(16) अपनी बोली(भाषा ?) के लिये घडियाली आंशू
भावुकता मे बह जाना भी एक कला है। हम पहाडी भी इस कला मे किसी से कम नही हैं। ज्यादा नही तो कम से कम तीन पीढी तो अब शहरी हो चुकी हैं। गाँवों से पलायन तो लगभग सौ साल पहले शुरू हो गया था, या फिर उससे भी पहले। फ़र्क़ इतना था कि काफ़ी लोग कुछ समय या रिटायरमेंट के बाद गाँव वापस चले जाते थे। बहुत कम लोग थे जो सहित परिवार शहरों मे ही रह गये।
देखते देखते एक नियति सी बन गई कि जो एक बार आया वो वापस गया ही नही। जो शहरों मे पैदा हुआ और पला बढ़ा वो गाँव से तो अलग हो ही गया था बोली से भी अलग हो गया। आज यही पीढी बोली को बचाने की चर्चा कर रही है। जानते हैं होगा कुछ नही पर बतियाने मे क्या जाता है। खुद अपनी बोली को नही बोल पाते हैं , न उनके बच्चे बोलते हैं पर भावुक बनकर बोली बचाने की चिंता जरूर दर्शाते हैं। ठीक अपने राजनेताओं की तरह जो भारतीय संसक्रिति की दुहाई देते हैं पर अपने बच्चों को प्राइवेट या विदेशी स्कूलों मे भेजते हैं। इनको घडियाली आंशू ही कहा जा सकता है।
आजकल यह बात चर्चित है कि हमारी अपनी पहचान लुप्त होती जा रही है क्योंकि हम घर पर अपनी भाषा नही बोलते जिससे हमारे बच्चे भी नही सीख पाते। कुमांयुनी, गढ़वाली और टिहरी तीनों बोलियों की यही दशा है।
सच्ची बात तो यह है कि हम जो बाहर आ गये हैं वही इसको बचाने की बात कर रहे हैं। शायद इस बात का दुख है कि हम अपने बच्चों के नही सिखा पाये। सिखाते कैसे? कहीं तो पहाडी कहलाने का डर था तो कहीं इस बात का संदेह कि बच्चा कनफूज हो जायेगा। बाहर हिन्दी, स्कूल मे हिन्दी या इंग्लिश, और घर मे पहाडी। बडे शहरों की बात छोड़िये, गाँवों से सटे क़स्बों मे भी अब ये बोलियाँ दम तोड़ती नजर आ रही हैं।
स्कूलों मे शुरू से ही हिन्दी सिखाई जाती रही क्योंकि मैदानी इलाक़ों मे रोज़गार पाने का वही एक मात्र रास्ता था। हिन्दी राष्ट्र भाषा भी है। लगभग वैसे ही जैसे शहरों मे इंग्लिश सिखाई जाती है ताकि देश और विदेश मे कहीं भी रोज़गार पा सकें। पिछले १७ वर्षों मे, जब से उत्तराखंड राज्य बना है मैदानी इलाक़ों से लोग गाँवों तक पहुँच चुके हैं। वो तो गढ़वालीों उतनी नही सीखे जितना मूल लोग कच्ची पक्की हिन्दी सीख गये। सही बात है जहाँ काम करना है वहाँ की बोली तो आनी ही चाहिये। लेकिन अगर गाँव से बाहर काम करना है तो गाँव की बोली काम नही आयेगी।
भाषा अपनी बात समझाने का और दूसरे की बात समझने का एक माध्यम है। भाषा की पहुँच जितनी व्यापक होगी उतना अच्छा। इसमें भाउकता का कोई स्थान नही है। मै यह नही कहता कि अपनी बोली भूल जाइये, जरूर बोलिये, बच्चों को सिखाइये पर ध्यान रहे कि बाहरी दुनिया बहुत बड़ी है और साथ मे निर्मम भी। वहाँ भाउकता नही ताक़त काम आती है। आज जो भी पहाडी ऊँचे पदों पर हैं वो न तो बोली जानने और न पहाडी होने की वजह से हैं, बल्कि अपनी योग्यता की वजह से हैं। यह योग्यता हिन्दी और अंग्रेज़ी की जानकारी से आई।
जो लोग उत्तराखंड के स्कूलों मे गढ़वाली पढ़ाने की बात करते हैं या गढ़वाली को राज्य की भाषा बनाने की बात करते हैं उनकी गढ़वाली भाषा के लिये प्यार अपनी जगह है और ज़मीनी हक़ीक़त अलग । मै तो चाहूँगा कि जितना जल्दी हो सके प्राइमरी स्कूल से ही हिंदी के साथ साथ अंग्रेज़ी भी पढ़ायें। जब तक शिक्षा का स्तर शहरों के बराबर नही होगा, गाँव के शिक्षित नव युवक शहरों मे दूसरे तीसरे दर्जे मे ही गिने जायेंगे।
हरि लखेडा
सितंबर, २०१७
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