काल्लू बनचूरी गाँव मे एकमात्र कुत्ता था जिसने गाँव की रखवाली का ज़िम्मा अपने सर ले रखा था। कहने को उसके माँ बाप और तीन भाई भी थे । उन दिनों यह आम बात थी कि एक गाँव से दूसरे गाँव मे कुत्तों का आना जाना लगा रहता था। जब कोई व्यक्ति दूसरे गाँव से आता और थोड़ा सा भी प्यार दिखाता कुत्ता उसके पीछे हो लेता। पर काल्लू ने यह परंपरा खत्म कर दी। काल्लू ने गाँव के चारों तरफ़ अपने तरीक़े से सीमा रेखा खींच दी थी। उस सीमा रेखा के अंदर जंगली जानवर तो क्या कोई कुत्ता भी नही झाँक सकता था। पर एक दिन काल्लू को भी एक जीवन संगिनी मिल गई। गाँव के किसी आदमी के साथ किसी दूसरे गाँव से आई थी और काल्लू ने भी कोई आनाकानी नही की।
अगर आपको यह लग रहा है कि बनचूरी के लोगों को कुत्तों से प्यार नही था इसी लिये कोई और कुत्ता वहाँ नही आया तो आप उनकी दरियादिली से परिचित ही नही हैं। वास्तव मे बनचूरी वाले बडे दिल वाले हैं पर क्या करें काल्लू को ही यह प्यार किसी और के साथ बाँटना मंज़ूर नही था। जब कभी भी कोई भूला भटका कुत्ता या कुतिया गाँव मे आई तो काल्लू ने उसे तुरंत रवाना कर दिया। ऐसा भी नही था कि बनचूरी वाले दो चार कुत्ते या कुतिया और नही पाल सकते थे पर काल्लू को तो एक मात्र एकाधिकार चाहिये था। ख़ैर अब तो काल्लू भी घरवाला हो गया था। उसको एक कल्ली जो मिल गई थी। काल्लू का काल्लू नाम किसने रखा और क्यों यह तो मालूम नही पर लगता है उसके बचपन मे किसी गाँव वाले ने अपने बचपन मे ग़ुस्से या प्यार से यह नाम रखा होगा। काल्लू का मतलब शायद कम अक़्ल से था जैसे हम किसी को ग़ुस्से से या प्यार से बुद्धू बोल देते हैं। जो कोई भी काल्लू या लो ले करके आवाज़ लगाता सब दौड़े चले आते। जो भी मिलता खा लेते और पूँछ हिलाकर वापस अपनी जगह पर जम जाते या फिर किसी दूसरी आवाज़ की इंतज़ार करते। काल्लू और कल्ली का रात का आराम स्थल पलख्वाल वालों की तिवारी निश्चित थी। बाकी इधर उधर सो जाते।
काल्लू की खिंची हुयी सीमा रेखा गाँव की बीच की धुरी से लगभग आधा मील तक चारों और गोलाकार फैली थी। बांई ओर पल्ली सौलदणी, दांई ओर गुलेधार। सामने डगुंल्डा, पीछे आम का पेड़। भनक मिलते ही काल्लू के कान खड़े हो जाते और दौड़ पड़ता घुसपैठिए को भगाने। सारे गाँव को पता चल जाता कि कुछ ख़तरा है।कल्ली भी कुछ दूर उसके साथ जाती पर बीच मे से ही वापस आ जाती। बाकी थोड़ा भौंक कर नमक हलाली करते और कहीं छुप जाते। अनजान व्यक्ति गाँव मे आता तो गाँव का कोई भी व्यक्ति के पुचकारने पर चुप हो जाते।
काल्लू के कई बहादुरी के कारनामे गिनाये जाते। कई बार वह बाघ से लड़ा था और उसे सीमा से बाहर करके ही लौटा था। उसके रहते गाँव के किसी बछड़े या मेमने को अनाथ नही होना पडा, न ही किसी गाय या बकरी को अपना बच्चा खोना पडा। उससे पहले कई बार बाघ घात लगाकर सन्नी से बछड़े या बकरी उठा चुका था। गाँव मे सुअरों ने भी गर्दी मचा रखी थी । काल्लू के होश संभालते ही सब बंद हो गया था। कई बार ज़ख़्मी हुआ। राणा सांगा से अधिक घाव थे उसके शरीर पर।
गाँव वाले उसका पुरा ख़्याल रखते। अच्छाखासा लंबा चौड़ा था। एकदम काले रंग का। चिकना गठीला बदन। चौकन्नी आँखें, खड़े कान, फुर्तीली चाल। देखते देखते उसका परिवार भी बढ़ा पर उसकी सारी वफ़ादारी गाँव के लिये थी। उम्र कब किसका इंतज़ार करती है। काल्लू भी बूढ़ा हो चला था। कुछ भी हो पर गाँव की रक्षा का भार लिया था तो निभाता रहा। और एक दिन रात के तीसरे प्रहर मे जब सब लोग गहरी नींद मे थे, काल्लू भौंकता हुआ सौलदणी की तरफ़ गया । आवाज सुनते ही कुछ लोग पीछे पीछे गये । आवाज बंद हो चुकी थी। पता चला कि घायल अवस्था मे एक पेड़ के पास पडा है। बाघ तो भाग गया पर काल्लू को काफ़ी घाव लगे थे। गाँव वाले उठाकर घर लाये, बहुत उपचार किया । बचा नही पाये।
फिर कोई काल्लू पैदा ही नही हुआ।
सर्वसूचनार्थ :
1. काल्लू का असली नाम कुछ और था जो तब भी उचित नही था और मौजूदा बदलते सामाजिक परिवेश मे तो बिलकुल भी नही लिया जाना चाहिये।
2. बनचूरी केवल एक पर्याय है उन सब गाँवों का जो उत्तराखंड राज्य मे हिमालय की तलहटी मे बसे हैं।
हरि लखेडा
सितंबर, २०१७
No comments:
Post a Comment