Saturday, November 18, 2017

उत्तराखंड,  जितना देखा और समझा (पर्यटक की नजर से)

पिछले कुछ महीनों से मै फेशबुक और संबंधित ग्रुप्स मे पर उत्तराखंड के बारे मे लिखता रहा हूँ जो ज्यादा कुछ नही बस मेरे व्यक्तिगत अनुभवों का सारांश रहा है। आप मे से कुछ दोस्तों ने पढ़ा, सराहा और अपने खुद के विचारों से भी मेरा ज्ञान वर्धन किया। आप सबका धन्यवाद। इतना बड़ा उत्तराखंड है, कहने को बहुत कुछ है। आप कह सकते हैं बाहर बैठकर उत्तराखंड को समझना मुश्किल है। पर कोई कहीं भी रहे, नाता तो नही टूटता। आज के उत्तराखंडी कहीं न कहीं से आकर यहाँ बसे थे। देखा जाय तो सारी मानव जाति अफ़्रीका से आरंभ हुई और प्रिथ्वी के कोने कोने मे फैल गई। ढीक इसी तरह लगभग पिछले १०० बर्सों से हम उत्तराखंडी भी देश और विदेश मे बस गये हैं और आगे भी यही होता रहेगा। यह एक सच्चाई है।

मैने भी बनचूरी गाँव से चलकर कोटद्वार, नज़ीबाबाद, सहारनपुर मे किताबें पलटते हुये जिंदगी मे दाख़िला लिया। सामान्य स्तिथि मे उत्तराखंड से इतना ही नाता रहता पर १९६२ मे एम काम की परीक्षा के लिये एक थीसिस लिखने की मजबूरी आन पड़ी। चाहता तो किसी और विषय पर लिखकर खानापूर्ति कर लेता पर कुछ प्रेणना मिली और गढ़वाल की यातायात व्यवस्था पर लिखने की सोचा। मेरे गाइड प्रोफ़ेसर श्री एम सी शर्मा ने कहा कि नये और ताज़े
आँकड़े जुटाने होंगे। कुछ तस्वीरें भी हों तो और भी अच्छा। कुलदीप, मेरे कालेज के मित्र,  ने आग्फा बाक्स कैमरा दे दिया।

फिर क्या था , निकल गये यात्रा पर गर्मियों की छुट्टियों में, आंकडे जुटाने के लिये। कोटद्वार मे यू पी रोडवेज़, जी एम ओ यू  से शुरू करके, डिस्ट्रिक्ट हेड क्वाटर्स पौडी तक पहुँचा। रास्ते मे कोटद्वार से सात पुल पार करके सतपुली मे रुकना जरूरी था। यही ओ जगह थी जहाँ १९५२ मे नय्यार नदी के उमड़ते बहाव मे कई बसें बह गईं थी और कई ड्राइवर और सहायक आहत हुये। तब तक दस साल हो चुके थे पर निशान बाकी थे। दुकानदारों से दर्दनाक घटना का विवरण मिला। कुछ फोटो भी लीं। पौडी मे पता चला कि बहुत सारी सड़के मिलिटरी के आधीन है सो उनसे भी आँकड़े जुटा लूँ तो अच्छा रहेगा। मिलिटरी कंटोनमेंट लैंसडौन मे था, अब भी है। सतपुली मे पता चला कि लैंसडौन जाने का स्मार्ट कट है। गुमखाल से पैदल। शायद ६/७ मील। तब तक मोटर रोड नही थी। गुमखाल तक बस से गया और पैदल लैंसडौन पहुँचा। चलते चलते जंगलात मुख्यालय से खच्च्रर बाट के भी आँकड़े लिये। तब तक आधे से ज्यादा सामान की ढुलाई खच्चरों के द्वारा खच्चर बाट से ही होती थी। मिलिटरी के घोड़े भी खच्च्रर मार्ग का ही सहारा लेते थे।

इतना सब इसलिये लिखना पडा कि अगर थीसिस का चक्कर नही होता तो यह यात्रा भी नही होती और कोटद्वार से ऊपर कभी जाता ही नही।  इतनी सारी जगहों के बारे मे किताबों मे ही पढ़ पाता। पढ़ता कि नही वह भी पता नही। देखकर पता चला कि हमारा राज्य कितना सुंदर है। बनचूरी से हिमालय श्र्रिंखला दिखती तो थी पर पौडी लैंसडौन से लगता था कोशिश करूँ तो पकड़ भी सकता हूँ। इसके बाद बर्सों तक उस तरफ़ जाना नही हुआ। अफ़सोस कि २०० पेज की वह किताब बार बार जगह बदलने के चक्कर मे कहीं खो गई।

रिटायरमेंट के बाद सोचा और भी देखा जाय। जब चार ( केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यम्नोत्री )धाम यात्रा पर निकले तो चारों जगह ग्लेशियर तक छू लिया। रास्ते मे देखने को क्या नही था? रिशिकेस,  देव प्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, जोशीमठ, उत्तरकाशी। यहाँ तक कि पुरानी टिहरी भी जो अब कभी देख नही पायेंगे। टिहरी डाम निगल गया उसे और साथ मे कई गाँवों को। नैनीताल, सात ताल, भीम ताल, रानीखेत कुमाऊँ मे तो मशूरी, चंबा, न्यू टिहरी,  टिहरी मे। सब एक से एक बढ़कर। यह इसलिये कह रहा हूँ कि इस से पहले भारत को श्रीनगर से कन्याकुमारी और नागालैंड से सोमनाथ तक देख आया था। यहाँ तक कि नेपाल, भूटान, थाइलैंड, शिंगापुर, अमेरिका भी। तुलना करना सही नही होगा क्योंकि हर जगह कुछ कहती है।

सब देखने के बाद लगा उत्तराखंड मे  क्या नही है !!! पर्यटन को बढ़ाने के लिये क्या करें? अगले अंक मे।


हरि लखेडा,
नवंबर, २०१७






















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