Tuesday, December 26, 2017

फ़ेसबुक की दोस्ती, शालीनता और संकोच !

आज फ़ेसबुक से पता चला कि मेरे ४०० से ऊपर दोस्त हो गये हैं, बधाई भी दी। पता नही बधाई खुद को दे रहे थे या मुझको। अपने को ही दे रहे होंगे यह कह कर कि देखो फेशबुक ने तुम्हारे ४०० से ऊपर दोस्त बना दिये। चारों तरफ़ घूम कर देखा, सारे पन्ने पलट कर देखे, पुराने गद्दे उठा कर देखे, मुझे तो दूर दूर तक कोई ऐसा नजर नही आया जिसे दोस्त कह सकूँ। ७६ साल की उमर और भला हो मेरे ४० साल के मार्केटिंग कैरियर का जिसने देश के कोने कोने मे लोगों को मिलने का अवसर प्रदान किया, जिसकी बिना पर बोल सकता हूँ कि ज्यादा नही तो  १०००० लोगों से तो मिला ही हूँगा। सबको अपनी जान पहचान का कह सकता था। आज कितनी भी कोशिश कर लूँ ५०० के भी नाम या चेहरे याद न हों। दोस्ती की बात तो दूर की है। ऐसा नही कि दोस्त थे ही नही पर ओ फेशबुक की वजह से नही थे। कुछ तो आज भी हैं। जो लोग दावा करते हैं कि उनके बहुत सारे दोस्त हैं, इतना ही कहूँगा कि सारी जिंदगी मे एक या दो ही मिल जांय वही बहुत है, इससे ज्यादा संभाले भी नही जायेंगे।

ख़ैर, फ़ेसबुक पर हैं तो फ़ेसबुक की बात करें। ४०० मे से २७ तो घर के ही हैं। और ३३ गाँव गलियारे के हैं। २१ ऐसे हैं जिनके साथ अलग अलग टाइम पर औफिस मे काम किया। २२ ऐसे हैं जिनको मुझसे या मुझको जिनसे यदा कदा काम पड़ता रहता है या जिनको मै मिला हूँ। बाकी बचे २९७. इन १०३ नज़दीकी दोस्तों मे कुछ हम उम्र या आस पास के हैं, कुछ कम, कुछ बहुत कम तो कुछ बच्चों की उम्र के है। एक दो के तो कुछ साल पहले ही दूध के दाँत गिरे हैं। घर वालों और गाँव गलियारे वालों  मे ज़ाहिर है आठ - दस को छोड़कर  बाकी सब छोटे ही हैं। इनमें बेटियाँ, भतीजियां और भतीजे भी हैं, बहुयें भी । यह सब गारंटी से कह रहा हूँ क्योंकि इनको देखा हुआ है। बाकी २९७ का कहना मुश्किल है। प्रोफ़ाइल मे जो लिखा है या जो फोटो लगाई है वही जाने। इनमें आदमी और औरतें दोनों हैं।

अब आप समझ गये होंगे, फेशबुक पर लिखना कितना कठिन है। पढ़ने वालों मे सभी हैं। शालीनता की कोई भी हद पार की और संकोच की गली से गुज़रना अवश्यमभावी है। फूँक फूँक कर क़दम रखना पड़ता है।

बहुत साल पहले किसी शिक्षक ने कहा था- have good friendship but observe decency. मतलब, दोस्ती बढिया हो पर शालीनता का ध्यान रखा जाय। स्कूल और कालेज का वातावरण ही कुछ अजीब होता है। जिसको जितनी बडी गाली देकर बुला सको, उतना ही  जिगरी दोस्त। समझ रहे हैं न मै क्या कहने की कोशिश कर रहा हूँ? पंजाबी माहोल मे तो यह बात ज्यादा ही लागू होती है। सहारनपुर मे तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट भी थे।

आओ अब बताऊँ कि इतने दोस्त बने कैसे। मै अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया। मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। सात आठ साल पहले फ़ेसबुक साइन किया तो कुछ जाने पहचाने लोगों को जो पहले से ही वहाँ बिराजमान थे प्रार्थना पत्र भेजा और उनकी स्वीक्रिति मिली। कुछ फ़ेसबुक ने मेल कांटैक्ट से ढूँढ कर ला खड़े किये। करते करते ३०-४० तक दोस्त बन गये। कुछ तो घर के ही सदस्य थे। कुछ आफिस के साथी और कुछ नाते रिस्तेदार। दो साल पहले तक यही वस्तु स्तिथि रही। फिर सोचा फ़ेसबुक के ज़रिये अपनी इधर उधर छपी या पड़ी लेखनी का कमाल सेयर किया जाय। लोगों तक बात भी चली जायेगी और कुछ नाम भी हो जायेगा। काम का काम , दाम के दाम। पहले से ही कुछ ग्रुप्स मे लिखता रहता था तो काम आसान था।

हम जब किसी मुहिम पर निकलते हैं तो कोई भी कसर बाकी नही रखते। लिहाज़ा फ़ेसबुक ही नही, फ़ेसबुक पर हाज़िर ग्रुप्स को भी समेट लिया। फ़ेसबुक भी मदद करता रहा- इस ग्रुप को भी ज्वाइन कर लो। सब मिलाकर १५ तो हैं ही। सब जगह अपने लेख हिंदी, अंग्रेज़ी और गढ़वाली मे चिपकाने शुरू कर दिया। ठीक ठाक रेसपौंस मिला और फ़्रेंडशिप रिक्वेस्ट आने लगीं। किसी को नाराज़ करने की आदत है नहीं , वैसे भी जरूरत तो थी ही, स्वीकार करता चला गया। अगर कभी किसी को नही किया तो फेशबुक याद दिलाता रहा। किसी की रिक्वेस्ट नही मानी तो फेशबुक ने हल्के से जता दिया कि उसने यह बात रिक्वेस्ट करने वाले को बताई नही है। एक और एहसान। कभी तंग आकर किसी को अनफ्रेंड किया तो फ़ेसबुक ने फिर एहसान जताया और कहा कि बतायेगा नही।

अब जब ४०० से ऊपर दोस्त हैं जिनमें घर के, बाहर के, बूढ़े, बच्चे, जवान, स्त्री, पुरुष, रिस्तेदार मे छोटे- बडे, सब ही हैं। काफ़ी सावधानी रखनी पडती है। जब किसी की सेल्फी दिखती है तो सोचना पड़ता है कि ख़ाली लाइक मार दूँ, या कुछ कामेंट्स भी करूँ और करूँ तो क्या। कभी कभी तो अनदेखा भी करना पड़ता है। किसी किसी की स्टेटस अपडेट भी एक कभी न खत्म होने वाला एकता कपूर का सीरियल जैसे होता है। पर लाइक तो मारना ही पड़ता है क्योंकि बदले मे अपने लिये भी तो चाहिये।

बस शालीनता बनाये रखनी पडती है ताकि संकोच वाली पतली गली से न गुज़रना पड़े। फ़ेसबुक ज़िंदाबाद।

हरि लखेडा,
दिसंबर, २०१७

No comments:

Post a Comment

Universal Language of Love and Hate.

Universal Language of Love and Hate. Sometimes, I wonder, why humans developed languages or even need them? If we look back, we will realize...