Wednesday, January 10, 2018

मीनि नी खाई, त तिताई क्या दीण ।
(गढ़वाली बुज़ुर्गों के लिये ख़ास)


बात पुराणि च पर कुछ बात कभी पुराणि नी हूंदी।

गैणा दाद्दी बहुत सुंदर छे। चेहरा मोहरा कि बात नि छौं करणाई, स्वभाव कि बात च। वन अपर टाइम पर चेहरा मोहरा से बी सुंदर ही रै ह्वेलि। कभी कैक दगड झगड़ा करद नी द्याख , कैताई गाली दींद नी सूण। ज्याद बोल्दी भी नी छे। मेरी याद दास्त क हिसाब से जब मि दसैक सालूक रै ह्वोलु त दाद्दी सत्तर पिचात्तरैकि रै ह्वेली। द्द्दा त कब्येक चल ग्या छे। द्वी बेटी और एक बेटा छे। बेटी त पराया धन हूंदी छन । बेटा, ब्वारी, नाती नतणा सबीछे। पुंगडी पाटलि बी खार्यूं छे। दाद्दीक मैका खांद पींद  परिवार छे ,बल। वे टाइम पर पैसा वाल से मतलब लखपति करोड़पति से नी छे। जैम द्वी चार सौ भी छै त वी भी पैसा वाल ही छे। पुराण लोग बोल्द छे कि दाद्दी ज़ेवरों से लदीं कन ऐ छे। सोनैकि बुलाक, बुंदा, मुरखुल, चाँदी की तगड़ी, पता नी और क्या क्या। दद्दा खेती बाड़ी भी खूब ही छे। कपड़ा, लत्ता, लूण, गुड, तेल, तंबाकू वास्त द्वी मैना कुण कोटद्वार जैकन कुछ कर लींद छे, बस। लडक्यूंक व्यौ बी बढिया  से कर। मीन त कबी द्याख नी पर सुणन मा आंद छे की दाद्दी कमरा मा एक बड़ संदूक छ और सारी ज़ेवर वैक अंदर छन। दाद्दी क कमरा मा कैताई जाणैकि हिम्मत नी छे। जब भी कखी जाँदि त ताल लगाइक ही जांदी छे।

चैतू काका घरम ही रंद छे। पैली मम्मी कुण ब्येई, डैडी या पापा कुण बाबा, ताऊ कुण बाडा, ताई कुण बौडी, चच्चा कुण काका, चाच्ची कुण काकी, बुआ कुण फूफु, बोल्द छ्या। अब त ज़्यादातर अंकल आंटी ह्वा गीन, काम आसान ह्वे ग्या। ख़ैर, खेति बाड़ी गुज़ार लायक ह्वे जांदी छे किलाई कि चैतू काका खेती क तरफ़ ध्यान ही नि
छे। बस हुक्का गुड़गुणाई रौंद छे। द्वी चार फ़सली खेत बेचीक बेटी क व्या कर। दाद्दी बुढ़्या ह्वे ग्या त सारी काम काकी हि करदि छे। गोर गुठ्यार, खेती बाड़ी सब काकी क ज़िम्मा। साथ मा स्कूल जाण वाल द्वी बेटा। दिन भर लगीं रैंदन छे। थोड़ा चिड़चिड़ी भी छे। काम क बोझ माँ क्वी भी चिड चिड़्या जांदु। दाद्दी दगड कम ही पटदि छे। दाद्दी त चुप ही रैंदी छे। संक्षेप मा गुज़ार बसर हूणाई छे।

दाद्दी कुछ बीमार सी रण लग्यां छे। ज़्यादातर कमरा मा ही रैंदी छे। साल छ मैना यनी बीत। बुखार और खाँसी न जाण क नाम ही नी ल्याइ। खाणुक भी कम ह्वे ग्या छे। कमज़ोर ह्वे गे छे। सारी देखभाल काकी क ऊपर। एक उम्मीद छे कि मरण क बाद संदूक म्यार ही च। एक दिन जब दाद्दी भैर जाईं रै त तकिया क तल् बिटीक चाबी निकाल् , तालु ख्वालु, सारी संदूक खंग्वाल पर कुछ नी मील। पुराण कपड़ों से भर्यूं छे। ग़ुस्सा त बहुत आई पर संदूक बंद कर, तालु लगाई और चाबी तकिया क तल् धर द्याइ।

वख दाद्दी जाण वाली और यख काकी कुण रगबगाहट। ज़ेवर छन त छन पर छन कख। दाद्दी ताई बताई भी नी सकदि कि संदूक भी छाँणी आलि। जरूर बुढियाक लुकाइक धरीं छन। बेटि आली और वूं ताई दे देलि। वूंक आण से पैली कुछ करण पडल्। सासु सेवा परम सेवा। काकी न दाद्दी क विश्वास जीतणैकि कोशिश और तेज़ कर द्याई। बीच बीच मा इशारा भी करणाई रै कि कुछ कैकुण बोलुण च या बताण च त बताई द्यावु।

जब लग कि जाणक दिन कब ऐ जा पता नी त साफ बात करण ही ठीक समझ। एक दिन पूछ ही द्या। ए जी वू ज़ेवर कख धरीं छन। मरीं सि आवाज मा दाद्दीन पूछ कु ज़ेवर, ए ब्वारी? जु कुछ छे बुढ्यान बेट्यूंक व्यौ मा लगा दे। बाकी चैतु ज़बरदस्ती ली ग्ये। कुछ नी रै। जब ड्वाला मा लै छे तभी पैरीन । सारी जिंदगी बच्चों ताई बड़ करण मा लगाई। ज़ू मील, जतुक मील वतीक मा समय काट। ब्वारी ! मीनि नी खाई त तिताई क्या दीण।

(आज भी स्थिति वही है। लड़के - बहू बूढ़े मा बाप की संपत्ति पर आँख लगाये बैठे है । देख भाल करना तो दूर, इस ताक मे हैं कि खिसकें तो जमीन- मकान हथियांयें। कुछ तो मार पीट करने से भी नही चूकते। जब तक जिंदगी है, ऐश करो, जो है अपने पास ही रखो। बाद मे जो बचेगा उनका है ही। )

हरि लखेडा।
जनवरी, २०१८

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