(१४) खुल गई, खुल गई, आपकी अपनी दुकान!!!!!!!
कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर एक चलता फिरता सर्वे किया था। दुकान खोलने की इच्छा ज़ाहिर की थी और दोस्तों से दरख्वास्त की थी कि अपने सुझाव देकर रास्ता दिखायें। पर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। जिसके हिस्से मे ऐसे दोस्त आये हों उसे दुश्मनों की क्या जरूरत। ज़रा धैर्य रखिये, ख़ुलासा भी कर दुंगा। एक ही गुज़ारिश है, इसे मज़ाक़ ही समझें और सीरियस्ली न लें। हम लोग हँसना भूल गये हैं। पार्कों मे लाफ़्टर क्लब इसके साबुत हैं। ज़बरदस्ती हँसना और हँसाना पड़ रहा है।
हाँ तो मै दुकान खोलना चाहता था। भारतीय नागरिक होने के कारण मेरा हक़ है कि मै दुकान क्या कुछ भी खोल सकता हूँ। ७० साल की आज़ादी मे इतना भी न कर पाये तो क्या फायदा आज़ादी का? आज़ादी का मतलब मे कम से कम रोटी रोज़ी कमाने की आज़ादी तो होनी ही चाहिये। साफ कर दूँ, कुछ भी खोलने मे कपड़े खोलना नही है। जाने क्यों लोग हर बात का गलत मतलब निकाल लेते हैं। मेरा मतलब है दुकान, स्कूल, हस्पताल, फ़ैक्टरी, रेस्टोरेंट, होटल, आदि आदि। इनमें भी कई टाइप हैं। वैसे स्कूल, हस्पताल भी एक प्रकार से दुकान ही हैं, बस नाम का फ़र्क़ है। ज्यादा मह्त्वकांक्षी नही हूँ इसलिये एक छोटी सी दुकान का ही सपना है, चलते, करते बड़ी हो जायेगी।
@सचिन जैन जी ने कहा चाय की दुकान खोल लो, प्रधान मंत्री बन सकता हूँ। ज़ाहिर है मेरी कम और अपने फ़ायदे की ज्यादा सोच रहा होगा कि मै प्रधान मंत्री बन गया तो उसकी पाँचो उँगली घी मे। सब तो कठोर दिल नही होते। मासूम सा दिल है पिघल जायेगा। उनका तो कुछ नही होगा, मेरा नया नया राजनैतिक कैरियर खत्म हो जायेगा। सर मुँड़ाते ही ओले। अंदर जाने की नौबत भी आ सकती है, जो भारत के इतिहास मे पहली बार होगा।
आनंद कामले और प्रदीप लखेडा ने दारू की दुकान खोलने की सलाह दी। जानते हैं चल तो जरूर जायेगी पर घाटे मे ही रहेगी। दिनभर आकर खुद भी फोकट की पियेंगे, दोस्तों को पिलायेंगे और मुझे भी साथ मे लपेट लेंगे। घाटा पूरा करने के लिये नक़ली दारू बिकवायेंगे। उनका भी कुछ नही होगा, मै जरूर अंदर हो जाऊँगा।
प्रशांत लखेडा ने सरकारी राशन की दुकान खोलने की सलाह दी। पहले तो बिना सोर्स या धूस दिये सरकारी राशन की दुकान खुलती नही है और दूसरे बिना हेर फेर के चलती नही है। यहाँ भी ओ तो पतली गली से निकल जायेंगे और मै अंदर। जिन मित्रों ने आढत ( कांति लखेडा)की और पेट्रोल पंप (शरत नेगी) खोलने की सलाह दी, उनको भी पता है कि वहाँ भी अंदर जाने का ख़तरा है। बिना मिलावट या नक़ली सामान बेचे इस तरह के व्यापार कहीं होते हैं क्या?
कंसलटैंसी की दुकान खोलने की सलाह @सुभाष लखेडा जी से मिली। मामला कुछ जमता पर देखा गली गली मे सलाहकार बैठे हैं। कई तो फ़ेसबुक पर ही क़ब्ज़ा किये बैठे हैं। ह्वाट्सअप, लिंक्डइन, यूट्यूब अलग। मोबाइल सामने रखो, हो जाओ शुरू व्याख्यान देने। विडियो लाद दो। लगा यहाँ भी दाल नही गलेगी। कमाई तो कुछ होगी नही, घर से ही जायेगा। दोस्त चाहते भी यही हैं।
अनुराग शिक्का जी से नेता बनाने वाली स्कूल खोलने की भी सलाह मिली। राजनैतिक नेता नही, दूसरे टाइप के जो व्यापारिक संगठनों मे या अन्य संगठनों मे काम करते हैं । शायद मित्र यह जताना चाहते थे कि जितने भी असफल लीडर हुये हैं रिटायरमेंट के बाद या तो सलाहकार बन गये या नये लीडर तैयार करने मे लग गये। शायद कहना चाह रहे थे कि मैंने कौन से तीर मार लिये थे जो मेरे चेले मार लेंगे। बाद मे कहते हमको तो पहले से ही पता था कि चलेगी नही। क्यों रही सही इज़्ज़त भी ख़तरे मे डाली जाय, सोचकर चुप मार गया। @महेश कंडवाल भी कुछ ऐसा ही इशारा कर रहे थे।
@ जी. पी. मंडल जी ने भविश्य वक़्ता की दुकान खोलने को कहा। शायद उनका मतलब बाबा बंगाली टाइप की दुकान से था। आजकल बाबा कहलाना कितना महँगा पड़ सकता है, रामपाल, राम रहीम और आशाराम से पूछकर देख लेते। अजय प्रकाश पैन्यूली जी ने भी यही सलाह दी। न जाने क्यों सब मुझे अंदर करने की साज़िश मे लगे हैं।
विवेका नंद शैलेश ने गाँव में चाउमिन्न और जलेबी की दुकान खोलने को बोल रहे हैं। कहते हैं ख़ूब चलेगी। महिलाओं को बहुत पसंद है। पसंद तो जरूर होगी, फिर उधार माँगेंगी, उधार न चुकाने के पच्चीस बहाने बनायेंगीं।
कुछ सख़्ती करुंगा तो कुछ भी इल्ज़ाम लगा देंगी। अंदर जाने का पूरा इंतज़ाम। ना रे बाबा, मेरे बस का नही है।
अब तक तो आपको पता चल ही गया होगा कि क्यों मेरे पास दुश्मनों की कमी नही है। इतने सारे दोस्तों के रहते, दुश्मनों की जरूरत है? कुछ दोस्त भले ही मेरा भला चाहते हों पर उससे क्या होगा। ऊपर नीचे हुआ तो भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा। ज़मानत देने भी नही आयेंगे, आयेंगे क्या दिखेंगे भी नही।
सुशील बडोला ने कहा है कि क्योंकि मै अच्छा ? लिखता हूँ ? तो किताब छपवाऊं। छपवा तो लूँ, अपने ही ख़र्चे पर सही पर ख़रीदेगा कौन? या तो पहले तो किताब छपाने के लिये किसी राजनेता की चरण बंदना करूँ ताकि सरकार से कुछ अनुदान मिल जाय और फिर किसी और नेता की उँगली पकड़ूँ कि आकर उसका अनावरण करूँ! यह सब करने के बाद भी न बिके तो लोगों को पकड़ पकड़ कर मुफ़्त मे किताब बाँटता फिरूँ! जिनको पढ़ना है फ़ेसबुक पर पढ़ लेंगे। हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा आये तो ठीक न भी आये तो पल्ले से तो कुछ नही गया !
पर जो एक बार ठान लेता हूँ फिर तो मै किसी की नही सुनता। सलमान खान के डाइलाग की नक़ल नही कर रहा हूँ। दुकान खोलनी है सो खोल दी। जन्म दिन का ( १५ सितंबर) मुहर्रत निकला है। नाम है 'वायदों की दुकान' । मेरा वायदा है कि जो मेरी बात पर विश्वास करेगा उसके अच्छे दिन जरूर आयेंगे। इस दुकान से आपकी सारी ख्वाइशें पूरी होंगी। कोई ख़ाली हाथ वापस नही भेजा जायेगा। रोटी, कपड़ा, मकान से लेकर हर बात का वादा है। आपको बस इंतज़ार करना है। अब तक भी तो किया है। अब तक किसी भी वादाखोर को जेल जाते नही देखा। बहुत सुरक्षित धंधा है। सबसे बड़ी बात एक ही वादे को कई तरह की पैकिंग मे पेश किया जा सकता है। साथ ही पुराने वादों को भी नये नाम से रिसाइक्लिंग किया जा सकता है।
आइयेगा जरूर !!!!!!!!! आपकी अपनी दुकान है।
मोल भाव और उधार माँग कर करके हमें लज्जित मत करें प्लीज़।
हरि लखेडा ,
सितंबर १५, २०१७
कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर एक चलता फिरता सर्वे किया था। दुकान खोलने की इच्छा ज़ाहिर की थी और दोस्तों से दरख्वास्त की थी कि अपने सुझाव देकर रास्ता दिखायें। पर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। जिसके हिस्से मे ऐसे दोस्त आये हों उसे दुश्मनों की क्या जरूरत। ज़रा धैर्य रखिये, ख़ुलासा भी कर दुंगा। एक ही गुज़ारिश है, इसे मज़ाक़ ही समझें और सीरियस्ली न लें। हम लोग हँसना भूल गये हैं। पार्कों मे लाफ़्टर क्लब इसके साबुत हैं। ज़बरदस्ती हँसना और हँसाना पड़ रहा है।
हाँ तो मै दुकान खोलना चाहता था। भारतीय नागरिक होने के कारण मेरा हक़ है कि मै दुकान क्या कुछ भी खोल सकता हूँ। ७० साल की आज़ादी मे इतना भी न कर पाये तो क्या फायदा आज़ादी का? आज़ादी का मतलब मे कम से कम रोटी रोज़ी कमाने की आज़ादी तो होनी ही चाहिये। साफ कर दूँ, कुछ भी खोलने मे कपड़े खोलना नही है। जाने क्यों लोग हर बात का गलत मतलब निकाल लेते हैं। मेरा मतलब है दुकान, स्कूल, हस्पताल, फ़ैक्टरी, रेस्टोरेंट, होटल, आदि आदि। इनमें भी कई टाइप हैं। वैसे स्कूल, हस्पताल भी एक प्रकार से दुकान ही हैं, बस नाम का फ़र्क़ है। ज्यादा मह्त्वकांक्षी नही हूँ इसलिये एक छोटी सी दुकान का ही सपना है, चलते, करते बड़ी हो जायेगी।
@सचिन जैन जी ने कहा चाय की दुकान खोल लो, प्रधान मंत्री बन सकता हूँ। ज़ाहिर है मेरी कम और अपने फ़ायदे की ज्यादा सोच रहा होगा कि मै प्रधान मंत्री बन गया तो उसकी पाँचो उँगली घी मे। सब तो कठोर दिल नही होते। मासूम सा दिल है पिघल जायेगा। उनका तो कुछ नही होगा, मेरा नया नया राजनैतिक कैरियर खत्म हो जायेगा। सर मुँड़ाते ही ओले। अंदर जाने की नौबत भी आ सकती है, जो भारत के इतिहास मे पहली बार होगा।
आनंद कामले और प्रदीप लखेडा ने दारू की दुकान खोलने की सलाह दी। जानते हैं चल तो जरूर जायेगी पर घाटे मे ही रहेगी। दिनभर आकर खुद भी फोकट की पियेंगे, दोस्तों को पिलायेंगे और मुझे भी साथ मे लपेट लेंगे। घाटा पूरा करने के लिये नक़ली दारू बिकवायेंगे। उनका भी कुछ नही होगा, मै जरूर अंदर हो जाऊँगा।
प्रशांत लखेडा ने सरकारी राशन की दुकान खोलने की सलाह दी। पहले तो बिना सोर्स या धूस दिये सरकारी राशन की दुकान खुलती नही है और दूसरे बिना हेर फेर के चलती नही है। यहाँ भी ओ तो पतली गली से निकल जायेंगे और मै अंदर। जिन मित्रों ने आढत ( कांति लखेडा)की और पेट्रोल पंप (शरत नेगी) खोलने की सलाह दी, उनको भी पता है कि वहाँ भी अंदर जाने का ख़तरा है। बिना मिलावट या नक़ली सामान बेचे इस तरह के व्यापार कहीं होते हैं क्या?
कंसलटैंसी की दुकान खोलने की सलाह @सुभाष लखेडा जी से मिली। मामला कुछ जमता पर देखा गली गली मे सलाहकार बैठे हैं। कई तो फ़ेसबुक पर ही क़ब्ज़ा किये बैठे हैं। ह्वाट्सअप, लिंक्डइन, यूट्यूब अलग। मोबाइल सामने रखो, हो जाओ शुरू व्याख्यान देने। विडियो लाद दो। लगा यहाँ भी दाल नही गलेगी। कमाई तो कुछ होगी नही, घर से ही जायेगा। दोस्त चाहते भी यही हैं।
अनुराग शिक्का जी से नेता बनाने वाली स्कूल खोलने की भी सलाह मिली। राजनैतिक नेता नही, दूसरे टाइप के जो व्यापारिक संगठनों मे या अन्य संगठनों मे काम करते हैं । शायद मित्र यह जताना चाहते थे कि जितने भी असफल लीडर हुये हैं रिटायरमेंट के बाद या तो सलाहकार बन गये या नये लीडर तैयार करने मे लग गये। शायद कहना चाह रहे थे कि मैंने कौन से तीर मार लिये थे जो मेरे चेले मार लेंगे। बाद मे कहते हमको तो पहले से ही पता था कि चलेगी नही। क्यों रही सही इज़्ज़त भी ख़तरे मे डाली जाय, सोचकर चुप मार गया। @महेश कंडवाल भी कुछ ऐसा ही इशारा कर रहे थे।
@ जी. पी. मंडल जी ने भविश्य वक़्ता की दुकान खोलने को कहा। शायद उनका मतलब बाबा बंगाली टाइप की दुकान से था। आजकल बाबा कहलाना कितना महँगा पड़ सकता है, रामपाल, राम रहीम और आशाराम से पूछकर देख लेते। अजय प्रकाश पैन्यूली जी ने भी यही सलाह दी। न जाने क्यों सब मुझे अंदर करने की साज़िश मे लगे हैं।
विवेका नंद शैलेश ने गाँव में चाउमिन्न और जलेबी की दुकान खोलने को बोल रहे हैं। कहते हैं ख़ूब चलेगी। महिलाओं को बहुत पसंद है। पसंद तो जरूर होगी, फिर उधार माँगेंगी, उधार न चुकाने के पच्चीस बहाने बनायेंगीं।
कुछ सख़्ती करुंगा तो कुछ भी इल्ज़ाम लगा देंगी। अंदर जाने का पूरा इंतज़ाम। ना रे बाबा, मेरे बस का नही है।
अब तक तो आपको पता चल ही गया होगा कि क्यों मेरे पास दुश्मनों की कमी नही है। इतने सारे दोस्तों के रहते, दुश्मनों की जरूरत है? कुछ दोस्त भले ही मेरा भला चाहते हों पर उससे क्या होगा। ऊपर नीचे हुआ तो भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा। ज़मानत देने भी नही आयेंगे, आयेंगे क्या दिखेंगे भी नही।
सुशील बडोला ने कहा है कि क्योंकि मै अच्छा ? लिखता हूँ ? तो किताब छपवाऊं। छपवा तो लूँ, अपने ही ख़र्चे पर सही पर ख़रीदेगा कौन? या तो पहले तो किताब छपाने के लिये किसी राजनेता की चरण बंदना करूँ ताकि सरकार से कुछ अनुदान मिल जाय और फिर किसी और नेता की उँगली पकड़ूँ कि आकर उसका अनावरण करूँ! यह सब करने के बाद भी न बिके तो लोगों को पकड़ पकड़ कर मुफ़्त मे किताब बाँटता फिरूँ! जिनको पढ़ना है फ़ेसबुक पर पढ़ लेंगे। हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा आये तो ठीक न भी आये तो पल्ले से तो कुछ नही गया !
पर जो एक बार ठान लेता हूँ फिर तो मै किसी की नही सुनता। सलमान खान के डाइलाग की नक़ल नही कर रहा हूँ। दुकान खोलनी है सो खोल दी। जन्म दिन का ( १५ सितंबर) मुहर्रत निकला है। नाम है 'वायदों की दुकान' । मेरा वायदा है कि जो मेरी बात पर विश्वास करेगा उसके अच्छे दिन जरूर आयेंगे। इस दुकान से आपकी सारी ख्वाइशें पूरी होंगी। कोई ख़ाली हाथ वापस नही भेजा जायेगा। रोटी, कपड़ा, मकान से लेकर हर बात का वादा है। आपको बस इंतज़ार करना है। अब तक भी तो किया है। अब तक किसी भी वादाखोर को जेल जाते नही देखा। बहुत सुरक्षित धंधा है। सबसे बड़ी बात एक ही वादे को कई तरह की पैकिंग मे पेश किया जा सकता है। साथ ही पुराने वादों को भी नये नाम से रिसाइक्लिंग किया जा सकता है।
आइयेगा जरूर !!!!!!!!! आपकी अपनी दुकान है।
मोल भाव और उधार माँग कर करके हमें लज्जित मत करें प्लीज़।
हरि लखेडा ,
सितंबर १५, २०१७