उत्तराखंड जवान हो चला है, चलो देखते हैं।
आज अपना प्रदेश १७ साल का हो चुका है। फेशबुक, ह्वाट्सअप और सारा इंटरनेट शुभकामनायें बाँट रहा है, बटोर रहा है। स्वाभाविक है। मेरी तरफ़ से भी हज़ार हज़ार वधाइयां। हालाँकि उत्तराखंड के बनने मे मेरा या मेरे जैसे कई लोगों का कोई योगदान नही रहा पर ख़ुशी हम सब को हुई थी। उस समय कलकत्ता मे आराम का जीवन वसर कर रहा था और आरंभिक जीवन की जद्दोजहद से बहुत दूर निकल आया था। फिर भी कहीं कोई कशिश बाकी थी। बनचूरी प्राइमरी स्कूल के दिन कहाँ भूल सकते थे। बनचूरी - कोटद्वार का लंबा पैदल सफ़र, रास्ते के उकाल् -उंधार, नदी -रगड़, सब याद था। एक तरह से गर्व भी था। चमोली से कमांडेंट चमोली जी कलकत्ता एयरपोर्ट पर अपनी बैटेलियन के साथ सिक्योरिटी संभाल रहे थे। उन्होंने बताया कि वे भी आठवीं तक गाँव से रोज़ स्कूल तक का ५ मील का सफ़र तय करते थे। हमारे जैसे कई और रहे होंगे। राज्य के लिये हो रहे आंदोलन, आंदोलन को निष्फल करने के तरीक़े आदि पर समाचार पत्रों मे पढ़ लेते बस इतना ही योगदान था। कैंथोला जी कभी कभी उत्तेजित हो जाते, फिर अपनी फ़ैक्टरी की रोज़ मर्रा जिंदगी मे व्यस्त हो जाते।
इसी दिन २००० को आख़िर राज्य बन ही गया। लगा अब सब ठीक हो जायेगा। अगर एक ग्रुप की पोस्ट का ज़िक्र करूँ तो ८ लाख बेरोज़गार, ३००० स्कूल बंद, ३२ लाख लोग बाहर, ४००० गाँवों मे सडक नही, १८००० अध्यापक बेरोज़गार, आदि आदी । १७ सालों मे ९ मुख्यमंत्री, टेम्पोरैरी राजधानी और कई करप्पसन के मामले। पढ़कर डर लगता है। छत्तीसगढ़ और हिमांचल से तुलना सही है पर यह सब वहाँ भी है। लोग वहाँ से भी पलायन करते हैं, बेरोज़गारी वहाँ भी है। शायद फ़र्क़ इतना है कि वहाँ १०० मे से ५० जनता पर ख़र्च होता है, हमारे यहाँ १०० मे से बस २० जनता पर ख़र्च होता है। शादियों से ग़रीबी झेल रहे नेताओं को नया नया शौक़ है। सबसे बडी बात, चुने तो हमने ही हैं। दोनों पार्टियों को आज़मा लिया। कुछ नया हो जाय।
पलायन पर चर्चा रोज़ ही हो रही है। जानते सब हैं पर कहना नही चाहते। पलायन अर्थशास्त्र के अनुसार डिमांड और सप्लाई का मामला है। इसको जगह विशेष से कोई लेना देना नही। जहाँ जरूरत होगी लोग वहीं जायेंगे। ओ चाहे दिल्ली हो या मुंबई या फिर अमरीका। भाउकता से पेट नही पलता। कल अगर उत्तराखंड मे भी अवसर हुये तो वापस आने मे ज्यादा समय नही लगेगा। और फिर वहीं क्या कम हैं जो किसी के वापस आने की इंतज़ार करनी पड़े। कुछ दिक़्क़तें होंगी। पलायन को ज्यादा तूल न दें तो अच्छा।
बहुत से लोग जो शहरों मे बसे है, उन्होंने पहाड देखा ही नही। और देखा भी तो देहरादून तक ही। कभी किसी शादी व्याह मे शामिल चले जाते हैं। उन्हें लगता है आगे सब कुछ मुश्किल है। बिसलेरी की बोतल रखनी होगी नही तो डायरिया हो जायेगा और इलाज के लिये वापस आना पड़ेगा। अब उन्हें क्या बताये कि :
"सफ़र मे धूप तो होगी, जो,चल सको तो चलो"
जाकर ही पता चलेगा कि उतनी भी धूप नही है जितना बता कर डराया गया था। अच्छी सड़के है, रहने के लिये पाँच सितारा तो नही पर साफ सुथरे होटल हैं। स्पैिलिटी हास्पिटल तो नही पर डायरिया पहले तो होगा नही, अगर हो भी गया तो कैमिस्ट ही दवा देगा। ताज़ा ताज़ा खाना मिलेगा। यहाँ तक कि चाइनीज़ भी मिल जायेगा। पहाडी खाना भी मिलने लगा है, ट्राइ करना जरूर। पसंद आयेगा। अब तक तो नाम ही सुना है, चख भी लेना। उत्तराखंड देहरादून, हरिद्वार, रिशिकेस, मशूरी या नैनीताल मे नही बसता। अंदर तक जाना होगा। जाइये जरूर । वहाँ जाकर ख़र्च भी जम के कीजिये। लोकल इकानोमी को मदद मिलेगी। दुबारा जायेंगे तो और अच्छी सुविधा मिलेगी। चार धाम की यात्रा भी कर सकते हैं, थोड़ा स्पिरीचुवल अपलिफ्ट हो जायेगा। अब तो हेलीकाप्टर चलता है। जायेंगे तो बहुत से देश विदेश के लोग मिलेंगे। हाँ पर्यटकों मे उत्तराखंडी कम हों तो आप की देखा देखी जुड़ जायेंगे। वापस जाकर अच्छाई ज्यादा और कमियाँ कम गिनाइयेगा। आपके दोस्त , रिस्तेदार भी जरूर जायेंगे।
एक बार फिर से बधाई।
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