सदियों पुरानी कहावत - पेट से दिल तक
पुरानी कहावत है कि मर्द के दिल तक जाने का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है। मर्द के ही क्यों ? किसी के भी दिल तक जाने का रास्ता उसके पेट से ही होकर जाता है। ज़रूरत है खाना भरपेट हो और स्वादिष्ट हो तो क्या कहने। आदमी को पालतू बनने मे कितनी देर लगती है। अगर इससे भी काम न बने तो डर पैदा करो।
सबसे सामान्य पालतू जानवर कुत्ता है। पहले जंगलों मे रहता था । पेट भरने के लिये शिकार करना पड़ता या फिर जूठनसे काम चलाना पड़ता। मेहनत रास नही आई तो बस्तियों मे डोलने लगा। आदमी को तो ग़ुलाम बनाने का शौक़ था ही। समझता था कि, हड्डी डाल दो, ग़ुलाम बन जायेगा। फिर चाहे कुछ भी करवा लो। इशारों पर नाचने लगेगा। डाँटने पर पूँछ हिलायेगा। अजनबियों पर गुर्रायेगा, भौंकेगा । घर का काम भी कर देगा । गेट पर जाकर पेपर ले आयेगा । बच्चों का मन बहला देगा, बेबी सेटिंग कर देगा। घर की चौकीदारी करेगा। मन, कर्म और बचन से आपका होकर रह जायेगा। बस मालिक दो वक़्त का खाना दे दो और बीच बीच मे थोड़ा सा पुचकार दो। न हो तो डरा दो।
अब घोड़े को ले लो। क्या कमी थी जंगल मे? मस्त ज़िंदगी, भरपूर घास । पर बहकावे मे आ गया । पहले कुछ ना नुकर की पर फिर मान गया। चनों का स्वाद जो ज़ुबान पर लग गया। ग़ुलाम बन कर रह गया। गाड़ी खींचता है, बोझा ढोता है। रेस मे मालिक को जिताता है । लड़ाई के मैदान मे करतब दिखाता है । सज धज कर मालिक की सवारी बनता है। कभी कभी बड़े बड़े साहब लोगों की शान भी बनता है। बस मालिक वही स्वादिष्ट चने डाल दो और थोड़ा सा सहला दो। न हो तो चाबुक तो है ही।
इसी तरह के बहुत सारे पालतू जानदार हैं। यहाँ तक कि शेर और हाथी भी। सब मे एक बात समान है। उनसे बफादारी की उम्मीद तभी की जा सकती है जब तक उनके पेट की ज़िम्मेदारी आपकी है। दूसरे माने मे उनके दिल तक जाने का रास्ता उनके पेट से होकर जाता है । एक बार पकड़ मे आ गये तो डंडा ही काफ़ी है। उपरोक्त कहावत यही साबित करती है।
इंसान भी पहले जंगलों मे ही रहता था। शिकार करके अपना और परिवार का पेट पालता। फिर खेती करना सीखा। पर दाँव कुछ ऐसा पड़ा कि किसान से बँधवा मज़दूर या मिल मज़दूर बन गया। और एक दिन वह भी आया जब मज़दूर भी नही रहा, बेकार हो गया। ज़मीन तो पहले ही जा चुकी थी, अब चाकरी भी गई। जो चालाक थे मालिक बन गये बाकी मजबूर होकर उनके आश्रित हो गये। मलिकों को जानवरों को पालतू बनाने का अनुभव तो था ही। आदमी को पालतू बनाना कोई मुश्किल काम नही था। उनके सामने चारा डालता रहा और तालियाँ बजवाता रहा। बीच बीच मे डर तो है ही। पेट और डर के सामने किस की चलती है। इतना ध्यान ज़रूर रखा कि भरपेट खाना कभी मत दो, वरना अधिकार समझने लगेगा। आधा पेट आदमी ज़्यादा डरता है।
यह परंपरा चली आ रही है और चलती रहेगी। मालिक वादे तो बहुत करता है पर होता कुछ नही। बीच बीच मे स्वाद बदलने के लिये मीठे के रूप मे बीपीएल, मनरेगा, मुफ़्त का गैस का चूल्हा, टी वी, जैसी आइसक्रीम खिला देता है। आदमी सोचता है बस अच्छेदिन आने ही वाले हैं। दिल ही तो है, पसीज जाता है। मालिक के गुणगान करने लगता है। डरता है कुछ कहा तो यह भी नही मिलेगा।
सदियों की गुलामी आदत बन जाती है। पहले राजा रजवाड़ों के ग़ुलाम रहे, फिर मुग़लों के, फिर अंग्रेज़ों के और अब अपनो के। अपने इस लिये कि हमने ही उनको राजा चुना है। और चारा भी क्या था।
पुरानी कहावत है कि मर्द के दिल तक जाने का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है। मर्द के ही क्यों ? किसी के भी दिल तक जाने का रास्ता उसके पेट से ही होकर जाता है। ज़रूरत है खाना भरपेट हो और स्वादिष्ट हो तो क्या कहने। आदमी को पालतू बनने मे कितनी देर लगती है। अगर इससे भी काम न बने तो डर पैदा करो।
सबसे सामान्य पालतू जानवर कुत्ता है। पहले जंगलों मे रहता था । पेट भरने के लिये शिकार करना पड़ता या फिर जूठनसे काम चलाना पड़ता। मेहनत रास नही आई तो बस्तियों मे डोलने लगा। आदमी को तो ग़ुलाम बनाने का शौक़ था ही। समझता था कि, हड्डी डाल दो, ग़ुलाम बन जायेगा। फिर चाहे कुछ भी करवा लो। इशारों पर नाचने लगेगा। डाँटने पर पूँछ हिलायेगा। अजनबियों पर गुर्रायेगा, भौंकेगा । घर का काम भी कर देगा । गेट पर जाकर पेपर ले आयेगा । बच्चों का मन बहला देगा, बेबी सेटिंग कर देगा। घर की चौकीदारी करेगा। मन, कर्म और बचन से आपका होकर रह जायेगा। बस मालिक दो वक़्त का खाना दे दो और बीच बीच मे थोड़ा सा पुचकार दो। न हो तो डरा दो।
अब घोड़े को ले लो। क्या कमी थी जंगल मे? मस्त ज़िंदगी, भरपूर घास । पर बहकावे मे आ गया । पहले कुछ ना नुकर की पर फिर मान गया। चनों का स्वाद जो ज़ुबान पर लग गया। ग़ुलाम बन कर रह गया। गाड़ी खींचता है, बोझा ढोता है। रेस मे मालिक को जिताता है । लड़ाई के मैदान मे करतब दिखाता है । सज धज कर मालिक की सवारी बनता है। कभी कभी बड़े बड़े साहब लोगों की शान भी बनता है। बस मालिक वही स्वादिष्ट चने डाल दो और थोड़ा सा सहला दो। न हो तो चाबुक तो है ही।
इसी तरह के बहुत सारे पालतू जानदार हैं। यहाँ तक कि शेर और हाथी भी। सब मे एक बात समान है। उनसे बफादारी की उम्मीद तभी की जा सकती है जब तक उनके पेट की ज़िम्मेदारी आपकी है। दूसरे माने मे उनके दिल तक जाने का रास्ता उनके पेट से होकर जाता है । एक बार पकड़ मे आ गये तो डंडा ही काफ़ी है। उपरोक्त कहावत यही साबित करती है।
इंसान भी पहले जंगलों मे ही रहता था। शिकार करके अपना और परिवार का पेट पालता। फिर खेती करना सीखा। पर दाँव कुछ ऐसा पड़ा कि किसान से बँधवा मज़दूर या मिल मज़दूर बन गया। और एक दिन वह भी आया जब मज़दूर भी नही रहा, बेकार हो गया। ज़मीन तो पहले ही जा चुकी थी, अब चाकरी भी गई। जो चालाक थे मालिक बन गये बाकी मजबूर होकर उनके आश्रित हो गये। मलिकों को जानवरों को पालतू बनाने का अनुभव तो था ही। आदमी को पालतू बनाना कोई मुश्किल काम नही था। उनके सामने चारा डालता रहा और तालियाँ बजवाता रहा। बीच बीच मे डर तो है ही। पेट और डर के सामने किस की चलती है। इतना ध्यान ज़रूर रखा कि भरपेट खाना कभी मत दो, वरना अधिकार समझने लगेगा। आधा पेट आदमी ज़्यादा डरता है।
यह परंपरा चली आ रही है और चलती रहेगी। मालिक वादे तो बहुत करता है पर होता कुछ नही। बीच बीच मे स्वाद बदलने के लिये मीठे के रूप मे बीपीएल, मनरेगा, मुफ़्त का गैस का चूल्हा, टी वी, जैसी आइसक्रीम खिला देता है। आदमी सोचता है बस अच्छेदिन आने ही वाले हैं। दिल ही तो है, पसीज जाता है। मालिक के गुणगान करने लगता है। डरता है कुछ कहा तो यह भी नही मिलेगा।
सदियों की गुलामी आदत बन जाती है। पहले राजा रजवाड़ों के ग़ुलाम रहे, फिर मुग़लों के, फिर अंग्रेज़ों के और अब अपनो के। अपने इस लिये कि हमने ही उनको राजा चुना है। और चारा भी क्या था।
No comments:
Post a Comment