Hari Lakhera
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From: Hari Lakhera <hplakhera@yahoo.co.in>
To: Hari Prasad Lakhera <hplakhera@yahoo.co.in>
Sent: Sunday, 15 April, 2018, 12:25:55 PM IST
Subject: भैया बाई बाई
भैया बाई बाई विजय उम्र के उस मोड़ पर था जब सारी दुनिया खूबसूरत लगती है। खासकर औरतें, चाहे वो टीचर हो या कोई रिश्तेदार । साथ पढ़ने वाली कोई हम उम्र बालिका हो तो बेहतर। बालिका सुंदर हो तो कहने ही क्या। और अगर बालिका भी मीठी मीठी बातें करने में माहिर हो तो सोने पे सुहागा । हर समय यही ख्याल कि कब दिखाई देगी। मेरा नाम जोकर का चिन्तू याद आया? दसवीं कक्षा का छात्र था, विजय । छोटा-सा कस्बा । सारी स्कूल में गिनती की लड़कियां ही पढ़ती थीं । समय ही ऐसा था । पढ़ लिखकर क्या करेगी । घर ही तो संभालना है । खाना बनाने, कढाई बुनाई, साफ सफाई, लालन-पालन में जिंदगी बितानी है । चिठ्ठी पत्री लिखना पढना सीख जाय वही काफी है । घर घर में शिलाई ऊषा ने चलाई वाली तर्ज पर लडकियों को पाल पोश कर बड़ा किया जाता था । पार्वती उर्फ़ पर्तू भी उसी दौर की थी। घर वाले स्कूल इस लिए नहीं भेज रहे थे कि पढ़ लिखकर अफसर बनेगी । जैसे ही ठीक ठाक रिस्ता मिल जाय, हाथ पीले कर के ससुराल बिदा कर देंगे । तब तक दो चार अक्षर और सीख जायेगी, घर बैठ कर फालतू दिमाग चाटेगी, स्कूल भेज दो। घर में अकेली संतान । सबकी चहेती, कुछ ज्यादा ही । ज्यादा लाड प्यार से बिगड़ने का डर तो रहता है पर पर्तू ऐसी लगती नहीं थी। संयोग की बात कि विजय की कक्षा मे चालीस लड़को के बीच बस एक ही लडकी । संयोग ही था कि पर्तू भी आगे की उसी बेंच पर जिस पर विजय । दोनों का स्वभाव अलग । एक पढ़ाई में मशगूल, दूसरी चपड चपड में । ए तो शुक्र था कि टीचर के रहते भीगी बिल्ली बन जाती। पारिवारिक परिवेश भी अलग-अलग । एक मध्यवर्गीय पांच भाई बहनों में, दूसरी पैसे वाले घर की अकेली लाडली। एक के पास गिनती के कमीज़ पैंट, दूसरी हर रोज नई पोशाक में । शुरू शुरू में तो कैसे हो, क्या हाल है तक ही चला पर धीरे-धीरे झिझक खुलने लगी । फिर पढाई में भी मदद मागने लगी। विजय बड़ी खुशी से सारे नोट्स थमा देता । एक दिन जब फीस लाना भूल गयी तो कहने लगी मेरे घर जाकर ले आऔ। विजय ने कहा वहां मुझे कौन जानता है, जो मेरा विश्वास करेगा और पैसे पकडा देगा। बोली, मेरे घर सब तुमको जानते हैं, मैंने सब बता दिया है कि तुम मेरे दोस्त हो। शक़्ल से भी जानते हैं ।कहना पर्तू ने भेजा है । अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मुझे उसका घर का नाम कैसे पता चला । पहली बार सुना तो खूब हंसा, पर फिर यह सोचकर कि नाराज़ न हो जाय, कहा बडा प्यारा नाम है । खैर घर गया और पैसे लाकर स्कूल आफिस मे जमा भी कर दिये । फिर क्या था । समय निकलता गया। प्यार अंदर ही अंदर फलता-फूलता गया । बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । पढ़ने में दिल कम और इंतजार में ज्यादा । साथ ही यह भी डर कि इंप्रेशन जमाने के लिए क्लास में अब्बल रहना होगा, यही तो एक प्लस प्वाइंट है । सो दिन के समय जागती आँखों में ख्वाब और रात में देर देर तक जाग कर पढाई। उसके घर के आसपास फटकते रहना और साथ में यह भी डर कि कहीं देख न ले और देख लिया तो क्या बहाना बनाऊंगा । कुछ शारिरीक रख रखाव की तरफ भी ध्यान जाने लगा । रोज धुले धुलाए कपड़े बदल कर आना । भाई बहन कुछ कहते तो बस यूँ ही कहकर टाल देता । मां डांटती तो कह देता टीचर ने रोज कपड़े बदल कर आने को कहा है । प्यार में थोड़ा बहुत झूठ तो चलता ही है । ऐसा नहीं कि पर्तू दूसरे लड़कों से बात नहीं करती थी। सबसे हाय हैलो तो चलता ही था । यहां तक तो ठीक था पर अगर कुछ लंबा खिन्चता नजर आता तो चिढ़ जाता, गुस्सा भी आता, जलन भी होती, डर भी लगता कि कहीं फिसल न जाए । पर करता भी क्या, हक तो जमा नहीं सकता था । साल कब और कैसे निकल गया पता ही नहीं चला । फाइनल परीक्षा सर पर आ गई । परीक्षा की तैयारी के लिए छुट्टियाँ शुरू । सब तैयारी में लग गए । स्कूल में मिलने का सवाल ही नहीं, घर से बाहर दिखाई नहीं देती । ऊपर से परीक्षा का भूत। आज की तरह मोबाइल तो थे नहीं जो बतिया लेते । परीक्षा भी पार हो गई । अब परीक्षा फल की इंतजार और पास के कस्बे में आगे पढ़ने के लिए एडमिशन की तैयारी । गर्मियों की छुट्टियाँ ख़त्म हुईं, रिजल्ट आया, पास के कस्बे में एडमिशन हुआ, पर्तू से विदाई ली, फिर मिलने का वादा किया। पर्तू फ़ेल हो गई थी । कोई मलाल भी नहीं । पास हो भी जाती तो क्या होता । कस्बे में आगे स्कूल नहीं, पर्तू दूसरी जगह जा नहीं सकती। पढ़ाई शेष । कपड़ो और किताबों से भरा संदूक उठा कर विजय चला नयी दुनिया में । समय तो ठहरता नहीं है । कभी वापस कस्बे में आया भी तो पर्तू से मुलाकात नहीं हुई । घर जाकर मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । यही सोचकर रह गया कि पता नहीं क्या सोचेगी। शायद शादी ही हो गई हो। ग्यारहवीं की परीक्षा का समय था, होम एग्जामिनेशन, ज्यादा बोझ नहीं । स्कूल जा रहा था तो देखा कि पर्तू कुछ लडकियों के साथ नास्ते की दुकान पर नास्ता कर रहे है । पहले तो विश्वास नहीं हुआ, फिर गौर से देखा । हाँ है तो वही। चाहता तो था कि सीधे जाकर मिल ले पर बाकी लड़कियां क्या कहेंगी सोचकर रुक गया और इंतजार करता रहा कि उसकी नजर पड़े, आँखे मिले, पहचान ले तो बात बने । ऐसा ही हुआ । नजर मिली। अरे विजय तुम? पास आई। बताया होम साइंस के प्रेकटिकल देने कन्या विद्यालय में आई है । साथ ही हंसी और बोली इससे बार पास होकर रहेगी ।बताया परीक्षा के बाद शाम की बस से सबके साथ लौट जायेगी । विजय के बारे में पूछा । बोली लडके हो, पढकर अफसर तो बनोगे ही। विजय ने शाम को बस अड्डे पर मिलने का वादा किया । बस के टाइम से पहले ही पहुंच गया, कहीं चली न जाए । एक घंटे बाद सब लडकियों के साथ पर्तू आई। सामान बस की छत पर रखवाया । पर्तू बस में खिड़की वाली सीट पर बैठ गयी। खिसकती बस से हाथ हिलाते हुए बोली भैया बाई बाई । आओ तो मिलना ज़रूर । शायद साथ की लड़कियां कुछ और न समझ ले इसलिए भैया कहा होगा । पहले तो नाम से ही बुलाती थी । या फिर उस के दिल में विजय के लिए ओ ख्याल नहीं जो विजय के दिल में उसके लिए था । विजय ने कभी बताया भी नहीं, उसको क्या सपना आता ?