बनचूरी के वो दिन-(२) एक बार सड़क आ जाय, बस! ( भाग १)
गाँव से जब भी कोई दोगड्डा -कोटद्वार से लौटता तो बताता कि अपर गढ़वाल मे लैंसडौन, पौडी, सतपुली, श्रीनगर आदि जगहों के लिये मोटर गाड़ी के लिये सड़के हैं और बसें दौड़ती रहती हैं। हम सोचते काश हमारे गाँव तक भी सडक होती, बस आती जाती। पाँच, छ: साल के रहे होंगे तब तक न सडक देखी थी न बस। बच्चे क्या,
गाँव मे कई बडे लोगों ने ख़ासकर औरतों ने भी नही देखी थी। बस सुना था। ठीक वैसे ही जैसे आज भी कई गाँव के बच्चों ने रेल के बारे मे सुना तो है पर देखी नही। बस किताबों मे या आजकल टी वी पर तस्वीरें देखी हैं। आसमान मे कभी कभी जहाज़ भले ही दिख जांय पर जमीन पर सडक या रेल अब भी दूर है। सात साल की उम्र मे जब दुगड्डा होते हुये कोटद्वार गये तो पहली बार सडक, बस और रेल देखी। सुबह सुबह यूपी रोडवेज़ और जी एम ओ यू की बसें खड़ी दिखीं, लोगों को बैठते देखा। लगा एक बार बनचूरी मे भी सडक चली जाय , बस! बनचूरी क्या पूरा लोअर गढ़वाल इसके सपने देख रहा था।
आप सोच रहो होंगे मै कोटद्वार पहुँचा कैसे। पैदल। १९४८ से लेकर १९५७ के आस पास तक यही किया। रास्ते आजतक याद हैं। (1) बनचूरी से प्रात: सूरज निकलने से पहले- रिखेडा - जयगांव- पौखाल- सौड नदी- पुराणकोट- खो नदी के किनारे किनारे दुगड्डा तक पैदल सांय चार पाँच बजे तक लगभग २० मील- वहाँ से कोटद्वार तक १० मील बस से। बरसात मे सौड और खो नदी मे पानी भर जाता पर किसी तरह पार हो जाते। (2) बनचूरी- प्रात: सूरज निकलने से पहले- खोबरा-कस्याली-थलनदी- गुजरगली- महाबगढ के नीचे नदी (नाम याद नही आ रहा है, शायद मालिनी) के साथ साथ चौकीघाट - भाबर- कोटद्वार सारा पैदल - लगभग २० मील। यह रास्ता बरसात मे नदी मे पानी बढ़ जाने के कारण सुरक्षित नही था। लगभग दस साल ऐसे ही चला।
यही सोचते रहे, एक बार सडक आ जाय, बस!
फिर पता चला दुगड्डा से कांडी तक सडक को मंज़ूरी मिल गई है। श्री जगमोहन सिँह नेगी जी, कांडी गाँव के निवासी, कांग्रेस पार्टी से इलाक़े के एम एल ये, जो बाद मे मंत्री भी रहे, का योगदान रहा। सोचा अब तो आ ही जायेगी। पर पहले कांडाखाल मे बैठी रही, कभी पौखाल तो कभी नालीखाल। सडक ही तो थी, थक जाती होगी! ख़ैर पैदल का रास्ता काफ़ी कम हुआ।
दादी पुछती- ये बाबा मीन सूण गाँव मा बस आण वाल च? कन हूंद बस? मैंने कहा दादी आने ही वाली है, खुद ही देख लेना । इसी उम्मीद मे एक दिन दादी चल बसी। वैसे दादी को बस का करना भी क्या था, वो तो बस अड्डे तक जाने के क़ाबिल भी नही थी। शायद सोचती होगी, बस आ जाने से उनकी उम्र बढ़ जायेगी। आ जाती तो कम से कम किसी तरह जाकर देख ही लेती। सरकार को कहाँ ध्यान रहता है इन बातों का?
१९६३ के नज़दीक गिरते पड़ते कांडी पहुँची। बनचूरी तो प्लान मे था भी नही। कुछ न होने से तो यही काफ़ी था। अगले १५ साल तक भ्रिगुखाल तक बस से आना जाना रहा। इस बीच कुछ और दादा दादी जिन्होंने बस नही देखी थी चल बसे।
सोच वही, एक बार सडक आ जाय, बस!
और एक दिन आ भी गई। शायद १९९० के आस पास । सडक के साथ बस भी आई। कई बच्चों और बूढ़ों ने पहली बार बस देखी। बड़ा अच्छा लगा।
सडक तो आ गई, अब? अगले अंक मे।
गाँव से जब भी कोई दोगड्डा -कोटद्वार से लौटता तो बताता कि अपर गढ़वाल मे लैंसडौन, पौडी, सतपुली, श्रीनगर आदि जगहों के लिये मोटर गाड़ी के लिये सड़के हैं और बसें दौड़ती रहती हैं। हम सोचते काश हमारे गाँव तक भी सडक होती, बस आती जाती। पाँच, छ: साल के रहे होंगे तब तक न सडक देखी थी न बस। बच्चे क्या,
गाँव मे कई बडे लोगों ने ख़ासकर औरतों ने भी नही देखी थी। बस सुना था। ठीक वैसे ही जैसे आज भी कई गाँव के बच्चों ने रेल के बारे मे सुना तो है पर देखी नही। बस किताबों मे या आजकल टी वी पर तस्वीरें देखी हैं। आसमान मे कभी कभी जहाज़ भले ही दिख जांय पर जमीन पर सडक या रेल अब भी दूर है। सात साल की उम्र मे जब दुगड्डा होते हुये कोटद्वार गये तो पहली बार सडक, बस और रेल देखी। सुबह सुबह यूपी रोडवेज़ और जी एम ओ यू की बसें खड़ी दिखीं, लोगों को बैठते देखा। लगा एक बार बनचूरी मे भी सडक चली जाय , बस! बनचूरी क्या पूरा लोअर गढ़वाल इसके सपने देख रहा था।
आप सोच रहो होंगे मै कोटद्वार पहुँचा कैसे। पैदल। १९४८ से लेकर १९५७ के आस पास तक यही किया। रास्ते आजतक याद हैं। (1) बनचूरी से प्रात: सूरज निकलने से पहले- रिखेडा - जयगांव- पौखाल- सौड नदी- पुराणकोट- खो नदी के किनारे किनारे दुगड्डा तक पैदल सांय चार पाँच बजे तक लगभग २० मील- वहाँ से कोटद्वार तक १० मील बस से। बरसात मे सौड और खो नदी मे पानी भर जाता पर किसी तरह पार हो जाते। (2) बनचूरी- प्रात: सूरज निकलने से पहले- खोबरा-कस्याली-थलनदी- गुजरगली- महाबगढ के नीचे नदी (नाम याद नही आ रहा है, शायद मालिनी) के साथ साथ चौकीघाट - भाबर- कोटद्वार सारा पैदल - लगभग २० मील। यह रास्ता बरसात मे नदी मे पानी बढ़ जाने के कारण सुरक्षित नही था। लगभग दस साल ऐसे ही चला।
यही सोचते रहे, एक बार सडक आ जाय, बस!
फिर पता चला दुगड्डा से कांडी तक सडक को मंज़ूरी मिल गई है। श्री जगमोहन सिँह नेगी जी, कांडी गाँव के निवासी, कांग्रेस पार्टी से इलाक़े के एम एल ये, जो बाद मे मंत्री भी रहे, का योगदान रहा। सोचा अब तो आ ही जायेगी। पर पहले कांडाखाल मे बैठी रही, कभी पौखाल तो कभी नालीखाल। सडक ही तो थी, थक जाती होगी! ख़ैर पैदल का रास्ता काफ़ी कम हुआ।
दादी पुछती- ये बाबा मीन सूण गाँव मा बस आण वाल च? कन हूंद बस? मैंने कहा दादी आने ही वाली है, खुद ही देख लेना । इसी उम्मीद मे एक दिन दादी चल बसी। वैसे दादी को बस का करना भी क्या था, वो तो बस अड्डे तक जाने के क़ाबिल भी नही थी। शायद सोचती होगी, बस आ जाने से उनकी उम्र बढ़ जायेगी। आ जाती तो कम से कम किसी तरह जाकर देख ही लेती। सरकार को कहाँ ध्यान रहता है इन बातों का?
१९६३ के नज़दीक गिरते पड़ते कांडी पहुँची। बनचूरी तो प्लान मे था भी नही। कुछ न होने से तो यही काफ़ी था। अगले १५ साल तक भ्रिगुखाल तक बस से आना जाना रहा। इस बीच कुछ और दादा दादी जिन्होंने बस नही देखी थी चल बसे।
सोच वही, एक बार सडक आ जाय, बस!
और एक दिन आ भी गई। शायद १९९० के आस पास । सडक के साथ बस भी आई। कई बच्चों और बूढ़ों ने पहली बार बस देखी। बड़ा अच्छा लगा।
सडक तो आ गई, अब? अगले अंक मे।
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