अब मै राशन की क़तारों मे नजर आता हूँ
अपने खेतों से विछडने की सज़ा पाता हूँ।
(जगजीत सिंह की एसबम से)
हांलाकि यह ग़ज़ल वर्षों पहले लिखी और गाई गई थी, फिर भी न जाने क्यों लगा कि आज भी इसमें कुछ सच्चाई है। गाँवों से शहरों और कस्बों की तरफ़ चले आने के कई कारण हैं । उनमें से एक कारण गाँव की कठिन जिंदगी भी है। ऐसा नही कि गाँव से बाहर की जिंदगी कठिन नही, जैसे कि इस ग़ज़ल से लगता है, पर फिर भी लोग चले ही आते हैं। भला क्यों कोई पुंगडियों (खेत )से खल्याण (खलिहानों) से बुर्या (बोरी) मे भरकर घर पर दब्ल्यूं (अनाज रखने के बाँस से बुने ड्रम) मे रखे साफ सुथरा अनाज छोड़कर राशन की दुकान का सड़ा गला अनाज के लिये लाइन लगायेगा? वैसे आज तो हालात यह है कि गाँव मे भी लोग राशन का सड़ा गला अनाज खाने लग गये हैं क्योंकि खेत बंजर पड़े हैं, खलिहान नजर नही आते और दब्लों का रिवाज ही नही रहा।
राशन की दुकानों मे तो अब क़तार नही लगानी पडती होगी, ऐसा मै मानता हूँ क्योंकि वर्षों से किसी राशन की दुकान पर गया ही नही। १९७०-७५ के दौरान जरूर जाना पड़ता था क्योंकि बाहर गेहूँ दिखता ही नही था और अगर दिख भी गया तो जेब पर भारी पड़ता था। पीएल ४८० का लाल गेहूँ उस समय सबने ही खाया होगा। फिर हरित क्रांति आई और देश खाद्यान्न मे आत्म निर्भर हो गया। आज जो सरकार चला रहे हैं उनको कम से कम इस बात का श्रेय उस समय की सरकार को देना ही चाहिये और साथ मे उन किसानों को जो तबसे पूरी आबादी का भरण पोषण कर रहे हैं फिर भी आत्म हत्या करने को मजबूर हैं। विश्वास कीजिये इसमें न राजनीति है और न ढूँढने की चेष्टा करें।
राशन की दुकान न सही, छोटी मोटी नौकरी के लिये तो क़तार मे लगना ही पड़ता है। जब तक ठीक ठाक नौकरी नही मिलती, गुज़ारे के लिये जो भी मिले करना पड़ता है। उस समय गाँव की याद जरूर आती होगी। लगता होगा इससे अच्छा तो खेत ही जोत लेते। कस्बों और शहरों की धूल भरी, गरमी मे तपती जिंदगी, अंजाम लोगों के तानों मे भले ही दो टाइम रोटी मिल रही होंगी पर लगता होगा गाँव की हरा भरा वातावरण, साफ सुथरी हवा, गाँव का भाईचारा मे आधे पेट ही ठीक था।
फिर भी वह वापस नही जाता। कैसे भी करके गुज़ारे लायक काम मिल ही जाता है। अब जब गाँव जाता है तो उसके नये फ़ैशन के कपड़े और जूते देखकर माता पिता और गाँव वाले मान जाते है कि असली जिंदगी तो गाँव से बाहर ही है। माता पिता शादी करवा देते हैं। फिर एक दिन वह अपनी पत्नी को भी लेकर चला जाता है। पाकेट के हिसाब से रहने की व्यवस्था भी कर लेता है। परिवार बढ़ता है। साथ मे ख़र्चे भी और ज़िम्मेदारियाँ भी।
अब वह छुट्टियों मे गाँव जाता है। शहरों मे पले बच्चों को गाँव अच्छा नही लगता। बोली भी नही समझ पाते। माता पिता जब तक हैं , बीच बीच मे चला जाता है। एक दिन वे भी नही रहते।
अब वह कभी गाँव नही जाता। गाँव की याद तो आती है पर जा ही नही पाता। अब कोई अपराध बोध भी नही रहा।
हरी लखेडा
अक्टूबर २०१७
निवेदन: आप सोचते होंगे गाँव से बाहर आराम की जिंदगी जीने वाला मैं एक ही विषय पर बार बार क्यों अलापता रहता हूँ। आपका सोचना जायज़ है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे कहकर तुलसी पाँच सौ साल पहले चल बसे। पर फिर किसी ने कहा कि बीती बिसार दे, आगे की सुध ले। आज गाँवों मे बिजली है, सडक है, पानी तो पहले से ही था, हाई स्कूल है, प्राइमरी चिकित्सा केंद्र है और साधन भी हैं। सरकार भी मदद करने को तैयार है । तो क्या बात है कि नव जवान कस्बों और शहरों की तरफ़ ही जाना चाहते हैं? इस सवाल का जबाब नई पीढी को ढूँढना होगा।
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